देहरादून: कार्बेट टाइगर रिजर्व से उड़ा एक शिकारी परिंदा, सफेद दुम वाला गिद्ध, करीब 200 किमी दूर देहरादून के पास सेलाकुई क्षेत्र के आसपास डेरा डाले हुए है। क्या इतनी लंबी उड़ान का उद्देश्य भोजन है, साथी की तलाश है, क्या वह यहां अपना घोंसला बनाएगा, या वापस लौटेगा, ऐसे कई सवाल हैं, जिनके जवाब, उसके दो पंखों के बीच लगे सैटेलाइट टैग से मिलेंगे।

इन शिकारी पक्षियों की मौजूदा स्थिति, उड़ान के रास्ते, घोंसले बनाने, प्रजनन जैसी जानकारियों को जुटाने के लिए उत्तराखंड वन विभाग ने वन्यजीव संरक्षण के लिए कार्य कर रही संस्था डब्ल्यूडब्ल्यूएफ इंडिया के साथ मिलकर, सफेद दुम वाले दो गिद्ध (White-rumped Vulture, Gyps bengalensis) और एक इजिप्टियन गिद्ध (Neophron percnopterus) को, नवंबर 2023 में, टैग किया।

उत्तराखंड के मुख्य वन्यजीव प्रतिपालक डॉ समीर सिन्हा कहते हैं “सेटेलाइट डाटा से हमें पता चलेगा कि किन जगहों पर गिद्ध खुलकर उड़ान भर रहे हैं, किन क्षेत्रों में उड़ने से वे बच रहे हैं, ताकि हम इसके कारणों को समझ सकें। हमारे पास गिद्धों से जुड़ा प्राथमिक डाटा ही उपलब्ध नहीं है। सेटेलाइट टैग वाले गिद्धों की उड़ान वाले क्षेत्रों को हम मॉनिटर करेंगे। अगर किन्हीं हालात में उनकी मृत्यु हुई तो समय रहते उन तक पहुंचना और मौत की वजह पता लगाना आसान होगा। ये सामान्य मौत थी या डायक्लोफेनेक जैसी एनएसएआईडी दवा इसकी वजह थी”।

करीब तीन दशक पहले तक देश के आसमान में उड़ते गिद्ध, चील, बाज जैसे पक्षियों का समूह इस बात की निशानी था कि हमारा पारिस्थितिकी तंत्र सुरक्षित है, उनकी ऊंची उड़ानों में धरती की स्वच्छता और पर्यावरण का संतुलन कायम था। लेकिन इन पक्षियों की आबादी में अब भी सुधार नहीं है। न ही इनकी आबादी कम होने की एक मात्र मुख्य वजह मानी गई डायक्लोफेनेक जैसी एनएसएआईडी (NSAIDs, non-steroidal anti-inflammatory drugs) दवाओं के इस्तेमाल पर पूरी तरह रोक लग सकी है।

गिद्धों पर संकट कायम

हालांकि गिद्ध संरक्षण के प्रयासों के सकारात्मक नतीजे भी सामने आए हैं। देश के कुछ हिस्सों में गिद्धों की आबादी में बढ़त दर्ज की गई है। तमिलनाडु की पर्यावरण, जलवायु परिवर्तन एवं वन विभाग की अपर मुख्य सचिव सुप्रिया साहू ने सोशल मीडिया पर साझा किया “तमिलनाडु सरकार के संरक्षण प्रयासों के कारण राज्य में गिद्धों की संख्या में वृद्धि हुई है। हाल की गिद्ध गणना के अनुसार गिद्धों की संख्या 246 से बढ़कर 320 हो गई है”।

इसी तरह गिद्ध संरक्षण के प्रयासों के चलते बुन्देलखण्ड के 14 में से 10 जिलों में गिद्धों की आबादी वर्ष 2009 में 1,313 से बढ़कर 2019 में 2,673 हो गई है। यह झाँसी स्थित एक गैर सरकारी संगठन भारतीय जैव विविधता संरक्षण सोसायटी (आईबीसीएस) के आंकड़ों से पता चलता है।

