sdr ( उत्तर प्रदेश के फर्रुखाबाद के कुइया गांव की तस्वीर। एक प्राइमरी स्कूल में आयोजित आंगनवाड़ी के प्री-स्कूल शिक्षा क्लास में 47 वर्षीय आंगनबाड़ी कार्यकर्ता मधुबाला )

नई दिल्ली: 10 साल से 2016 तक, इन्टग्रेटिड चाइल्ड डेवलपमेंट सर्विस-आईसीडीएस (एकीकृत बाल विकास सेवा) कार्यक्रम के तहत पूरक पोषण आहार प्राप्त करने वाली महिलाओं और बच्चों की संख्या में चार गुना वृद्धि के बावजूद, गरीबों का एक बड़ा हिस्सा लाभान्वित नहीं हुआ है। यह जानकारी एक नए अध्ययन में सामने आई है।

अध्ययन में पाया गया है कि, जो महिलाएं अशिक्षित थीं या सबसे गरीब घरों से थीं, उनकी प्रमुख पोषण कार्यक्रम तक पहुंच कम थी। अध्ययन के मुताबकि, जबकि 2006 में सबसे गरीब घरों में आईसीडीएस सेवाओं का सबसे अधिक उपयोग किया गया था, उनका हिस्सा 2016 में दूसरा सबसे कम बन गया, जो यह संकेत देता है कि इसके पीछे के कारणों में खराब डिलीवरी, दूरदराज के क्षेत्रों तक पहुंचने की कठिनाई और जाति जैसे सामाजिक विभाजन शामिल हो सकते हैं।

1975 में शुरू हुई, इस तरह की दुनिया की सबसे बड़ी योजना, आईसीडीएस छह वर्ष से कम उम्र की सभी गर्भवती और स्तनपान कराने वाली माताओं और बच्चों को पोषण और स्वास्थ्य सेवाएं प्रदान करती है। घर ले जाने वाले भोजन खुराक और गर्म, पका हुआ भोजन के अलावा कार्यक्रम स्वास्थ्य और पोषण शिक्षा, स्वास्थ्य जांच, प्रतिरक्षण, और सरकार द्वारा संचालित आंगनवाड़ी (चाइल्डकैअर) केंद्रों पर या घर पर प्री-स्कूल देखभाल सेवाएं भी प्रदान करता है।

“इंडिया इंटेग्रेटेड चाइल्ड डेवल्पमेंट सर्विसेज प्रोग्राम; इक्विटि एंड एक्सटेंट ऑफ कवरेज इम 2006 एंड 2016”, नाम का अध्ययन को वाशिंगटन डीसी स्थित वाशिंगटन विश्वविद्यालय के इंटरनेश्नल फूड पॉलिसी रिसर्च के शोधकर्ताओं द्वारा लिखा गया है और विश्व स्वास्थ्य संगठन के अप्रैल 2019 के बुलेटिन में प्रकाशित किया जाएगा।

2005-06 और 2015-16 में आयोजित राष्ट्रीय परिवार स्वास्थ्य सर्वेक्षण के दो दौर के आंकड़ों का उपयोग करते हुए, शोधकर्ताओं ने आईसीडीएस के विस्तार में इक्विटी और इसकी सेवाओं के उपयोग को निर्धारित करने वाले कारकों की जांच की है।

शोधकर्ताओं ने पाया कि सबसे गरीब और सबसे अमीर दोनों समूहों की तुलना में निम्न से मध्य सामाजिक-आर्थिक ब्रैकेट में भोजन की खुराक, पोषण परामर्श, स्वास्थ्य जांच और बाल-विशिष्ट सेवाएं प्राप्त करने की अधिक संभावना थी। प्राइमरी और सेकेन्ड्री स्कूली शिक्षा प्राप्त महिलाओं की तुलना में बिना स्कूली शिक्षा वाली महिलाओं की आईसीडीएस सेवाएं प्राप्त करने की संभावना कम थी।

आईएफपीआरआई के शोध सहयोगी और अध्ययन के सह-लेखक, कल्याणी रघुनाथन ने एक बयान में कहा है, "भले ही समग्र उपयोग में सुधार हुआ है और ऐतिहासिक रूप से वंचित जातियों और जनजातियों जैसे कई हाशिए के समूहों तक पहुंच गया है, लेकिन देखभाल की निरंतरता में कमी और कम विस्तार के साथ गरीबों को अभी भी पीछे छोड़ दिया गया है।"

