नई दिल्ली: पिछले छह वर्षों से 2017 तक, भारत के दूसरे सबसे बड़े पशु-व्यापार वाले राज्य राजस्थान के एक प्रमुख पशु मेले में गाय के व्यापार में 95 फीसदी तक की गिरावट आई है। यह भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) के कार्यकाल के दौरान, गाय पालन ( एक लोकप्रिय आजीविका का विकल्प ) में गिरावट का संकेत है।

2011 में, राजस्थान के पश्चिमी जिले बाड़मेर के तिलवाड़ा में आयोजित राज्य के सबसे बड़े पशु मेले में, 1.35 करोड़ रुपये में 7,430 गायों की खरीद-बिक्री हुई थी। इंडियास्पेंड को उपलब्ध आधिकारिक रिकॉर्ड के मुताबिक, 2017 तक मेले में गायों की संख्या घटकर 342 रह गई और राजस्व घटकर 7.3 लाख रुपये तक हो गया है।

2018 में राज्य में पशु मेलों में, 2,000 में से केवल 500 पशुओं को बेचा जा सका। मात्र 25 फीसदी व्यापार, जैसा कि जनवरी 2019 में ‘डाउन टू अर्थ’ की रिपोर्ट में बताया है।

इसके अलावा, गाय की रक्षा के लिए भाजपा के कई आधिकारिक मिशनों के बावजूद, विशेष रूप से लुप्त हो रही देशी नस्लों में से राजस्थान की दुर्लभ रेगिस्तानी किस्म- थारपारकर, भाजपा के शासन के पांच वर्षों में विलुप्त होने के करीब है, जैसा कि 2017 में चालू मवेशी सर्वेक्षण से पता चलता है। औद्योगिक गतिविधि की अनुपस्थित में, रेगिस्तानी जिलों में, पशु पालन पारंपरिक रूप से हिंदुओं और मुसलमानों के लिए एक जीवन रेखा है।

लेकिन जयपुर, जोधपुर और बाड़मेर के ग्रामीण इलाकों में हमारी जांच से पता चला है कि दक्षिणपंथी विचारधारा से जुड़े लोगों द्वारा गाय सतर्कता अभियान और गोहत्या या तस्करी के संदेह पर लोगों पर हमला करने की घटनाओं से ग्रामीण गाय से जुड़े व्यवसायों से लगातार दूर हो रहे हैं।

बाड़मेर के दरसार गांव के मोहम्मद ईशा खान बताते हैं, "दो सीमावर्ती जिलों के मुस्लिम समुदाय के लगभग 95 फीसदी ग्रामीणों ने हिंदुत्व ब्रिगेड की धमकियों के कारण गाय का व्यवसाय छोड़ दिया है।"

बाड़मेर के दारसर गांव के मोहम्मद ईशा खान बताते हैं कि राजस्थान के बाड़मेर जिले के मुस्लिम समुदाय के लगभग 95फीसदी ग्रामीणों ने हिंदुत्व ब्रिगेड की धमकियों के कारण गाय से जुड़ा कारोबार छोड़ दिया है ।

लगभग 6 लीटर दैनिक दूध के उत्पादन के साथ, गाय ने भारत के प्राथमिक दूध प्रदाता के रूप में अपनी जगह खो दी है। अब भैंस ने यह जगह ले ली है, जो लगभग 12 लीटर दूर का उत्पादन करती है। लेकिन इसके बाजार मूल्य को तब और झटका लगा जब केंद्र और राज्यों में भाजपा सरकारों द्वारा गंभीर गौ संरक्षण कानून लाए गए और सतर्कता अभियान के तहत हमले लगातार होते गए।

मई 2014 और मार्च 2018 के बीच, केंद्रीय गृह मंत्रालय के अनुसार, नौ राज्यों में गाय से संबंधित हिंसा में 45 लोग मारे गए थे। राजस्थान में इसी अवधि में सात ऐसी घटनाएं हुईं।

इस तरह की हिंसा पर अंग्रेजी मीडिया रिपोर्टों को ट्रैक रखने वाले फैक्टचैकर डेटाबेस के अनुसार, 22 राज्यों में 2010 से लेकर अब तक 127 गौ-संबंधित हमले हुए हैं। इनमें से 98 फीसदी से अधिक हमले 2014 में मई के बाद हुए हैं, यानी जब से केंद्र में भाजपा की सरकार आई। राजस्थान में 10 ऐसे हमले हुए हैं, जैसा कि डेटाबेस से पता चलता है और सभी 2014 के बाद हुए हैं।