लेकिन अब भी दक्षिण एशिया में स्थानिक गिद्धों की तीन प्रजातियां सफेद दुम वाला व्हाइट-रम्प्ड गिद्ध (White-rumped Vulture, Gyps bengalensis), भारतीय गिद्ध (G. indicus), और पतली चोंचवाले गिद्ध (Slender-billed Vulture, G. tenuirostris) की तेजी से गिरी आबादी के चलते इन्हें IUCN रेड लिस्ट में "गंभीर रूप से लुप्तप्राय" के तौर पर सूचीबद्ध किया गया। वर्ष 2022 में राज्यसभा में दिए गए एक जवाब में बताया गया कि गिद्ध की इन प्रजातियों की संख्या 100 से भी कम है।

उत्तराखंड वन विभाग और डब्ल्यूडब्ल्यूएफ इंडिया की रेडहेडेड वल्चर पर भी सेटेलाइट टैग लगाने की योजना है। फोटो: अरेंज्ड

डब्ल्यूडब्ल्यूएफ इंडिया के रैप्टर कंजर्वेशन प्रोग्राम के कोऑर्डिनेटर और जीवविज्ञानी रोहन एन श्रींगारपुरे कहते हैं “राष्ट्रीय स्तर पर देखें तो गिद्धों की आबादी स्थिर है। सफेद दुम वाले गिद्ध की आबादी में थोड़ी बढ़त भी है। मध्य प्रदेश में आबादी बढ़ी है। गुजरात में ये स्थिर है। उत्तराखंड के लिए आधार आंकड़े उपलब्ध नहीं हैं, इसलिए यहां आबादी कितनी कम हुई है ये बताना मुश्किल है”।

1980 तक गिद्धों की आबादी लगभग 4 करोड़ थी जो 2007 तक एक लाख से भी कम रह गई। 2022 में एक निश्चित सड़क मार्ग पर उड़ने वाले (road transact sample survey) सैंपल सर्वे के मुताबिक सफेद दुम वाले गिद्ध 106, भारतीय गिद्ध 299, और पतली चोंच वाले गिद्धों की कुल संख्या 11 पाई गई। जबकि 2015 में यह क्रमश: 102, 139 और 12 थी। यह सर्वेक्षण बताता है कि इन शिकारी पक्षियों की संख्या में अब भी सुधार नहीं है। इन्हें कुछ हद तक स्थिर कहा जा सकता है।

इस वर्ष जनवरी के पहले हफ्ते में बर्ड कंजर्वेशन इंटरनेशनल पत्रिका में ये रिपोर्ट प्रकाशित हुई है। भारत में उत्तराखंड समेत 13 राज्यों में 1992 से 2022 तक 30 वर्षों में ऐसे 7 सर्वेक्षण किये गए हैं। पक्षियों के उड़ने के स्थल और तरीके को एक समान रखा गया।

सर्वेक्षण ये भी खुलासा करता है कि पशु चिकित्सा में इस्तेमाल की जाने वाली प्रतिबंधित दवा डायक्लोफेनेक की उपलब्धता कुछ राज्यों में कम हुई है लेकिन कई राज्यों में यह अब भी आसानी से उपलब्ध है और इस्तेमाल में है।

डब्ल्यूडब्ल्यूएफ इंडिया के रैप्टर कंजर्वेशन प्रोग्राम के कोऑर्डिनेटर और जीवविज्ञानी रोहन एन श्रींगारपुरे कहते हैं “सेटेलाइट डाटा इनके संरक्षण की योजना बनाने में मददगार होगा। इनके प्रजनन स्थल की जानकारी और उसके आसपास सुरक्षा को लेकर मौजूदा खतरे का आकलन कर सकेंगे। उत्तराखंड में कार्बेट टाइगर रिजर्व, राजाजी टाइगर रिजर्व और आसन संरक्षण रिजर्व हमारे टारगेट क्षेत्र हैं। इसके अलावा मध्य प्रदेश के पाटन जलाशय, राजस्थान के तालछापर अभ्यारण्य और केवलादेव राष्ट्रीय उद्यान में 15 प्रजातियों की निगरानी कर रहे हैं”।

2022 में किया गया road transaction sample survey बताता है कि अब भी गिद्धों की आबादी में कोई उल्लेखनीय सुधार नहीं हुआ है।