शोधकर्ताओं ने इन अंतरालों को विशेष रूप से उत्तर प्रदेश और बिहार के सबसे बड़े राज्यों में स्पष्ट किया, जहां कुपोषण का सबसे अधिक बोझ भी है। हालांकि, दोनों राज्यों ने 2016 में सुधार दिखाया है। लेकिन वे अभी भी राष्ट्रीय औसत से पीछे हैं, जो यह सुझाव देते हैं कि उच्च-गरीबी वाले राज्यों में खराब प्रदर्शन के कारण प्रमुख बहिष्करण हो सकते हैं,जैसा कि शोध-लेखकों ने कहा है।

रघुनाथन ने कहा कि बेहतर प्रदर्शन करने वाले राज्यों में भी, जिलेवार और जाति आधारित इक्विटी अंतराल को बंद करने के प्रयासों के बावजूद दूरस्थ क्षेत्रों तक पहुंचने की चुनौतियों के कारण गरीबों का बहिष्कार हो सकता है।

2016 में भोजन की खुराक प्राप्त करने वाले बच्चों का अनुपात (6-35 महीने)

Source: IFPRI

कवरेज में सुधार लेकिन सबसे गरीब तक अभी भी कम

अध्ययन में, बच्चों को प्रदान किए जाने वाले मासिक पूरक खाद्य पदार्थों की आवृत्ति में आठ प्रतिशत की वृद्धि के साथ, चार प्रमुख क्षेत्रों में 2006 से 2016 तक आईसीडीएस सेवाओं के लाभार्थियों की संख्या में वृद्धि देखी गई है।

  • अनुपूरक भोजन - 9.6 फीसदी से 37.9 फीसदी
  • स्वास्थ्य और पोषण शिक्षा - 3.2 फीसदी से 21 फीसदी
  • स्वास्थ्य जांच - 4.5 फीसदी से 28 फीसदी
  • बाल-विशिष्ट सेवाएं - 10.4 फीसदी से 22 फीसदी

तमिलनाडु, छत्तीसगढ़ और झारखंड को छोड़कर, 2006 में गर्भावस्था और स्तनपान के दौरान खाद्य पूरकता का कवरेज अधिकांश राज्यों में 25 फीसदी से कम था, लेकिन 2016 तक लगभग सभी राज्यों में बढ़ गया। बचपन के दौरान भोजन के पूरक में सबसे बड़ा विस्तार देखा गया, जो झारखंड, मध्य प्रदेश, उत्तरांचल, तमिलनाडु और आंध्र प्रदेश में 50 फीसदी से अधिक कवरेज पर पहुंच गया है।

सबसे गरीब समूह के लिए सेवाओं के कवरेज में सुधार हुआ है - खाद्य पूरक के लिए 11.7 फीसदी से 34.8 फीसदी तक; पोषण परामर्श के लिए 3.4 फीसदी से 14.8 फीसदी; स्वास्थ्य जांच के लिए 5.1 फीसदी से 21.5 फीसदी; और 2006 से 2016 के बीच बाल-विशिष्ट सेवाओं के लिए 11.3 फीसदी से 20.4 फीसदी।

हालांकि, सबसे अमीर क्विंटाइल को छोड़कर ( शीर्ष 20 फीसदी धन समूह ) सबसे गरीब क्विंटाइल की 2016 में चार सेवाओं के कवरेज में सबसे कम हिस्सेदारी थी। 2006 में, सबसे गरीब समूह ने सबसे अधिक हिस्सेदारी की सूचना दी थी।

आईएफपीआरआई की वरिष्ठ शोध फेलो और अध्ययन की सह-लेखिका पूर्णिमा मेनन ने कहा, "उच्चतम क्विंटल से संबंधित लोग आईसीडीएस को गरीबों के लिए एक योजना के रूप में देख सकते हैं, यही वजह है कि वे सेवा से बाहर हो सकते हैं। यह इस तथ्य की ओर भी इशारा कर सकता है कि सेवाओं की गुणवत्ता वह नहीं होगी जिसकी वे अपेक्षा करते हैं।"

मध्‍यम आय वर्ग की तुलना में गरीब समूहों के पास कम कवरेज है।

Source:2019 IFPRI study

शोध-लेखकों ने उल्लेख किया कि प्रोग्राम की शर्तों का अनुपालन करने में कठिनाइयों के कारण सबसे गरीबों का बहिष्कार हो सकता है।लेकिन सबसे विश्वसनीय लगने वाली व्याख्या उत्तर प्रदेश और बिहार में खराब सेवा वितरण है।

मेमन ने कहा कि, दोनों राज्य, भारतीय आबादी के सबसे गरीब क्विंटाइल के लगभग आधे हिस्से (20 फीसदी) का घर है और सेवाओं की सबसे कम कवरेज भी है, जो सबसे खराब क्विंटाइल के अपवर्जन को जोड़ती है।

