यह नदी बहुत चौड़ी थी, जल स्तर भी काफी बढ़ा हुआ था और असम की चाय राजधानी और भारत के चाय शहर डिब्रूगढ़ की ओर जाने वाली सड़क के बेहद करीब भयावह रूप में बह रही थी।

यह अप्रैल का आखिरी हफ्ता था। इस इलाके में दशकों की अपनी यात्रा से ये तो मुझे पता था कि ब्रह्मपुत्र इतने ऊंचे जल स्तर के साथ अपने आकार को विशाल कर लेती है लेकिन ऐसा सिर्फ मई-जून के समय में होता था। एक महीने पहले नदी का उस स्तर पर पहुंचना असामान्य था, यहां तक ​​​​कि भयानक भी।

इस नदी की प्रकृति के हिसाब से, इसने अपनी मुख्य धारा से थोड़ी दूर पर खुद को कई धाराओं में बांट लिया था। और अरुणाचल प्रदेश की नीली पहाड़ियां दूर से इस नज़ारे को ऊपर से चुपचाप देख रही थीं।

सांसद और लेखक हेम बरुआ ने अपनी 1954 में लिखी किताब का नाम "द रेड रिवर एंड द ब्लू हिल" अपने गृह राज्य पर रखा था, लेकिन मुझे लगता है कि 1990 के दशक के दौरान सत्ता, भ्रष्टाचार, उग्रवाद, अपहरण और जबरन वसूली के बारे में अपने उपन्यास के लिए पी ए कृष्णन का शीर्षक "द मड्डी रिवर" एक अधिक उपयुक्त वर्णन है। क्योंकि यह नदी एवं घाटी के भीतर और आसपास के कई मुद्दों को दर्शाती है, जहां से होकर ये गुजरती है।

हिंदू पौराणिक कथाओं में ब्रह्मपुत्र को एक पुरुष नदी के रूप में माना गया है। ब्रह्मपुत्र यानी ब्रह्मा और अमोघा का पुत्र। सृष्टिकर्ता ब्रह्मा को ऋषि शांतनु की सुंदर पत्नी अमोघा से प्यार हो गया। उनका एक पुत्र हुआ जो पानी के रूप में बह गया। शांतनु ने 'ब्रह्मा के पुत्र' को चार महान पहाड़ों के बीच में रखा, जहां वह एक महान झील - ब्रह्म कुंड में विकसित हुआ। एक मिथक यह भी है कि परशुराम को अपनी मां की हत्या के पाप से खुद को मुक्त करने के लिए वहां स्नान करने की सलाह दी गई थी। ताकि सभी मानव जाति को इसका लाभ मिल सके। परशुराम ने अपनी कुल्हाड़ी ली और नदी को नीचे के मैदानों में बहने देने के लिए पहाड़ को काट कर एक रास्ता बना दिया।

ब्रह्मपुत्र के पास उन सभी लोगों को अपनी ओर खींच लाने वाला एक खास शक्तिशाली आकर्षण है, जिन्होंने इसे देखा है - और उस आकर्षण का अधिकांश हिस्सा इसके पल-पल बदलते रूप, यहां तक ​​​​कि इसकी विरोधाभासी, प्रकृति से उपजा है। यह अपने रास्ते से होते हुए तेज और अशांत होकर बहती है, तो कहीं इसका स्वभाव बिलकुल शांत, स्थिर और शीशे की तरह दमकता है, तो कहीं यह फिर से बवंडर और छोटे-छोटे भंवरों में गुर्राती नजर आती है।


इस तुनकमिज़ाजी नदी के तट पर मछुआरों की एक टोली ने एक पुराने, मौसम की मार झेलते पेड़, जिसे मैंने पहली बार दशकों पहले ऊपरी असम के डिब्रूगढ़ आने पर देखा था, की छाया में छोटे-छोटे जाल डाले हुए थे। किनारे से टकराती पानी की लहरों से कुछ ही मीटर की दूरी पर रेत पर बड़े करीने से कटी हुई जलाऊ लकड़ी के ढेर लगे थे।

जब ब्रह्मपुत्र गुस्से में उफनती है और ऊपर की ओर आती है तो जलकुंभी के हजारों झुरमुटों का तालाबों और बील (उथली झील जैसी आर्द्रभूमि) में से निकल कर सतह पर ऊपर नीचे उछल कूद मचाना और बेचैन ज्वार के साथ बह जाना इस नदी की एक जाना-पहचाना नज़ारा है।

यह बेचैनी इस नदी के लगभग 2,900 किलोमीटर के लंबे सफर का प्रतीक है। इस दौरान यह तीन देशों को पार करती है और चार बार अपना नाम बदलती है। यह बेचैनी एक निरंतर सफर पर निकले मुसाफिर की प्रकृति को दर्शाती है - और साथ ही मेरी भी।