जो किसान अब गोजातीय व्यापार के लिए बूढ़ी गायों को नहीं बेच सकते हैं, उन्हें या तो उन्हें खिलाने की लागत वहन करनी होती है या फिर वे उन्हें ऐसे ही खुले में छोड़ देते हैं। ये आवारा मवेशी खेतों में फसलों को नष्ट करते हैं। यह विशेष रूप से भारत के हृदय क्षेत्र में स्थित राज्यों ( मध्य प्रदेश, उत्तर प्रदेश और राजस्थान ) का मामला है जहां गौ रक्षा नियमों को लागू करने से अक्सर हिंसा होती है।

राजस्थान के अतिरिक्त मुख्य सचिव (पशुपालन) पवन कुमार गोयल कहते हैं, "आवारा पशु हाल के वर्षों में एक प्रमुख समस्या बनकर उभरे हैं। 2,727 पंजीकृत गोशालाएं हैं, जो आर्थिक रूप से सबल नहीं हैं। वे किसी भी बूढ़ी और दुर्बल गाय या बछड़े को स्वीकार नहीं कर रहे हैं। ये सड़कों और खेतों में घूम रहे हैं, फसलों को नुकसान पहुंचा रहे हैं। ”

पिछले तीन वर्षों से 2018 तक, भारतीय रेल की पटरियों पर मरने वाली गायों की संख्या 112 फीसदी बढ़ गई है, जैसा कि ‘द इंडियन एक्सप्रेस’ ने अगस्त 2018 की रिपोर्ट में बताया है।

2015-16 में पूरे भारत में 2,183 मामले सामने आए, लेकिन 2017-18 में यह संख्या बढ़कर 10,105 हो गई, यानी 362 फीसदी की वृद्धि। इनमें से ज्यादातर मौतें हिंदी राज्य क्षेत्र में हैं, जैसा कि रिपोर्ट में कहा गया है, जहां भाजपा के सत्ता संभालने के बाद से गौ रक्षा एक गंभीर मुद्दा है।

फरवरी 2019 में, कथित तौर पर लगभग 500 गायों की जयपुर के पास हिंगोनिया गौशाला में भूख से मौत हो गई। 23 जनवरी, 2019 को, राजस्थान के मुख्यमंत्री अशोक गहलोत ने आरोप लगाया कि 2013 से 2018 तक पांच वर्षों में 70,000 से अधिक गायों की मृत्यु हुई है।

राजस्थान के गोपालन (गाय कल्याण) मंत्री प्रमोद जैन भाया ने स्वीकार किया कि कांग्रेस सरकार के पास विरासत में कई समस्याएं आईं,“2 मार्च, 2019 को, राज्य सरकार ने जयपुर में गौशाला मालिकों के साथ एक सम्मेलन बुलाया था। उनके सुझावों के आधार पर, हम एक नीति बनाएंगे।" राजस्थान गाय कल्याण के लिए एक मंत्रालय स्थापित करने वाला पहला राज्य था, जो अब एक प्रशासनिक विभाग बन गया है।

हम उन्हें गाय-व्यापार से जुड़ा देखना नहीं चाहते!”

गाय से जुड़ी गतिविधियों ने इन क्षेत्रों की सामाजिक-आर्थिक रूपरेखा को बदल दिया है। अन्य आजीविका विकल्पों के लिए मुसलमानों ने गाय के व्यवसाय को छोड़ दिया है।

जालोर जिले के सांचोर में, पिछले दो वर्षों में गाय से संबंधित हिंसा की तीन घटनाएं हुई हैं। दक्षिणपंथी समूह बजरंग दल की स्थानीय इकाइयां स्थानीय मुसलमानों को किसी भी तरह के मवेशियों के व्यवसाय में वापस नहीं जाने देने के लिए दृढ़ हैं।

सांचौर में बजरंग दल इकाई के संत सर्वानंद ने कहा, "वे गोमांस खाने वाले नहीं हो सकते, लेकिन उनमें से कुछ गाय तस्कर हैं। हमने सीमावर्ती जिलों में प्रत्येक पर नज़र रखने के लिए लगभग 15 स्वयंसेवकों की इकाइयां स्थापित की हैं। हम उन्हें (मुसलमानों को) गाय के कारोबार से जुड़ने की अनुमति नहीं देंगे।”

दलेसर गांव के एक किसान मुल्लाकत अली ने कहा, “ गाय-बैल की बिक्री / खरीद में कोई पैसा नहीं है। हिंदुत्व गिरोह से बचाने के लिए राज्य की ओर से संरक्षण नहीं है। हमारे पास गाय व्यवसाय को छोड़ने के अलावा कोई विकल्प नहीं है। ”