उन्होंने कहा, "उत्तर प्रदेश और बिहार में उच्च प्रजनन क्षमता और उच्च जनसंख्या है, इसलिए संभावना है कि उन्हें सभी सेवाओं की पूर्ण पैमाने पर डिलीवरी सुनिश्चित करने के लिए अधिक आईसीडीएस केंद्रों और अधिक धन की आवश्यकता है।"

उत्तर प्रदेश और बिहार राष्ट्रीय औसत के पीछे

Source: 2019 IFPRI study

जब शोधकर्ताओं ने सेवाओं तक पहुंचने में विभिन्न जाति समूहों के बीच मतभेदों का विश्लेषण किया, तो उन्होंने पाया कि 2006 में अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति की अन्य समूहों की तरह पूरक पोषण प्राप्त करने की संभावना से दोगुनी थी, लेकिन 2016 में अंतर छोटे थे।

शोध-लेखकों ने कहा है कि सभी जातियों, अनुसूचित जातियों और अनुसूचित जनजातियों ने आईसीडीएस सेवाओं का सबसे अधिक उपयोग किया है। ओडिशा और छत्तीसगढ़ में, बड़ी जनजातीय आबादी के साथ, सिस्टम को मजबूत करने के प्रयासों ने काम किया है, जैसा कि महाराष्ट्र में राज्य स्वास्थ्य मिशन के हिस्से के रूप में आदिवासी क्षेत्रों पर ध्यान केंद्रित करने के प्रयास हैं।

इंडियास्पेंड ने फरवरी 2018 में बताया कि अनुसूचित जनजाति सबसे कम संपत्ति वाले ब्रैकेट में 45.9 फीसदी के साथ भारत के सबसे गरीब हैं।

बिना स्कूली शिक्षा वाली माताओं को कम आईसीडीएस सेवाएं मिलीं

केवल 34.7 फीसदी अशिक्षित माताओं ने भोजन की खुराक प्राप्त की, वहीं प्राइमरी शिक्षा वाले 43.7 फीसदी और सेकेंड्री शिक्षा वाले 43.8 फीसदी माताओं ने यह प्राप्त किया है। यह प्रवृत्ति सेवाओं में दिखाई दे रही थी, हालांकि उच्चतम शिक्षा प्राप्त श्रेणी वाले लोगों की भी कम पहुंच थी।

मेमन ने कहा कि, “बिना शिक्षा प्राप्त महिलाएं सबसे गरीब क्विंटाइल के साथ टकराती हैं, जो मुख्य रूप से यूपी और बिहार में है, जो उनके खराब उपयोग की व्याख्या कर सकता है, लेकिन हम अभी तक इसका विश्लेषण नहीं कर सकते हैं।” उन्होंने आगे कहा कि आगे के विश्लेषण में बहुत कुछ पता लगाया जाना है।

आईसीडीएस द्वारा कवरेज में बिना स्कूली शिक्षा वाली कम महिलाएं

Source: 2019 IFPRI study

आईसीडीएस: धीमी शुरुआत से सार्वभौमिक कवरेज तक

2000 के दशक की शुरुआत में आईसीडीएस सेवाएं अपूर्ण थीं। 2005 की विश्व बैंक की एक रिपोर्ट में कहा गया था कि चूंकि 0-3 वर्ष के महत्वपूर्ण विकास आयु वर्ग के बच्चों पर पर्याप्त ध्यान नहीं दिया जा रहा है, जिससे कार्यक्रम का प्रभाव कम होता है। इसके अलावा, जमीनी स्तर के कर्मचारियों के पास पर्याप्त प्रशिक्षण का अभाव था, राजनीतिक प्रतिबद्धता गायब थी, और कार्यक्रम सबसे गरीब घरों और निचली जातियों तक पहुंचने में विफल रहा।

एक अन्य 2006 के अध्ययन में 0-2 वर्ष की आयु के केवल 6 फीसदी लड़कियों और 3-5 वर्ष की आयु के 14 फीसदी को पूरक पोषण प्राप्त हुआ था, और यह तब था, जब 90 फीसदी गांवों में आईसीडीएस केंद्र थे। इससे 2006 से 2009 के बीच सुधार हुए- अधिकार आधारित ढांचे में अधिक धन और पूरक पोषण के प्रावधान पर ध्यान दिया गया।

2006 में, भारत के सर्वोच्च न्यायालय ने रेखित किया कि कार्यक्रम को सार्वभौमिक रूप से पेश किया जाना था। इसके तुरंत बाद, सरकार ने पूरे देश में लगभग 14 लाख केंद्रों को सुनिश्चित करने के लक्ष्य के साथ भारत भर में अपनी सेवाओं का विस्तार किया। आज, आईसीडीएस 6 वर्ष से कम उम्र के लगभग 8.2 करोड़ बच्चों और 1.9 करोड़ से अधिक गर्भवती महिलाओं और स्तनपान कराने वाली माताओं की सेवा करता है।

क्यों आईसीडीएस योजना को अधिक ध्यान और समर्थन की आवश्यकता है?