मुझे इस नदी की यात्रा करते हुए कई साल हो गए हैं। मैं अब बूढ़ा हो गया हूं। हालांकि मैं लंबे समय तक काम करता हूं और यथोचित रूप से फिट रहता हूं। नदी यात्राओं - विशेष रूप से भारतीय नदियों के इस सबसे अशांत क्षेत्र में - को हल्के में नहीं लिया जाना चाहिए। ब्रह्मपुत्र का अपनी साथी नदियों की तुलना में एक स्वतंत्र अस्तित्व है और हर किसी को उस अंतर को पहचानना और सम्मान करना होगा - एक सबक जो बचपन से मुझमें समाया हुआ है।

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नदी पर मेरी पहली नजर तब पड़ी जब मैं एक छोटा बच्चा था, और हम सब तत्कालीन अविभाजित असम की राजधानी शिलांग से गुवाहाटी जा रहे थे।

मुझे याद है कि मैं इसकी पतली बलखाती धारा से प्रभावित हुआ था, भले ही उस समय यह शायद सबसे संकरी हो, लेकिन गजब का आकर्षण था। यही कारण है कि तिब्बत से बंगाल की खाड़ी के रास्ते में कहीं भी नदी पर पहला पुल 1962 के आसपास बनाया गया था। और यह पुल वहीं बनाया गया था जहां चौड़ाई और प्रवाह बिल्कुल सही था।

ब्रम्हपुत्र, अपनी सहायक नदियों के साथ, मेघालय, पश्चिम बंगाल, नागालैंड और सिक्किम से भी होकर गुजरती है।

मुझे गुवाहाटी में नदी के बीच में अठखेलियां करतीं डॉल्फिन का मोहक दृश्य याद आता है। लेकिन आज आपको एक को भी देखने के लिए लंबी दूरी तय करनी पड़ेगी। इसके लिए शहर के आस-पास फैला प्रदूषण और मानव हस्तक्षेप जिम्मेदार है।

कभी-कभी हम नौगांव - यह मध्य असम का शांत प्रांतीय शहर था और मेरे नाना-नानी का घर भी- से ड्राइव करते हुए तेजपुर आते थे, रास्ते भर लोगों और उनकी साइकिलों को ले जाने वाली फेरी(बड़ी नौका) और स्टीमर को देखते हुए। आज नदी के दोनों ओर बढ़ती आबादी को जोड़ने के लिए बने नए पुलों और बढ़िया सड़कों की बदौलत फेरी कम ही नजर आती हैं। और इन पर अब कम ही साइकिल जाती हैं। इसके बजाय फेरी पर अब चमचमाती मोटरबाइक, कई तरह की छोटी व बड़ी कारें और सुंदर कपड़ों में सजे-धजे पुरुष और महिलाएं (और बच्चे) नजर आते हैं।

नदी के रास्ते में पड़ने वाली इन जगहों और वहां होने वाली ध्वनियों से मैं परिचित हूं। इन्होंने मुझे बचपन से ही मोह रखा है। और वे तेजी से बदलते और अनिश्चितता से भरे संसार में सुकुन दे रही हैं। इन्होंने ही हमारी शुरुआती दुनिया को रचा, जो अब से कहीं सहज थी। यही हमें स्थिरता और नदियों की अनंत प्रकृति और नदी की यात्राओं अहसास कराती हैं।

ब्रह्मपुत्र की मुख्य विशेषता इसका आकार है, इसकी विशालता है। जो लोग नदी पर चलते हुए छोटे जहाजों से ली गई तस्वीरों और वीडियो को देखते हैं, वे इसके आकार को देखकर भावावेश में कहते हैं: "यह एक नदी नहीं है, यह तो एक समुद्र है।"

तिब्बत में एक हिमनद प्रवाह के रूप में इसका उद्गम होता है। आकार और तेज वेग लेते हुए विशाल तिब्बती पठार में लगभग 2,000 किमी की गति से बढ़ती है। कुछ साल पहले तक यह प्रवाह अबाधित था। इन दिनों चीनियों ने बिजली उत्पादन के लिए वहां बांध बनाए और बना रहे हैं। कई महत्वपूर्ण रास्तों पर ये बांध नदी की प्रकृति और इसके मुक्त प्रवाह को बदल रहे हैं।


इन हस्तक्षेपों के प्रभावों को इसके अनुप्रवाह में महसूस किया जा रहा है। लेकिन नदी के ईको सिस्टम के लिए सबसे गंभीर चुनौती इसके ग्रेट बेंड में है, घोड़े की नाल के आकार का वह मोड़ जो त्संगपो, एक अड़ियल पहाड़ से टकराने के बाद लेती है और दक्षिण की ओर अरुणाचल प्रदेश की ओर बहने के लिए मुड़ जाती है।

