ग्राउंड रिपोर्ट: क्यों बंगाल से पलायन करने पर मजबूर हैं लोग?

नौकरियों की कमी, कम मेहनताना, बढ़ती महंगाई के बीच घरों को छोड़ने पर मजबूर पश्चिम बंगाल के मजदूर

Update: 2021-06-16 13:14 GMT

 फोटो: साधिका तिवारी

पश्चिम बंगाल: हाल ही में संपन्न हुए पश्चिम बंगाल विधानसभा चुनाव में प्रवासी मजदूरों का मुद्दा जमकर उछला और लगभग सभी राजनीतिक पार्टियों ने इस मुद्दे पर अपने चुनावी आश्वासन भी दिए। पश्चिम बंगाल में एक बार फिर तृणमूल कांग्रेस की जीत हुई पर ये सरकार राज्य की सबसे बड़ी समस्याओं में से एक, पलायन के लिए कितना काम करने वाली है, ये देखना होगा।

देश भर में उत्तर प्रदेश, बिहार और राजस्थान के बाद पश्चिम बंगाल प्रवासी मजदूरों के मामले में चौथे स्थान पर आता है। रोज़गार की कमी, जलवायु परिवर्तन और सरकारी नीतियों का अभाव इस पलायन के सबसे अहम कारणों में शामिल हैं, जैसा हम विस्तार से आगे बताएँगे।

ये खबर, हमारी पश्चिम बंगाल में पलायन पर सिरीज़ का पहला हिस्सा है, जो राज्य में बढ़ती बेरोज़गारी पर केंद्रित है। इस सिरीज़ की दूसरी खबर में हम आपको बताएँगे कि जलवायु परिवर्तन की राज्य से होने वाले पलायन में क्या भूमिका है और किस तरह से बंगाल में क्लाइमट माइग्रेंट्स या जलवायु परिवर्तन के चलते पलायन करने को मजबूर लोगों की संख्या लगतार बढ़ रही है।

साल 2020 में कोविड19 की वजह से हुए लॉकडाउन की घोषणा के बाद देशभर से जब मजदूरों ने अपने गाँव वापस जाना शुरू किया तो बंगाल में 10 लाख से भी ज़्यादा मज़दूर वापस आए। ये आंकड़ा भी इस लिए सामने आया क्योंकि ममता बनर्जी ने एक भाषण में इसका ज़िक्र किया, असल आँकड़े इससे काफ़ी ज़्यादा हैं। बंगाल से बाहर काम कर रहे यहां के प्रवासी मज़दूरों का आंकड़ा कहीं मौजूद ही नहीं है।

कोविड19 की दूसरी लहर ने देश को पिछले साल से ज़्यादा प्रभावित किया है। हालाँकि इस साल देशव्यापी लॉकडाउन नहीं लगाया गया लेकिन कई राज्यों ने अपने अपने स्तर पर संक्रमण को रोकने के लिए हफ़्तों तक बाजार बंद रखे और आवाजाही पर भी रोक लगायी। संक्रमण के बढे हुए खतरे और अस्थाई लॉकडाउन होने के बावजूद भी पश्चिम बंगाल के कई लोग एक बार फिर से अपने घरों और परिवारों को छोड़कर दुसरे प्रदेशों में जाने के लिए मजबूर हैं। वजह, प्रदेश में व्यवसायों का अभाव।

मई 2020 में दिल्ली से अपने घरों को वापस जाते हुए मज़दूरों के जत्थे में शामिल 10 वर्षीय शिवानी। फोटो: साधिका तिवारी

मार्च और अप्रैल के दौरान इंडियास्पेंड ने राज्य के उत्तर से दक्षिण तक 8 ज़िलों में लोगों से बात की, उनकी बेरोज़गारी के कारणों को जाना और उनके पलायन करने की मजबूरी को समझने की कोशिश की।