पिछले अध्ययनों से पता चला है कि सेवाओं के अधिक कवरेज और उपयोग से स्वास्थ्य में सुधार होता है। उदाहरण के लिए, 2015 के इस अध्ययन से पता चला है कि जिन लड़कियों को पूरक पोषण प्राप्त हुआ, वे अपने साथियों की तुलना में लंबे हो गए।

हालांकि, हाल के वर्षों में आईसीडीएस के लिए धन में कमी आई है और चूंकि यह एक मांग-आधारित योजना है, इसलिए इसमें से अधिकांश को लाभार्थियों की कम मांग पर दोषी ठहराया जाता है।

हालांकि वर्तमान अध्ययन सेवा-पहुंच में समग्र सुधार दिखाता है, लेकिन एक छोटे समय-सीमा के साथ 6 महीने से 6 साल के बच्चों की संख्या एक और कहानी दर्शाती है- 2014 से 2019 तक पूरक पोषण प्राप्त करने वालों की संख्या 17 फीसदी तक गिर गई, 8.49 करोड़ से 7.05 करोड़ तक, और गर्भवती और स्तनपान कराने वाली माताओं में 13 फीसदी की कमी, यानी 1.95 करोड़ से 1.69 करोड़ तक, जैसा कि ‘सेंटर फॉर पॉलिसी रिसर्च के अकाउन्टबिलिटी इनिशटिव’ द्वारा 2019 बजट ब्रीफ से पता चलता है।

देश भर में लाभार्थियों की संख्या में गिरावट आई, लेकिन बिहार (53 फीसदी) और उत्तर प्रदेश (25 फीसदी) जैसे गरीब राज्यों में यह अधिक था। महिला और बाल विकास मंत्रालय के लिए समग्र बजट में आंगनवाड़ी सेवाओं का हिस्सा 2014-15 में 89 फीसदी से गिरकर 2019-20 में 68 फीसदी हो गया है।

‘अकाउन्टबिलिटी इनिशटिव’ की डायरेक्टर अवनी कपूर कहती हैं, "हालांकि पर्याप्त धन निश्चित रूप से एक मुद्दा है, आईएफपीआरआई अध्ययन इस तथ्य को इंगित करता है कि आईसीडीएस सेवाएं सबसे खराब क्विंटाइल तक नहीं पहुंच रही हैं और इसका मतलब है कि गरीब सेवाओं के बारे में नहीं जानते हैं या अंतराल या सामाजिक मानदंडों का उपयोग करने के कारण उन्हें इसका लाभ उठाना सुविधाजनक नहीं लगता। “

उन्होंने कहा, "इसका मतलब है कि अधिक घरेलू यात्राओं, व्यवहार-परिवर्तन संचार, सीडीपीओ [बाल विकास परियोजना अधिकारियों], महिला पर्यवेक्षकों और आंगनवाड़ी कार्यकर्ताओं के प्रशिक्षण की रिक्तियों को भरने की आवश्यकता है।"

अक्टूबर 2018 से फ्रंटलाइन आंगनवाड़ी कार्यकर्ताओं की मजदूरी 3,000 रुपये से बढ़ाकर 4,500 रुपये प्रति माह कर दी गई, जिस पर कपूर का कहना है कि यह एक अच्छा कदम है। इससे महिला सुपरवाइजरों को दूर-दराज के इलाके में जाने के लिए परिवहन सुविधा प्रदान करने मदद मिल सकती है।

( यदवार प्रमुख संवाददाता हैं और इंडियास्पेंड के साथ जुड़ी हैं। ) यह लेख मूलत: अंग्रेजी में 13 मार्च, 2019 को indiaspend.com पर प्रकाशित हुआ है।

हम फीडबैक का स्वागत करते हैं। हमसे respond@indiaspend.org पर संपर्क किया जा सकता है। हम भाषा और व्याकरण के लिए प्रतिक्रियाओं को संपादित करने का अधिकार रखते हैं।

