खेती करने के पारंपरिक तरीके की ओर लौटती पश्चिम बंगाल की संथाल जनजाति

चावल की खेती के आधुनिक तरीकों से भूजल के स्तर में गिरावट और समुदाय में फैलने वाली बीमारियों से बचने के लिए पश्चिम बंगाल की यह जनजाति खेती के परंपरागत तरीकों की तरफ फिर से रुख कर रही है।

Update: 2022-01-28 14:45 GMT

पश्चिम बंगाल के बोलपुर में संथाल जनजाति की महिलाएं पारंपरिक तरीके से चावल की खेती करते हुए। 

बोलपुर: रविंद्रनाथ टैगोर, संथाल जनजाति को खेती के साथ संगीत और नृत्य को जोड़ने वाली उनकी अनोखी जीवन शैली के लिए विशेष सम्मान देते थे। पूरे ग्रामीण पश्चिम बंगाल में फैली इस जनजाति के पास अक्सर जमीन के छोटे टुकड़े ही होते हैं। लेकिन इनमें से अधिकांश चावल के खेतों में दिहाड़ी मजदूरों के रूप में काम करते हैं।

पुराने पारंपरिक गीतों में से एक 'हर हर धरती रिमा बहा बागां, बहा बागां रिमा हुनार बाहा' को गाकर संथाली अविश्वसनीय विविधता से भरपूर हरी-भरी धरती का जश्न मनाते हैं। लेकिन खेती के आधुनिक तरीके के व्यापक इस्तेमाल से भूमि की जैव विविधता का अधिकांश हिस्सा नष्ट हो गया है।

बीरभूम जिले में कई संथाल आज भी खाने की तलाश में यहां-वहां काम करते हैं। उन्होंने पाया कि विशेष रूप से चावल के खेत के ईकोसिस्टम और उसके आसपास बिल खोदने वाले जानवरों के साथ-साथ जड़ी-बूटियों के पौधे भी गायब हो रहे हैं। आज बोलपुर में संथाल समय को पीछे ले जाने का प्रयास कर रहे हैं। जो नष्ट हो गया है, कुछ आधुनिक विचारधारा के साथ पारंपरिक ज्ञान पर भरोसा कर उसे फिर से कृषि योग्य बनाने का प्रयास किया जा रहा है।

हरित क्रांति के साथ चावल की खेती के रूप में एक चुनौती भी सामने आई। जिसने भूमिगत जल, रासायनिक उर्वरकों और कीटनाशकों के बेतहाशा इस्तेमाल को बढ़ावा दिया। इसके चलते साल दर साल मिट्टी की जैव-विविधता में गिरावट आती गई। चावल की नई किस्म के छोटे और कमजोर डंठल को छप्पर बनाने या मवेशियों के चारे तक के लिए भी इस्तेमाल नहीं किया जा सकता।

रासायनिक उर्वरकों और कीटनाशकों के इस्तेमाल ने किसानों की सेहत पर सीधा असर डाला। कुछ संथालियों ने दावा किया कि स्थानीय चावल के खेतों से पुआल खाने या पानी पीने के बाद उनके मवेशी बीमार पड़ रहे थे और मर रहे थे।

चावल की खेती में आने वाली मुश्किलों को देखते हुए महिलाओं के एक समूह ने पर्माकल्चर आधारित एक टिकाऊ आर्थिक विकल्प तैयार किया। यह विकल्प खेती-बाड़ी और जंगल की देखभाल के उन तौर-तरीकों की जगह ले सकता है, जिनपर अभी अमल हो रहा है। पर्माकल्चर का मतलब ऐसी खेती का इकोसिस्टम तैयार करना है जो अपने आप में टिकाऊ और आत्मनिर्भर हो। बोलपुर के खंजनपुर गांव के समूह ने एक एकड़ से भी कम जमीन के टुकड़े को पूरी तरह से बदल डाला। यह जमीन बंजर थी जिसकी मिट्टी तक में दरारें पड़ी हुई थी। उस जमीन को उन्होंने हरे-भरे ईकोसिस्टम में तब्दील कर दिया।

उनकी सफलता ने बहुत ग्रामीणों को चावल की स्थानिय किस्मों प्राकृतिक रूप से खेती करने के लिए प्रेरित किया। इससे न केवल भूजल संरक्षित होता है, बल्कि उन्हें और उनकी आने वाली पीढ़ी को रासायनों से दूषित पानी की समस्या से भी छुटकारा मिलेगा और वे ज्यादा उपज हासिल कर पाएंगे।

भूजल का बेतहाशा इस्तेमाल

पश्चिम बंगाल में भूजल की स्थिति पर 2016 की एक रिपोर्ट के अनुसार भारत में कृषि करने का तरीका, भूजल के तेजी से गिरते स्तर के प्रमुख कारणों में से एक है। पानी की अधिकता वाले बोरो चावल की खेती पर की गई एक अन्य रिपोर्ट भी इसी तथ्य की पुष्टि करती है।