"हमारा मन नहीं करता है अपने बच्चों और गाँव छोड़ कर जाने का, पर जाना पड़ रहा है क्योंकि यहाँ कुछ काम नहीं है। यहाँ ज़िंदा भी रहेंगे तो खाएंगे क्या और बच्चों को क्या खिलाएंगे," मालदा रेल्वे स्टेशन पर बैठे प्रवासी मज़दूर अर्जुन मंडल ने बताया जो दिल्ली के लिए जाने वाली गाड़ी का इंतजार कर रहे थे।

मालदा रेल्वे स्टेशन से दिल्ली को जाने वाली गाड़ी फ़रक्का एक्सप्रेस जिसे लोग लेबर ट्रेन भी कहते हैं, का इंतज़ार करते प्रवासी मजदूर। फोटो: साधिका तिवारी

कलकत्ता से, साउथ 24 परगना से, पुरुलिया से, वर्धमान से, बीरभूम से, मालदा से, जलपाईगुड़ी से, दार्जिलिंग से, या तो मज़दूर पलायन कर चुके हैं या करना चाहते हैं। ये लोग बंगाल के अलग-अलग ज़िलों में, हज़ारों किलोमीटर दूर रहते हैं, इनके जीवनयापन के तरीक़े एक दूसरे से बिलकुल अलग हैं। कोई जंगल की उपज पर निर्भर है, कोई मछुआरा है, कोई खेती करता, कोई चाय बागान में काम करता है और कोई निर्माण कार्य करता है।

इनकी परिस्थितियाँ और चुनौतियां दोनों अलग हैं पर इनके लिए जीवनयापन का एक ही रास्ता बचा है, बंगाल से पलायन करना। ये पलायन करने पर क्यों मजबूर हैं इसके कई अलग-अलग कारण हैं पर अब बंगाल में इनके लिए रोज़गार के मौके नहीं है।

बेरोज़गारी और परम्परागत व्यवसायों में घटता लाभ

"मेरे बच्चे यहाँ रहते हैं, पूरा परिवार यहाँ है, बच्चे चाहते हैं कि मैं यहीं रहूँ, पर काम के लिए बाहर जाना पड़ता है," सदानंद सिंह ने बताया जो बैंगलोर में काम करते थे और लॉकडाउन के बाद अपने घर, पुरुलिया वापस आए जहाँ अब इनका पूरा परिवार ईंट के भट्टे पर काम करके हफ़्ते के रुपए 700 कमाता है।

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पलायन करने वाले परिवारों में से लगभग 71% ऐसे हैं जिन्हे अगर अपने गाँवों या शहरों में ज़्यादा दिन का रोज़गार मिल जाता तो वो पलायन के बारे में सोचते भी नहीं, ऐसा 2010-11 में कूचबिहार ज़िले में किए गए एक शोध में सामने आया। जिन लोगों को महात्मा गांधी राष्ट्रीय ग्रामीण रोजगार गारंटी अधिनियम (मनरेगा) में 50 दिन का रोज़गार भी मिला उन्होंने कहा कि यदि उन्हें ये काम नहीं मिलता तो उन्हें पलायन करना पड़ता।

साल 2020 में बंगाल मनरेगा के तहत रोज़गार माँगने वाले परिवारों की संख्या देश में 12,569,939 के साथ पांचवे स्थान पर था। साल 2015 में पश्चिम बंगाल में किए गए एक शोध में भी यही देखा गया कि ग्रामीण रोज़गार की कमी, राज्य से हो रहे पलायन का एक बड़ा कारण है।

'राज्य के बाहर ज़्यादा पैसा, ज़्यादा सम्भावनाएँ'

सबकी समस्या के कारण अलग हैं, पर समस्या एक ही है -- रोज़गार न होना या सही मेहनताना न मिल पाना, और इन सभी के लिए इस समस्या का समाधान भी एक ही है -- गाँव से किसी बड़े शहर जैसे कलकत्ता जा कर काम ढूँढना या राज्य के बाहर दिल्ली, बम्बई, हरियाणा, उत्तराखंड, गुजरात, तमिलनाडु, केरल जा कर काम ढूँढना।