"क्या आपको यह लेख पसंद आया ?" Indiaspend.com एक गैर लाभकारी संस्था है, और हम अपने इस जनहित पत्रकारिता प्रयासों की सफलता के लिए आप जैसे पाठकों पर निर्भर करते हैं। कृपया अपना
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sdr ( उत्तर प्रदेश के फर्रुखाबाद के कुइया गांव की तस्वीर। एक प्राइमरी स्कूल में आयोजित आंगनवाड़ी के प्री-स्कूल शिक्षा क्लास में 47 वर्षीय आंगनबाड़ी कार्यकर्ता मधुबाला )

नई दिल्ली: 10 साल से 2016 तक, इन्टग्रेटिड चाइल्ड डेवलपमेंट सर्विस-आईसीडीएस (एकीकृत बाल विकास सेवा) कार्यक्रम के तहत पूरक पोषण आहार प्राप्त करने वाली महिलाओं और बच्चों की संख्या में चार गुना वृद्धि के बावजूद, गरीबों का एक बड़ा हिस्सा लाभान्वित नहीं हुआ है। यह जानकारी एक नए अध्ययन में सामने आई है।

अध्ययन में पाया गया है कि, जो महिलाएं अशिक्षित थीं या सबसे गरीब घरों से थीं, उनकी प्रमुख पोषण कार्यक्रम तक पहुंच कम थी। अध्ययन के मुताबकि, जबकि 2006 में सबसे गरीब घरों में आईसीडीएस सेवाओं का सबसे अधिक उपयोग किया गया था, उनका हिस्सा 2016 में दूसरा सबसे कम बन गया, जो यह संकेत देता है कि इसके पीछे के कारणों में खराब डिलीवरी, दूरदराज के क्षेत्रों तक पहुंचने की कठिनाई और जाति जैसे सामाजिक विभाजन शामिल हो सकते हैं।

1975 में शुरू हुई, इस तरह की दुनिया की सबसे बड़ी योजना, आईसीडीएस छह वर्ष से कम उम्र की सभी गर्भवती और स्तनपान कराने वाली माताओं और बच्चों को पोषण और स्वास्थ्य सेवाएं प्रदान करती है। घर ले जाने वाले भोजन खुराक और गर्म, पका हुआ भोजन के अलावा कार्यक्रम स्वास्थ्य और पोषण शिक्षा, स्वास्थ्य जांच, प्रतिरक्षण, और सरकार द्वारा संचालित आंगनवाड़ी (चाइल्डकैअर) केंद्रों पर या घर पर प्री-स्कूल देखभाल सेवाएं भी प्रदान करता है।

“इंडिया इंटेग्रेटेड चाइल्ड डेवल्पमेंट सर्विसेज प्रोग्राम; इक्विटि एंड एक्सटेंट ऑफ कवरेज इम 2006 एंड 2016”, नाम का अध्ययन को वाशिंगटन डीसी स्थित वाशिंगटन विश्वविद्यालय के इंटरनेश्नल फूड पॉलिसी रिसर्च के शोधकर्ताओं द्वारा लिखा गया है और विश्व स्वास्थ्य संगठन के अप्रैल 2019 के बुलेटिन में प्रकाशित किया जाएगा।

2005-06 और 2015-16 में आयोजित राष्ट्रीय परिवार स्वास्थ्य सर्वेक्षण के दो दौर के आंकड़ों का उपयोग करते हुए, शोधकर्ताओं ने आईसीडीएस के विस्तार में इक्विटी और इसकी सेवाओं के उपयोग को निर्धारित करने वाले कारकों की जांच की है।

शोधकर्ताओं ने पाया कि सबसे गरीब और सबसे अमीर दोनों समूहों की तुलना में निम्न से मध्य सामाजिक-आर्थिक ब्रैकेट में भोजन की खुराक, पोषण परामर्श, स्वास्थ्य जांच और बाल-विशिष्ट सेवाएं प्राप्त करने की अधिक संभावना थी। प्राइमरी और सेकेन्ड्री स्कूली शिक्षा प्राप्त महिलाओं की तुलना में बिना स्कूली शिक्षा वाली महिलाओं की आईसीडीएस सेवाएं प्राप्त करने की संभावना कम थी।

आईएफपीआरआई के शोध सहयोगी और अध्ययन के सह-लेखक, कल्याणी रघुनाथन ने एक बयान में कहा है, "भले ही समग्र उपयोग में सुधार हुआ है और ऐतिहासिक रूप से वंचित जातियों और जनजातियों जैसे कई हाशिए के समूहों तक पहुंच गया है, लेकिन देखभाल की निरंतरता में कमी और कम विस्तार के साथ गरीबों को अभी भी पीछे छोड़ दिया गया है।"