यह वह जगह है जहां 19 वीं शताब्दी के अंत में भारतीय सर्वेक्षण ने सिक्किम के दर्जी से जासूस-खोजकर्ता बने किंथुप को भेजा था। बाद में यहां स्थित महान जलप्रपात को उनका नाम दिया गया। यह 200 फीट नीचे गिरता है, जिससे त्सांगपो को और अधिक वेग मिलता है। फिर अपने इस रूप में यह बंगाल की खाड़ी में उतरने से पहले अरुणाचल प्रदेश, असम और अंतत: बंगाल की खाड़ी में अपनी यात्रा के दौरान संकरी घाटी में गरजती है।

पेमाको जिसे स्वर्गीय आत्माओं और शाश्वत शांति की रहस्यमयी भूमि कहा जाता है और जो तिब्बती बौद्धों के लिए पवित्र है, इस ही के बीचो बीच चीन एक बड़ा डैम बनाने की तैयारी कर रहा है। अगर ऐसा होता है तो यह शानदार उष्णकटिबंधीय और समशीतोष्ण लैंडस्केप, समृद्ध वन्यजीवों के एक अमूल्य खजाने और असाधारण रूप से बीहड़ सुंदरता जो अनादि काल से मौजूद है, के लिए एक बड़ा खतरा बन जाएगा। और यह ब्रह्मपुत्र और उसकी साथी नदियों का क्या हश्र करेगा, जो पहले से ही सुबनसिरी, रंगनाडी और कोपिली पर बांधों से प्रभावित हैं, इसकी कल्पना करना मुश्किल है।

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भारत-चीन वास्तविक नियंत्रण रेखा (एलओएसी) पर गेलिंग, त्सांगपो नदी का स्वागत करने वाला पहला गांव है। यहां आकर ये नदी सियांग बन जाती है। ब्रह्मपुत्र से पहले यह अपना नाम तीन बार बदलती है और फिर बांग्लादेश में गंगा के साथ एकजुट होने से पहले यह जमुना हो जाती है, बांग्लादेश में संयुक्त प्रवाह इसे पद्मा नाम देता है। यहां ये बंगालियों को प्रिय है -खासकर इसमें बहती सिल्वर इलिश या हिलसा मछलियों के लिए।

दशकों से इन इलाकों में भटकते हुए, मुझे यह पता चल गया है कि नदी अपने मार्ग के साथ कैसे बेहतर या बदतर के लिए बदल रही है। इस साल अलग-अलग समय पर तयशुदा अपनी यात्राओं में, मैं यह पता लगाना चाहता हूं कि इसने लोगों और समुदायों, पारिस्थितिक तंत्र और आजीविका, आमदनी और रहने की जगह के साथ-साथ विस्थापन और प्रवासन के जीवन को कैसे प्रभावित किया है।

मैं कोई क्लाइमेटोलॉजिस्ट नहीं हूं, लेकिन पढ़ने और विशेषज्ञों से बात करने और जलवायु परिवर्तन के विज्ञान के बारे में जानने के बाद मुझे आश्चर्य हुआ है कि आम लोग - खासकर वे जो पीढ़ियों से नदी के किनारे रहते हैं - ने इन परिवर्तनों का अनुभव कैसे किया, वे इसे कैसे समझते हैं और अपरिहार्य परिवर्तनों से निपटने के लिए वे कैसे योजना बनाते हैं?

मुझे पता है कि मैं इस एक यात्रा में यह सब नहीं देख सकता, इसलिए मैं एक सीमित यात्रा योजना के साथ आया जिसका उद्देश्य मुझे असम के लगभग 10 जिलों में ले जाना था। मैं अंतत: सड़कों और नदी पर, 1,000 किमी से अधिक की यात्रा करते हुए, सात जिलों को कवर कर पाया। बाद में जब मैंने अपने इस सफर को कहानियों की श्रृंखला के साथ खत्म किया, तो मैंने अरुणाचल प्रदेश में सियांग और उसकी साथी नदियों के पास जाने की योजना बनाई।