ग्रामीणों ने शिकायत की कि दल के कार्यकर्ता गाय पालने वाले मुसलमानों को भी नहीं बख्श रहे हैं। संगठन के संरक्षक शौकत अंसारी ने कहा, "जोधपुर-बाड़मेर रोड पर भुजवाड़ गांव में, हमारी संस्था - मारवाड़ मुस्लिम एजुकेशन एंड वेलफेयर सोसाइटी पिछले 10 वर्षों से गौशाला चला रही थी।लेकिन मुझे पिछले महीने व्यवसाय बंद करना पड़ा, क्योंकि बजरंग दल के सैकड़ों कार्यकर्ताओं ने मौत की धमकी देते हुए मोटरसाइकिल पर चक्कर लगाना शुरू कर दिया था।"

बाड़मेर के बांदेसर के हकम खान ने भी ऐसी ही कहानी सुनाई। उन्होंने बताया, "बजरंग दल के स्वयंसेवक हाल के वर्षों में उपद्रव कर रहे हैं, जो पुरुष बैल की बिक्री / खरीद को रोकते हैं। राजस्थान के मुसलमान बीफ खाने वाले नहीं हैं, लेकिन समुदाय को अभी भी निशाना बनाया जा रहा है। हम इन समूहों के गुस्से से बचने के लिए अन्य व्यावसायिक गतिविधियों में चले गए हैं।”

गौ कल्याण के लिए जारी धन का इस्तेमाल नहीं

राजस्थान में, गौ रक्षा पर भाजपा सरकार की बयानबाजी उसके कामों से मेल नहीं खाती है। राज्य की गाय कल्याण मंत्रालय की 2016-17 की इस रिपोर्ट के अनुसार, गाय कल्याण योजनाओं के लिए मंजूर 123.43 करोड़ रुपये की राशि में से 8.84 करोड़ रुपये या आवंटित राशि के 8 फीसदी से ज्यादा खर्च नहीं किया गया था।

विभाग के लिए फंड में उत्तरोत्तर गिरावट आई है। 2014-15 में 100.39 करोड़ रुपये से 2015-16 में 13.75 करोड़ रुपये और 2017-18 में 9.28 करोड़ रुपये।

रिपोर्ट से पता चलता है कि, प्रमुख योजनाएं धराशायी हो गईं हैं। 2014-15 के दौरान, राज्य सरकार ने गोशालाओं के लिए अनुदान के रूप में 91.30 करोड़ रुपये मंजूर किए, लेकिन कुछ भी खर्च नहीं किया गया। अगले वर्ष, 3 लाख रुपये मंजूर किए गए और फिर से अप्रयुक्त छोड़ दिए गए। 2016-17 में थोड़ा सुधार हुआ जब केवल 3 लाख रुपये की आधिकारिक मंजूरी के खिलाफ, 21.63 लाख रुपये खर्च किए गए।

जयपुर स्थित विचार मंच ‘जयपुर स्थित बजट विश्लेषण अनुसंधान केंद्र’ के नेसार अहमद ने कहा, "वर्ष के दौरान, यह संभावना है कि विभाग ने संशोधित बजट में अधिक धनराशि मांगी।"

बीमार गायों के पुनर्वास के लिए एक योजना के तहत 2014-15 में कोई आवंटन नहीं किया गया था। अगले दो वर्षों के लिए, 7.88-करोड़ के बजट के 2.06 करोड़ रुपये खर्च किए गए, यानी स्वीकृत राशि का लगभग एक तिहाई। राजस्थान गो ग्राम सेवा संघ ( 2,000 गौशालाओं का एक गठबंधन ) की ओर से नए गोपालन मंत्री प्रमोद जैन भाया को दिए ज्ञापन में दो प्रमुख मुद्दों को बताए गए:

  • पिछले पांच वर्षों से 2018 तक, राज्य सरकार ने नंदी शैलों (नर बैल के लिए आश्रयों) के विकास के लिए नियमित रूप से 50 लाख रुपये का आश्वासन जारी नहीं किया है। अब तक बकाया राशि 16.50 करोड़ रुपये है;

  • 25 चिन्हित गौशालाओं में बायोगैस प्लांट लगाने की योजना के लिए भुगतान जारी नहीं किया गया है।