शोधकर्ताओं ने इन अंतरालों को विशेष रूप से उत्तर प्रदेश और बिहार के सबसे बड़े राज्यों में स्पष्ट किया, जहां कुपोषण का सबसे अधिक बोझ भी है। हालांकि, दोनों राज्यों ने 2016 में सुधार दिखाया है। लेकिन वे अभी भी राष्ट्रीय औसत से पीछे हैं, जो यह सुझाव देते हैं कि उच्च-गरीबी वाले राज्यों में खराब प्रदर्शन के कारण प्रमुख बहिष्करण हो सकते हैं,जैसा कि शोध-लेखकों ने कहा है।

रघुनाथन ने कहा कि बेहतर प्रदर्शन करने वाले राज्यों में भी, जिलेवार और जाति आधारित इक्विटी अंतराल को बंद करने के प्रयासों के बावजूद दूरस्थ क्षेत्रों तक पहुंचने की चुनौतियों के कारण गरीबों का बहिष्कार हो सकता है।

2016 में भोजन की खुराक प्राप्त करने वाले बच्चों का अनुपात (6-35 महीने)

Source: IFPRI

कवरेज में सुधार लेकिन सबसे गरीब तक अभी भी कम

अध्ययन में, बच्चों को प्रदान किए जाने वाले मासिक पूरक खाद्य पदार्थों की आवृत्ति में आठ प्रतिशत की वृद्धि के साथ, चार प्रमुख क्षेत्रों में 2006 से 2016 तक आईसीडीएस सेवाओं के लाभार्थियों की संख्या में वृद्धि देखी गई है।

  • अनुपूरक भोजन - 9.6 फीसदी से 37.9 फीसदी
  • स्वास्थ्य और पोषण शिक्षा - 3.2 फीसदी से 21 फीसदी
  • स्वास्थ्य जांच - 4.5 फीसदी से 28 फीसदी
  • बाल-विशिष्ट सेवाएं - 10.4 फीसदी से 22 फीसदी

तमिलनाडु, छत्तीसगढ़ और झारखंड को छोड़कर, 2006 में गर्भावस्था और स्तनपान के दौरान खाद्य पूरकता का कवरेज अधिकांश राज्यों में 25 फीसदी से कम था, लेकिन 2016 तक लगभग सभी राज्यों में बढ़ गया। बचपन के दौरान भोजन के पूरक में सबसे बड़ा विस्तार देखा गया, जो झारखंड, मध्य प्रदेश, उत्तरांचल, तमिलनाडु और आंध्र प्रदेश में 50 फीसदी से अधिक कवरेज पर पहुंच गया है।

सबसे गरीब समूह के लिए सेवाओं के कवरेज में सुधार हुआ है - खाद्य पूरक के लिए 11.7 फीसदी से 34.8 फीसदी तक; पोषण परामर्श के लिए 3.4 फीसदी से 14.8 फीसदी; स्वास्थ्य जांच के लिए 5.1 फीसदी से 21.5 फीसदी; और 2006 से 2016 के बीच बाल-विशिष्ट सेवाओं के लिए 11.3 फीसदी से 20.4 फीसदी।

हालांकि, सबसे अमीर क्विंटाइल को छोड़कर ( शीर्ष 20 फीसदी धन समूह ) सबसे गरीब क्विंटाइल की 2016 में चार सेवाओं के कवरेज में सबसे कम हिस्सेदारी थी। 2006 में, सबसे गरीब समूह ने सबसे अधिक हिस्सेदारी की सूचना दी थी।

आईएफपीआरआई की वरिष्ठ शोध फेलो और अध्ययन की सह-लेखिका पूर्णिमा मेनन ने कहा, "उच्चतम क्विंटल से संबंधित लोग आईसीडीएस को गरीबों के लिए एक योजना के रूप में देख सकते हैं, यही वजह है कि वे सेवा से बाहर हो सकते हैं। यह इस तथ्य की ओर भी इशारा कर सकता है कि सेवाओं की गुणवत्ता वह नहीं होगी जिसकी वे अपेक्षा करते हैं।"

मध्‍यम आय वर्ग की तुलना में गरीब समूहों के पास कम कवरेज है।

Source:2019 IFPRI study

शोध-लेखकों ने उल्लेख किया कि प्रोग्राम की शर्तों का अनुपालन करने में कठिनाइयों के कारण सबसे गरीबों का बहिष्कार हो सकता है।लेकिन सबसे विश्वसनीय लगने वाली व्याख्या उत्तर प्रदेश और बिहार में खराब सेवा वितरण है।