"यहाँ मज़दूरी करने का रुपए 300 मिलता है, दिल्ली में रुपए 500 मिलता है। रुपए 300 में घर कैसे चलेगा," अर्जुन मंडल ने बताया, "मैं दिल्ली, उत्तराखंड, बम्बई, केरल जहाँ काम होता है वहाँ जाता हूँ। वेस्ट बेंगॉल में काम ही नहीं है।"

हालात ये हैं कि ख़तरनाक काम जैसे पहाड़ी इलाक़ों में हाई टेंशन तारों को ठीक करने के लिए कंपनियां बड़ी संख्या में बंगाल के कई इलाक़ों से मज़दूरों को यहाँ भेजती हैं। मालदा ज़िले का भगबानपुर एक ऐसा गाँव है जहाँ के हर दूसरे घर से कोई व्यक्ति उत्तराखंड या हिमाचल प्रदेश में बिजली के तारों पर लाइनमैन का काम करता है।

कई मज़दूर कभी वापस ही नहीं आते, ऐसे कई घर है जहाँ पत्नियां और बच्चे अकेले रहते हैं, कई घर हैं जहाँ अब दूसरी और तीसरी पीढ़ियाँ इसी काम के लिए राज्य से बाहर जा रही हैं। "आज से 25 साल पहले मैं यहाँ से नौकरी के लिए रामपुर (हिमाचल प्रदेश) गया था, इतने साल पहले भी बंगाल में नौकरी नहीं थी और आज भी नहीं है," अकीमुद्दीन, 53, ने बताया।

भगबानपुर गाँव की महिलाएँ जिनके घर के पुरुष काम करने के लिए अन्य किसी राज्य में पलायन कर चुके हैं। फोटो: साधिका तिवारी

"हमारे पति तार के ऊपर काम करते हैं, कभी फ़ोन पर बताते हैं कि उनके साथ काम करने वाला कोई साथी मर गया, कभी किसी को चोट लग गयी, डर लगता है कि कभी फ़ोन न आ जाए कि हमारा पति मर गया है," जमीला बीबी, 30, ने बताया, "पर क्या कर सकते हैं, रोटी के लिए तो करना पड़ता है।"

जिस बात से इस गाँव की महिलाएँ डरती हैं, रेहाना बीबी, 33, के साथ वही हुआ, इसी साल 7 फ़रवरी को उन्होंने अपने पति, अनस शेख़ को रोज़ की तरह सुबह 10:30 बजे फ़ोन किया पर फ़ोन नहीं उठा, सिर्फ़ उसके मरने की खबर आयी। अनस उत्तराखंड के चमोली ज़िले में लाइनमैन का काम करता था और इस इलाक़े में आयी बाढ़ में वो काम के दौरान मर गया।

 नरसीबा, 16, जिसके पिता का निधन 2 महीने पहले हुआ है। इसके पिता उत्तराखंड में लाइनमैन का काम किया करते थे। फोटो: साधिका तिवारी

अनस नौकरी में रुपए 18,000 महीना कमाते थे, लगभग अन्य सभी प्रवासी मज़दूरों की तरह घर पर पैसे भेजते थे, अपने बच्चों के लिए एक बेहतर भविष्य चाहते थे, पर अब, न उनके दो बच्चों के पास उनके पिता हैं और न ही उनके भविष्य के लिए कोई आर्थिक सुरक्षा।

"पापा चाहते थे हम पढ़े, अब पता नहीं क्या होगा," 16 साल की नरसीबा ने आंसू पोंछते हुए कहा।

(साधिका, इंडियास्पेंड के साथ प्रिन्सिपल कॉरेस्पॉंडेंट हैं।)

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