गौटिंगन विश्वविद्यालय की पूर्व भू-जीव विज्ञान प्रोफेसर डॉ शर्मिष्ठा दत्त गुप्ता ने इसे समझा और इज़रायली पर्माकल्चर की सहायता से संथाली महिलाओं को पर्माकल्चर तकनीक से जोड़ा।

डॉ शर्मिष्ठा कहती हैं ,"पहले प्रकृति के साथ तालमेल बिठाकर मानसून में धान की बुआई की जाती थी, बारिश के पानी का इस्तेमाल किया जाता था। लेकिन आज भूजल संरक्षण और चावल की हाइब्रिड किस्म लगाने के लिए सरकार भी प्रोत्साहित करती है और यहां तक कि नीति निर्माता भी इसे बढ़ावा देते हैं। चावल की यह किस्म सर्दियों के शुष्क मौसम में भी उगाई जा सकती है। "क्योंकि चावल की खेती में पानी की ज्यादा जरूरत होती है। खेत को पानी से भरने के लिए ग्रामीण 80 मीटर की गहराई तक से पानी खींच लेने वाली ट्यूबवेल का इस्तेमाल करते हैं। इस भूजल के पुनर्भरण (रिचार्ज होने) में कई साल लग जाते हैं।

वह आगे कहती हैं, "गहरा भूमिगत जल लवणों से भरपूर होता है। जब चावल की खेती में इसका इस्तेमाल होता है तो यह तेजी से वाष्पित हो जाता है और मिट्टी को खारा बना देता है और उसे नुकसान पहुंचाता है। मिट्टी की ऊपरी सतह की तपती धूप में ट्रैक्टरों से जुताई करना विनाशकारी है। क्योंकि ये प्रक्रिया मिट्टी में मौजूद सभी बैक्टीरिया, फंगस और केचुओं को मार देती है जो मिट्टी के इकोसिस्टम को बनाए रखने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं। बुनियादी तौर पर हम मिट्टी के इकोसिस्टम को खत्म कर देते हैं और फिर भोजन उगाने के लिए कीटनाशकों और उर्वरकों से उसे ठीक करने का प्रयास करते है।"

पर्माकल्चर पहल 'दुलारिया'

डॉ शर्मिष्ठा ने स्थानीय जीव विज्ञान शिक्षक डॉ अभिनंदा बैरागी और सरस्वती मुर्मू बास्की के साथ मिलकर इस पहल का नेतृत्व किया और कदम्ब जो अपनी शादी के बाद इस समूह से अलग हो गई थी, ने पर्माकल्चर पहल को दुलारिया का नाम दिया। संथाली पौराणिक कथाओं में इसका अर्थ है प्रेम से जन्मा, मौलिक प्रेम जिससे धरती के सभी जीवित प्राणियों की रचना हुई।

साल 2017 में इस पहल की शुरुआत हुई। इसमें समुदाय के लोगों को साथ लेकर एक टीम बनाई जिसमें आसपास के गावों के सभी धर्मों के लोग शामिल हुए। दुनिया के अलग-अलग हिस्सों से विशेष सलाहकार और स्वयंसेवकों ने पारंपरिक खेती के साथ पर्माकल्चर के तरीकों का इस्तेमाल करने में उनकी मदद की।

इस पहल के सह-संस्थापक, इजरायली पर्माकल्चर सलाहकार युवल लेबोविच बताते है, "इससे पहले कि हम जमीन के इस छोटे से टुकड़े पर काम करें, इसकी सूखी कठोर मिट्टी पर बारिश होती और अपने साथ बहुमूल्य मिट्टी की ऊपरी परत को भी बहा ले जाती। बारिश के पानी को रोकने और भूजल को बहाल करने के लिए हमने ढलानों का पता लगाया। नालियां बनाई जिन्हें स्वेल्स कहा जाता है, यहां पानी रिसकर जमीन के अंदर जाता है और जलस्तर को रिचार्ज करता है। स्वेल्स में मिलाए गए कार्बनिक पदार्थ जंगल में बिछी पत्तियों की तरह काम करते हैं और शुष्क मौसम में भी पानी को बनाए रखते हैं।"

तीन साल के अंदर, यह भूमि मिनी फॉरेस्ट इको सिस्टम में तब्दील हो गई और स्थानीय पेड़ पौधे से भर गई। मेंढक, पक्षी, केकड़े, सांप, मछली और केंचुए भी यहां फल-फूल रहे थे। यह समुदाय अब पार्माकल्चर आधारित सिद्धांतों का पालन करता है. जैसे- कम से कम और उथली जुताई करना, ट्रेक्टरों का इस्तेमाल नहीं करना, रासायनिक उर्वरकों और कीटनाशकों का बिलकुल प्रयोग न करना, फलीदार पौधों को उगा कर मिट्टी में नाइट्रोजन बढ़ाना, और कीटों को आकर्षित करने वाली फसलें अलग से उगाना ताकि बाकि के खाद्य पदार्थों बिना किसी बाधा के उगाए जा सके।