मेमन ने कहा कि, दोनों राज्य, भारतीय आबादी के सबसे गरीब क्विंटाइल के लगभग आधे हिस्से (20 फीसदी) का घर है और सेवाओं की सबसे कम कवरेज भी है, जो सबसे खराब क्विंटाइल के अपवर्जन को जोड़ती है।

उन्होंने कहा, "उत्तर प्रदेश और बिहार में उच्च प्रजनन क्षमता और उच्च जनसंख्या है, इसलिए संभावना है कि उन्हें सभी सेवाओं की पूर्ण पैमाने पर डिलीवरी सुनिश्चित करने के लिए अधिक आईसीडीएस केंद्रों और अधिक धन की आवश्यकता है।"

उत्तर प्रदेश और बिहार राष्ट्रीय औसत के पीछे

Source: 2019 IFPRI study

जब शोधकर्ताओं ने सेवाओं तक पहुंचने में विभिन्न जाति समूहों के बीच मतभेदों का विश्लेषण किया, तो उन्होंने पाया कि 2006 में अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति की अन्य समूहों की तरह पूरक पोषण प्राप्त करने की संभावना से दोगुनी थी, लेकिन 2016 में अंतर छोटे थे।

शोध-लेखकों ने कहा है कि सभी जातियों, अनुसूचित जातियों और अनुसूचित जनजातियों ने आईसीडीएस सेवाओं का सबसे अधिक उपयोग किया है। ओडिशा और छत्तीसगढ़ में, बड़ी जनजातीय आबादी के साथ, सिस्टम को मजबूत करने के प्रयासों ने काम किया है, जैसा कि महाराष्ट्र में राज्य स्वास्थ्य मिशन के हिस्से के रूप में आदिवासी क्षेत्रों पर ध्यान केंद्रित करने के प्रयास हैं।

इंडियास्पेंड ने फरवरी 2018 में बताया कि अनुसूचित जनजाति सबसे कम संपत्ति वाले ब्रैकेट में 45.9 फीसदी के साथ भारत के सबसे गरीब हैं।

बिना स्कूली शिक्षा वाली माताओं को कम आईसीडीएस सेवाएं मिलीं

केवल 34.7 फीसदी अशिक्षित माताओं ने भोजन की खुराक प्राप्त की, वहीं प्राइमरी शिक्षा वाले 43.7 फीसदी और सेकेंड्री शिक्षा वाले 43.8 फीसदी माताओं ने यह प्राप्त किया है। यह प्रवृत्ति सेवाओं में दिखाई दे रही थी, हालांकि उच्चतम शिक्षा प्राप्त श्रेणी वाले लोगों की भी कम पहुंच थी।

मेमन ने कहा कि, “बिना शिक्षा प्राप्त महिलाएं सबसे गरीब क्विंटाइल के साथ टकराती हैं, जो मुख्य रूप से यूपी और बिहार में है, जो उनके खराब उपयोग की व्याख्या कर सकता है, लेकिन हम अभी तक इसका विश्लेषण नहीं कर सकते हैं।” उन्होंने आगे कहा कि आगे के विश्लेषण में बहुत कुछ पता लगाया जाना है।

आईसीडीएस द्वारा कवरेज में बिना स्कूली शिक्षा वाली कम महिलाएं

Source: 2019 IFPRI study

आईसीडीएस: धीमी शुरुआत से सार्वभौमिक कवरेज तक

2000 के दशक की शुरुआत में आईसीडीएस सेवाएं अपूर्ण थीं। 2005 की विश्व बैंक की एक रिपोर्ट में कहा गया था कि चूंकि 0-3 वर्ष के महत्वपूर्ण विकास आयु वर्ग के बच्चों पर पर्याप्त ध्यान नहीं दिया जा रहा है, जिससे कार्यक्रम का प्रभाव कम होता है। इसके अलावा, जमीनी स्तर के कर्मचारियों के पास पर्याप्त प्रशिक्षण का अभाव था, राजनीतिक प्रतिबद्धता गायब थी, और कार्यक्रम सबसे गरीब घरों और निचली जातियों तक पहुंचने में विफल रहा।

एक अन्य 2006 के अध्ययन में 0-2 वर्ष की आयु के केवल 6 फीसदी लड़कियों और 3-5 वर्ष की आयु के 14 फीसदी को पूरक पोषण प्राप्त हुआ था, और यह तब था, जब 90 फीसदी गांवों में आईसीडीएस केंद्र थे। इससे 2006 से 2009 के बीच सुधार हुए- अधिकार आधारित ढांचे में अधिक धन और पूरक पोषण के प्रावधान पर ध्यान दिया गया।