टॉक्सिक दवाओं पर पूरी तरह प्रतिबंध क्यों नहीं

इस सर्वेक्षण और बॉम्बे नेचुरल हिस्ट्री सोसाइटी से लंबे समय तक जुड़े रहे डॉ विभु प्रकाश बताते हैं “90 के दशक में गिद्ध आबादी में गिरावट की वजह पता लगाने में ही 10 साल लग गए। 2003 में पता चला कि इसकी मुख्य वजह डायक्लोफेनेक थी। केंद्र सरकार ने 2006 में इसे प्रतिबंधित किया और 2008 में इसका गजट नोटिफिकेशन आया। गिद्धों का मुख्य भोजन मृत पशुओं का मांस है। पालतू पशुओं के इलाज में बेहद प्रभावी होने की वजह से डायक्लोफेनेक बहुत इस्तेमाल होती थी”।

“पशुओं के इलाज में डायक्लोफेनेक प्रतिबंधित हुई लेकिन मानव इलाज में इसका इस्तेमाल जारी रहा। दवा कंपनियां अपने फायदे के लिए 15-30 मिली. की इसकी डोज बनाती थीं और जानवरों को इसकी अधिक खुराक दी जाती थी। जबकि इंसान के लिए इसकी खुराक सिर्फ 3 मिली. तक होती है। जब हमने भारत सरकार को ये बताया तो 2015 में डायक्लोफेनेक की अधिक मात्रा का उत्पादन बंद कर इसे 3 मिली. तक सीमित किया”, वह आगे कहते हैं।

लेकिन सिर्फ डायक्लोफेनेक ही नहीं एनएसएआईडी श्रृंखला की 14 में से कई अन्य दवाएं भी गिद्ध प्रजातियों के लिए विषाक्त साबित हो रही हैं। वर्ष 2005-06 से इसकी जानकारी होने के बावजूद इनमें से दो दवाएं केटोप्रोफेन (Ketoprofen) और एसेक्लोफेनेक (Aceclofenac) वर्ष 2023 में प्रतिबंधित की गईं। डॉ विभु इस बारे में बताते हैं, “एसेक्लोफेनेक की खुराक पशु को देने के दो घंटे बाद ही ये डायक्लोफेनेक में बदल जाती है और उसकी तुलना में ज्यादा देर तक शरीर में रहती है और ज्यादा घातक है”।

वह कहते हैं कि ये तय करने की प्रक्रिया कठिन है कि ये दवाइयां गिद्धों के लिए विषाक्त हैं। फिर केंद्रीय औषधि मानक नियंत्रण संगठन को इन दवाओं को प्रतिबंधित करने के लिए तैयार करना, इस पर शोध और औषधि तकनीकी सलाहकार बोर्ड के परामर्श के बाद फैसला, ये एक जटिल लंबी प्रक्रिया है।

इसी श्रृंखला की एक अन्य दवा निमेसुलाइड (Nimesulide) अब भी पशु चिकित्सा में इस्तेमाल हो रही है। डॉ विभु कहते हैं “अगर गिद्ध ने ऐसे मृत पशु की खाल को खा लिया जिसमें निमेसुलाइड है तो वह नहीं बचेगा। जब किसी दवा की सुरक्षा जांच होती है तो सिर्फ पालतु पशुओं पर होती है। जंगली जानवरों पर नहीं। हम निमेसुलाइड पर भी प्रतिबंध की मांग कर रहे हैं। एनएसएआईडी श्रंखला की कई अन्य दवा गिद्धों के लिए टॉक्सिक हैं, इनका परीक्षण कर प्रतिबंधित करना जरूरी है, साथ ही सुरक्षित दवाओं को बढावा देना”।

कीटोप्रोफेन और एसेक्लोफेनेक इंटरनेट पर अब भी बिक्री के लिए उपलब्ध हैं। देहरादून स्थित वेटनरी दवाओं के दो थोक विक्रेताओं ने बताया कि इन दवाओं पर प्रतिबंध को लेकर अभी जागरूकता नहीं आई है और इसकी मांग बनी हुई है।

पशु चिकित्सकों की कमी एक बड़ा कारण:

उत्तराखंड वन विभाग और पशुपालन विभाग में बतौर पशु चिकित्सक कार्य कर चुकी डॉ अदिति शर्मा कहती हैं कि प्रतिबंधित दवाओं की बाजार में उपलब्धता जितना बड़ा सवाल है, उतनी ही बड़ी चुनौती गैर-प्रशिक्षित लोगों द्वारा पालतु पशुओं का इलाज है। “ग्रामीण क्षेत्रों में पशु चिकित्सकों की कमी होने पर पशु चिकित्सालयों में काम कर रहे कंपाउंडर यहां तक की सफाई कर्मी भी पशुओं का इलाज करते हैं। पैरावेट्स, जिन्हें प्राथमिक चिकित्सा का प्रशिक्षण दिया जाता है, वे भी पशुओं का पूरा इलाज करते हैं। उन्हें मालूम है कि केटोप्रोफेन और एसेक्लोफेनेक जैसी दवा पशुओं पर जल्द असर करती हैं और बेहद प्रचलित हैं, तो वे इनका जमकर इस्तेमाल करते हैं, कई बार ओवरडोज देते हैं”।

डॉ विभु प्रकाश भी इसकी तस्दीक करते हैं और इसे एक बड़ी चुनौती के तौर पर देखते हैं।

वर्ष 2023 की इस रिपोर्ट के मुताबिक देश में 1.07 लाख पशु चिकित्सकों/संस्थानों की जरूरत है जबकि 65,894 मौजूद हैं यानी 41,000 की कमी है।

उत्तर में हिमालयी पहाड़ियों से लेकर दक्षिण में समुद्र तट तक गिद्ध हर तरह की जलवायु के मुताबिक खुद को ढालने के लिए जाने जाते हैं। डॉ विभु कहते हैं कि संरक्षित वनों के आसपास के इलाके इनके लिए ज्यादा सुरक्षित हैं। क्योंकि यहां उन्हें पालतु पशु के साथ-साथ मृत जंगली जानवरों का मांस भोजन के लिए उपलब्ध है। जिन पर टॉक्सिक दवाओं का इस्तेमाल बमुश्किल होता है।

गिद्ध संरक्षण के लिए दो दशक से चल रहे प्रयासों के बावजूद देश में गिद्धों की आबादी अब भी सुरक्षित नहीं है। जनसंख्या अनिश्चित रूप से छोटी होने की वजह से प्रतिकूल घटनाओं के प्रति संवेदनशीलता बरकरार है। रोहन कहते हैं कि गिद्ध का एक जोड़ा साल में सिर्फ एक अंडा देता है। जिसके बचने की संभावना 40 प्रतिशत तक ही होती है। मौजूदा संकट के बीच प्रजनन की धीमी दर भी इनकी संख्या न बढ़ने की एक मुख्य वजह है।

सेटेलाइट टैगिंग के बाद उडान भरता गिद्ध

गिद्ध पर संकट, हम पर संकट

धरती के सफाईकर्मी माने जानेवाले इन पक्षियों के बिना जानवरों से इंसानों को होने वाली जूनोटिक बीमारियां बढ़ने का खतरा है। कई खतरनाक बैक्टीरिया के लिए पशुओं के शव प्रजनन स्थल का काम करते हैं। डब्ल्यूएचओ की रिपोर्ट के मुताबिक एच1एन1 इनफ्लूएंजा, एवियन इनफ्लूएंजा, कोरोना वायरस और रेबीज जैसी बीमारियों का खतरा बढ़ा है। आकलन है कि हर साल जूनोटिक बीमारियों के लगभग एक अरब मामले सामने आते हैं और लाखों मौतें होती हैं। हाल के समय की संक्रामक बीमारियों में से करीब 60% जूनोटिक हैं।

डॉ विभु प्रकाश कहते हैं कि कुत्ते समेत अन्य मांसाहारी जानवरों के लिए मृत पशु तक पहुंचने में दूरी एक बाधा है, जबकि गिद्ध मृत मवेशी की तलाश में 100-200 किमी दूर तक उड़ लेता है। अपनी तेज नजर से जल्द मृत पशु की शिनाख्त कर, एक बार में अपने वजन का 40-50% तक भोजन खा सकता है। इन्हें बचाने के लिए हमें ‘वन हेल्थ अप्रोच’ अपनाने की जरूरत है। वन विभाग, स्वास्थ्य विभाग, पशुपालन विभाग समेत सभी को मिलकर काम करना होगा”।

उत्तराखंड वन विभाग और जीवविज्ञानी रोहन एन श्रींगारपुरे उम्मीद कर रहे हैं कि सेटेलाइट टैग किए गए गिद्ध अप्रैल-मई तक एक प्रजनन चक्र पूरा होने पर कुछ नई जानकारी देंगे। गिद्ध की इन प्रजातियों के संरक्षण के लिए ये डाटा काफी अहम होगा।