पूर्व मुख्यमंत्री वसुंधरा राजे ने बीकानेर और भरतपुर जिलों में एक-एक हजार हेक्टेयर के भूखंड पर दो गाय अभयारण्य स्थापित करने की योजना की घोषणा की थी, लेकिन ऐसा हुआ नहीं। उन्होंने डेयरी व्यवसाय को बेहतर बनाने में मदद करने के लिए बीकानेर को एक ‘चीज हब’ और भीलवाड़ा को एक ‘चॉकलेट हब’ के रूप में विकसित करने का वादा किया था, लेकिन योजनाएं कभी भी पूरी नहीं हुईं।

दिसंबर 2014 में, नरेंद्र मोदी सरकार ने देशी गाय की नस्लों के संरक्षण के लिए 150 करोड़ रुपये की योजना की घोषणा की। यद्यपि ‘थारपारकर’ और अन्य रेगिस्तानी गाय की नस्लों जैसे ‘नागोरी’, ‘राठी’ और ‘गिर’ की संख्या में गिरावट आई है, यह योजना केवल आंशिक रूप से राजस्थान में लागू की गई थी। अपने पहले वर्ष (2014-15) में, केंद्र ने राज्य के लिए 3 करोड़ रुपये आवंटित तो किए, लेकिन कोई धनराशि जारी नहीं की गई।

राजस्थान गो सेवा आयोग, की पूर्व सदस्य पूनम भंडारी ने बाद में कहा कि इन योजनाओं को पर काम नहीं होने से साफ है कि भाजपा केवल गाय को एक राजनीतिक उपकरण के रूप में उपयोग करने में दिलचस्पी रखती है।"

राजस्थान के पूर्व गौ मंत्री ओटाराम देवासी ने कहा, "पिछले साल के विधानसभा चुनावों में जब भाजपा सत्ता से बाहर हुई , तब कई गाय कल्याण योजनाएं बची हुई थीं।" वह 2018 के विधानसभा चुनाव में 10,000 मतों से निर्दलीय हारे थे।

थारपारकर नस्ल की संख्या में गिरावट

यह मजबूत नस्ल पाकिस्तान के सीमावर्ती राजस्थान के थारपारकर जिले के नाम पर है।

यह रेगिस्तान की गर्मी और रोग के प्रतिरोध का सामना करने की अपनी क्षमता के लिए बेशकीमती है। जबकि अन्य देसी नस्लें, जैसे ‘नागोरी’, हर दिन औसतन 5 लीटर दूध देती हैं, ‘थारपारकर’ 8 लीटर का उत्पादन करता है, जैसा कि भुवनेश जैन कहते हैं।

2012 मवेशी जनगणना के अनुसार, बाड़मेर में लगभग 2,301 "विदेशी" गाय की नस्लें और जैसलमेर में 1,637 - ज्यादातर ‘थारपारकर’ थीं। 2017 की जनगणना में इन नंबरों के आगे बढ़ने की संभावना है, राजस्थान सरकार के उच्च पदस्थ सूत्रों ने नाम न छापने की शर्त पर इंडियास्पेंड को बताया।

राजस्थान सरकार के गोपालन विभाग के निदेशक खजान सिंह ने कहा, "थारपारकर जैसी देशी नस्लें विलुप्त होने के करीब हैं।"

थारपारकर की गिरावट के कई कारण हैं। बाड़मेर स्थित स्वैच्छिक संगठन, सोसाइटी फॉर रूरल अपलिफ्टमेंट (SURE) की लता कछवा कहती हैं, “जलवायु परिवर्तन, क्रॉपिंग पैटर्न में परिवर्तन (चारे की कमी के कारण), यंत्रीकृत कृषि तकनीकों की शुरूआत जैसे ट्रैक्टरों के उपयोग और ओरान और गोचर भूमि (सामान्य चराई भूमि) के क्रमिक अतिक्रमण से थारपारकर की संख्या में क्रमिक गिरावट आई है।लेकिन हाल के वर्षों में थारपारकर नस्ल के जीवित रहने के लिए सबसे बड़ी बाधा गाय सतर्कता समूहों से आई है।"

1990 के दशक के अंत के दौरान, पशु मेलों में, दो पुरुष थारपारकर की कीमत 30,000 रु तक थी। जयपुर स्थित एक स्वैच्छिक संगठन और विकास अध्ययन संस्थान में काम करने वाले दलबीर सिंह कहते हैं, "लेकिन इन दिनों कोई लेने वाला नहीं है।"

(झा स्वतंत्र पत्रकार हैं और दिल्ली में रहते हैं।)

यह लेख मूलत: अंग्रेजी में 10 मई 2019 को IndiaSpend.com पर प्रकाशित हुआ है।

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