2006 में, भारत के सर्वोच्च न्यायालय ने रेखित किया कि कार्यक्रम को सार्वभौमिक रूप से पेश किया जाना था। इसके तुरंत बाद, सरकार ने पूरे देश में लगभग 14 लाख केंद्रों को सुनिश्चित करने के लक्ष्य के साथ भारत भर में अपनी सेवाओं का विस्तार किया। आज, आईसीडीएस 6 वर्ष से कम उम्र के लगभग 8.2 करोड़ बच्चों और 1.9 करोड़ से अधिक गर्भवती महिलाओं और स्तनपान कराने वाली माताओं की सेवा करता है।

क्यों आईसीडीएस योजना को अधिक ध्यान और समर्थन की आवश्यकता है?

पिछले अध्ययनों से पता चला है कि सेवाओं के अधिक कवरेज और उपयोग से स्वास्थ्य में सुधार होता है। उदाहरण के लिए, 2015 के इस अध्ययन से पता चला है कि जिन लड़कियों को पूरक पोषण प्राप्त हुआ, वे अपने साथियों की तुलना में लंबे हो गए।

हालांकि, हाल के वर्षों में आईसीडीएस के लिए धन में कमी आई है और चूंकि यह एक मांग-आधारित योजना है, इसलिए इसमें से अधिकांश को लाभार्थियों की कम मांग पर दोषी ठहराया जाता है।

हालांकि वर्तमान अध्ययन सेवा-पहुंच में समग्र सुधार दिखाता है, लेकिन एक छोटे समय-सीमा के साथ 6 महीने से 6 साल के बच्चों की संख्या एक और कहानी दर्शाती है- 2014 से 2019 तक पूरक पोषण प्राप्त करने वालों की संख्या 17 फीसदी तक गिर गई, 8.49 करोड़ से 7.05 करोड़ तक, और गर्भवती और स्तनपान कराने वाली माताओं में 13 फीसदी की कमी, यानी 1.95 करोड़ से 1.69 करोड़ तक, जैसा कि ‘सेंटर फॉर पॉलिसी रिसर्च के अकाउन्टबिलिटी इनिशटिव’ द्वारा 2019 बजट ब्रीफ से पता चलता है।

देश भर में लाभार्थियों की संख्या में गिरावट आई, लेकिन बिहार (53 फीसदी) और उत्तर प्रदेश (25 फीसदी) जैसे गरीब राज्यों में यह अधिक था। महिला और बाल विकास मंत्रालय के लिए समग्र बजट में आंगनवाड़ी सेवाओं का हिस्सा 2014-15 में 89 फीसदी से गिरकर 2019-20 में 68 फीसदी हो गया है।

‘अकाउन्टबिलिटी इनिशटिव’ की डायरेक्टर अवनी कपूर कहती हैं, "हालांकि पर्याप्त धन निश्चित रूप से एक मुद्दा है, आईएफपीआरआई अध्ययन इस तथ्य को इंगित करता है कि आईसीडीएस सेवाएं सबसे खराब क्विंटाइल तक नहीं पहुंच रही हैं और इसका मतलब है कि गरीब सेवाओं के बारे में नहीं जानते हैं या अंतराल या सामाजिक मानदंडों का उपयोग करने के कारण उन्हें इसका लाभ उठाना सुविधाजनक नहीं लगता। “

उन्होंने कहा, "इसका मतलब है कि अधिक घरेलू यात्राओं, व्यवहार-परिवर्तन संचार, सीडीपीओ [बाल विकास परियोजना अधिकारियों], महिला पर्यवेक्षकों और आंगनवाड़ी कार्यकर्ताओं के प्रशिक्षण की रिक्तियों को भरने की आवश्यकता है।"

अक्टूबर 2018 से फ्रंटलाइन आंगनवाड़ी कार्यकर्ताओं की मजदूरी 3,000 रुपये से बढ़ाकर 4,500 रुपये प्रति माह कर दी गई, जिस पर कपूर का कहना है कि यह एक अच्छा कदम है। इससे महिला सुपरवाइजरों को दूर-दराज के इलाके में जाने के लिए परिवहन सुविधा प्रदान करने मदद मिल सकती है।

( यदवार प्रमुख संवाददाता हैं और इंडियास्पेंड के साथ जुड़ी हैं। ) यह लेख मूलत: अंग्रेजी में 13 मार्च, 2019 को indiaspend.com पर प्रकाशित हुआ है।

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