इस पहल ने संथाली समुदाय को फिर से पारंपरिक तरीके से कृषि करने और 'गोबिंदभोग' जैसे चावल की देशी किस्मों उगाने के लिए प्रेरित किया। चावल की इस किस्म को मानसून के साथ तालमेल कर उगाया जाता है, जिसमें भूजल की जरूरत नहीं पड़ती। बाजार में इसका भाव ₹150 रुपए प्रति किलो है, जबकि इसकी तुलना में हाइब्रिड चावल ₹30 प्रति किलो बेचा जाता है। चावल की हाइब्रिड किस्म को सालभर उगाया जाता है।

सामुदायिक स्तर पर फैलाव

आर्थिक अवसरों को देखते हुए, अब यह समुदाय खेती के प्राकृतिक तरीकों को अपनाने के लिए उत्सुक हैं। दुलारिया पहल से जुड़े कुछ किसान पहले ही अपने खेत और खेती के तरीकों को बदलने के लिए प्रतिबद्ध है, अन्य ग्रामीण भी लोकेशन पर जाकर प्रोजेक्ट को देखते हैं और टीम से साथ बात करते हैं।

दुलारिया टीम की योजना स्थानीय किसानों के सहयोग से, बीरभूम के 30 संथाली गाँवों की बेकार पड़ी जमीनों को लीज पर लेने और उन्हें प्राकृतिक खेतों में बदलने की है।

डॉक्टर सर्मिष्ठा और दुलारिया टीम किसानों को प्राकृतिक चावल की खेती के फायदे के बारे में बताती हैं और उन्हें कैसे अपनाया जाए इस बारे में समझाती हैं।

एक शैक्षिक और प्रदर्शनकारी पहल के रूप में जो शुरू हुआ, वह अब बोलपुर में प्राकृतिक चावल की खेती में बदलाव कर रहे किसानों के एक बड़े समुदाय को प्रेरित कर रहा है।

बोलपुर के बिष्णुबति गांव की 42 वर्ष संथाली महिला चुरकी सोरेन बताती है, "मैने बंगालियों के खेतों में खेतिहर मजदूर के रूप में काम किया है। वे अपने खेतों में रासायनिक उर्वरक और कीटनाशकों का इस्तेमाल करते हैं। इन खेतों में एक दिन काम करने के बाद अक्सर मेरे चेहरे, हाथों और पैरों पर सूजन आ जाती थी। दूसरों के साथ भी ऐसा होता था।" चुरकी पिछले एक महीने से अस्पताल के बिस्तर पर है और अपनी खराब सेहत से जूझ रही है। चुरकी सोरेन ने हाल ही में अपनी जमीन पर प्राकृतिक तरीके से खेती करने का संकल्प लिया है।

बोलपुर के बंधवाग्राम के 50 वर्षीय स्थानीय किसान मधुसूदन घोष भी अगले दशक तक अपने गांव में चावल की खेती को पूरी तरह से बदलने के लिए प्राकृतिक तरीकों को अपनाने की इच्छा रखते हैं। वह कहते हैं, "प्रकृति स्वयं में असीमित है। लेकिन जिस तरह से हम इसका इस्तेमाल कर रहे हैं वह ज्यादा दिन तक नहीं चलेगी। हमें मौजूदा समय में पेड़ों को काटकर, खेती में रसायनों का इस्तेमाल करके, बारिश के पानी को मिट्टी में वापस जाने से रोक कर प्रकृति का दोहन कर रहे हैं। यह काफी नुकसानदायक है।"

सबसे बड़ी चुनौती, प्राकृतिक खेती के लायक जमीन को तलाशना है। संथालों के स्वामित्व वाली अघिकांश भूमि काफी कम है और खेतों से घिरे कम ऊंचाई वाले क्षेत्रों में है। जिसपर कई सालों से रसायनों का प्रयोग किया जाता रहा है। समीपवर्ती क्षेत्रों में पानी के अधिक इस्तेमाल ने इन छोटे भूखंडों को भी प्रभावित किया है।

(यह लेख 101रिपोर्टर्स की ओर से सामुदायिक प्रयास से होने वाले सकारात्मक बदलाव की कड़ी का हिस्सा है। इस कड़ी में हम यह पता लगाएंगे कि कैसे समाज के लोग किस तरह से अपने स्थानीय संसाधनों का विवेकपूर्ण इस्तेमाल करते हुए अपने लिए रोजगार के अवसर पैदा कर रहे हैं और समाज में एक बड़ा बदलाव भी लेकर आ रहे हैं।)

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