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अपने इस सफर में मैंने 'चांग घर' में स्वादिष्ट स्मोकी अपोंग (चावल बीयर) की चुस्की ली, कद्दू और लहसुन की करी में पका सूअर का मांस खाया। चांग घर बांस और घास से बने होते हैं, और एक पतले से लकड़ी के लट्ठे के सहारे, उसे 'सीढ़ी' बनाते हुए, उस पर छोटे-छोटे कदम रखते हुए वहां तक पहुंचा जा सकता है। ये घर, मिशिंग जनजाति के विशिष्ट निवास स्थान हैं। घरों में लगे जालीदार बांस के दरवाजे हमेशा खुले रहते हैं और नदी से आती हवा के झोंके इन घरों को ठंडा बनाए रखते हैं। फर्श भी एक झरझरे, स्पंजी बांस की बुनाई से बना है जो हवा के आवागमन को बनाए रखने में सहायता करता है। बाढ़ से बचने के लिए घरों को आमतौर पर जमीन से ढाई मीटर ऊपर रखा जाता है। बांस और लकड़ी की झोपड़ियों कुछ इस तरीके से बनाई जाती हैं कि उन्हें आसानी से तोड़ा जा सके और जरूरत पड़ने पर नई बस्तियों में ले जाया जा सके। ईंट और सीमेंट के घरों के लिए ऐसा कर पाना नामुमकिन है। यह काम का पारंपरिक ज्ञान है जिसे दशकों से और पीढ़ियों से मिशिंग सीखते आए हैं कि कैसे एक अशांत नदी के साथ रहा जाता है, वो नदी जो एक दिन शांत हो जाती है, और अगले ही दिन अपने रास्ते में आने वाली हर चीज को अपने साथ बहा ले जाती है।

'चांग घर' में अपोंग का इंतज़ार करते हुए।

जिस घर में बैठकर मैं अपोंग का घूंट भर रहा हूं, वहां नीचे एक हथकरघा युनिट लगी है। इसका इस्तेमाल घर की महिलाएं सफेद और चमकीले पीले रंग के पारंपरिक बुने हुए कपड़े बनाने के लिए करती हैं। मिशिंग घरों में ये एक आम सी बात है। ये हथकरघा मशीन उन्हें अतिरिक्त आय के स्रोत के रूप में आत्मनिर्भर बनाती हैं।

हो सकता है, मैं नदी के तट पर फंस जाऊं या एक भयानक आंधी में कहीं अटक जाऊं, लेकिन हर उम्र और तबके के ग्रामीणों से मिलूंगा, स्कूल के शौचालय का इस्तेमाल करूंगा और स्वच्छ भारत मिशन के कामकाज को देखूंगा, देश के कुछ बेहतरीन राजमार्गों पर यात्रा करूंगा और आधी रात में सार्वजनिक रूप से बिहू गाने सुनुंगा।

मैं स्कूल के शिक्षकों, किसानों, पर्यावरणविदों, अधिकारियों, व्यापारियों, ठेकेदारों, वैज्ञानिकों, लेखकों के साथ इस इकोसिस्टम में हो रहे बदलावों और लोगों पर इसके प्रभाव को समझने की कोशिश करने के लिए बात करूंगा। मैं एक प्रमुख तेल विस्फोटक साइट पर जाता हूं, बार-बार मौसम परिवर्तन और ब्रह्मपुत्र घाटी में लोगों के बीच पैदा हुई अनिश्चितता के साथ-साथ नई अर्थव्यवस्था और शहरी विकास से प्रेरित और रेत पर निर्मित बड़े बुनियादी ढांचे का अध्ययन करता हूं।

(बाएं) चांग घर से उतारते हुए; (दांए) डिब्रूगढ़ के एसोंग सपोरी में बुनाई करती एक महिला।

मैंने अपनी इस यात्रा को अनिश्चितता के भाव के साथ शुरू किया, यहां तक ​​​​कि अपर्याप्तता की भावना के साथ भी - नदी विशाल है, यह मूडी है, यह लगातार अपना चरित्र बदलती रही है और कोई भी इंसान, किसी एक यात्रा पर, इसे समझने और पकड़ने की उम्मीद नहीं कर सकता है।

मेरी यात्रा एक पतली धारा से शुरू होती है। हमारी नाव तेजी से बहाव को पकड़ती है और फिर सिर के बल आगे की तरफ दौड़ती है - और अचानक हम पानी के एक विशाल विस्तार के बीच में होते हैं, दोनों ओर किनारों का कोई निशान नहीं है, और बस हम ही नजर आ रहे हैं।

यह थोड़ा डरा भी रहा है, लेकिन खुशी और आजादी की भावना भी है क्योंकि नाव मुझे शहरों की विषाक्तता, प्रदूषण और राजनीति से दूर ले जाती है, और मुझे अपने चेहरे पर नदी और हवा की तीखी ऊर्जा महसूस होती है, और जरा दूर क्षितिज को देखो जहां पानी और आकाश विलीन हो रहे हैं।

किसी पुराने दोस्त के साथ फिर से रहना अच्छा है।

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जब यह अंश प्रकाशन के लिए तैयार किया जा रहा था तब असम इस साल तीसरी बार बाढ़ की मार से गुजरा था। जैसा कि संजय हजारिका ने आने वाले हफ्तों में अपनी कहानी का विस्तार किया है, वह इन बाढ़ों और उससे हुए मानवीय नुकसान /परिणामों की गहराई में उतरते हैं। अगले हफ्ते अगली कहानी के लिए हमारे साथ जुड़े रहें।

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