रांची: सिमडेगा में कार्यरत दिहाड़ी मजदूर मुकेश सोरंग के पुत्र रितेश सोरंग (उस समय उम्र तीन महीना) का वजन डॉक्टरों ने मार्च 2023 में सामान्य से 40 प्रतिशत कम पाया था और इसी सिलसिले में रितेश को सदर अस्पताल के कुपोषण उपचार केंद्र में भर्ती कराया गया।

रितेश के शरीर के हर हिस्से से हड्डियों का ढांचा नजर आता था। लेकिन जब 16 अप्रैल 2023 को उसे कुपोषण उपचार केंद्र से डिस्चार्ज किया गया तो उसका वजन 4.985 किलोग्राम था। डिस्चार्ज किए जाने के समय बच्चे के माता-पिता को बताया गया कि उन्हें रितेश को कम से कम चार फॉलोअप के लिए एमटीसी यानी कुपोषण उपचार केंद्र लेकर आना होगा और इस क्रम में जब 30 मई को उसका वजन मापा गया तो वह 6.8 किलोग्राम का था। जब वह भर्ती किया गया था तब उसका बाहु का (हाथ का) माप 8.5 सेमी था, डिस्चार्ज के वक्त 9.7 सेमी और 30 मई को 12.5 सेमी था।

झारखंड सरकार ने कुपोषित बच्चों को चिह्नित करने के लिए समर नाम के एक अभियान की शुरुआत की थी ज‍िसका आधे से ज्‍यादा समय बीत चुका है।

झारखंड में कुपोषण की स्थिति

एनएफएचएस 5 (2019-21) के अनुसार राज्य में 5 वर्ष से कम उम्र के 40 प्रतिशत बच्चे नाटेपन के शिकार हैं (उम्र के अनुसार कम ऊंचाई), 22 प्रतिशत बच्चे सूखापन (लंबाई के अनुपात में कम वजन) के शिकार हैं और 39 प्रतिशत बच्चे कम वजन (उम्र के अनुसार कम वजन) के हैं। हालाँकि एनएफएचएस 4 के मुकाबले स्थिति थोड़ी बेहतर जरूर हुई है। लेकिन कुपोषण की स्थिति अभी भी झारखण्ड में चिंताजनक है। अगर हम एनएफएचएस - 4 को देखे तो झारखंड में 5 वर्ष से कम उम्र के 45.3 प्रतिशत बच्चे नाटेपन के शिकार हैं (उम्र के अनुसार कम ऊंचाई), 29 प्रतिशत बच्चे सूखापन (लंबाई के अनुपात में कम वजन) के शिकार हैं और 47.8 प्रतिशत बच्चे कम वजन (उम्र के अनुसार कम वजन) के थे।

रितेश की मां बताती हैं, “ रितेश जन्म के समय वह कम वजन का था। जमीन पर लेटाते थे तो मिट्टी खा लेता था। इस वजह से वह बीमार हो गया।”

चाईबासा सदर अस्पताल स्थित कुपोषण उपचार केंद्र, जहां सुदूर क्षेत्रों के बच्चों के कुपोषण का उपचार किया जाता है। यहां भर्ती होने वाले बच्चों में अधिकतर आदिवासी वर्ग के होते हैं। फोटो : राहुल सिंह

कुपोषित बच्चों का चिह्नीकरण एक चुनौती:

रांची स्थित बाल रोग विशेषज्ञ डॉ. चंदन वर्णवाल ने इंडियास्पेंड हिन्दी से कहा, "झारखंड में बच्चों के कुपोषण की मुख्य वजह गरीबी के साथ जानकारी का अभाव है। इसलिए जागरुकता कार्यक्रम और सूचनाओं का प्रवाह अधिक प्रभावशाली हो ताकि लोग सहज ढंग से उसे जान सकें, तभी कुपोषण के खिलाफ अभियान में सफलता हासिल होगी"।

"अगर कोई बच्चा मिट्टी खाता है तो उसके पेट में कीड़े हो जाते हैं और वह मल्टीप्लाई करता है और उसका भोजन डर्टी मैटेरियल (गंदी चीजें) होता है। इसको प्राप्त करने के लिए वह बच्चे के दिमाग में सिग्नल भेजता है और बच्चा वैसी दूषित चीजों को खाता है। इसलिए अगर आयरन, कैल्सियम की गोली दी जाए तो ये खतरे कम होंगे"। डॉ. वर्णवाल के अनुसार, झारखंड के गांवों व आदिवासी इलाकों में कई ऐसी चीजें हैं जो विटामिन व प्रोटीन के अच्छे स्रोत हैं, जिनमें रागी, गोंदली, कुदरूम, फुटका, विभिन्न प्रकार के साग आदि हैं।

डॉ. वर्णवाल आगे कहते हैं, “मेरे पास इलाज के लिए आने वाले बच्चों में करीब 40 प्रतिशत ग्रामीण क्षेत्र के होते हैं; ग्रामीण बच्चों में प्रोटीन और एनर्जी की कमी पायी जाती है, जबकि शहरी बच्चों में विटामिन की कमी पाई जाती है।”

झारखंड में ऐसे बच्चों को चिह्नित करने के लिए झारखंड सरकार ने दिसंबर 2021 में सिमडेगा जिले से समर (SAAMAR-Strategic Action for Alleviation of Malnutrition and Anemia Reduction) नाम के एक विशेष अभियान की शुरुआत की थी। राज्य सरकार ने कुपोषण से मुक्ति के लिए पायलट प्रोजेक्ट के तहत पहले चरण में इस अभियान के तहत सभी पांच प्रमंडल से एक-एक जिलों का चयन किया जिसमें सिमडेगा, पश्चिम सिंहभूम, साहिबगंज, चतरा और लातेहार शामिल हैं।

दिसंबर 2021 की राज्य सरकार की घोषणा के अनुसार, झारखंड को कुपोषण से मुक्त करने का यह 1,000 दिनों का विशेष अभियान है। 29 दिसंबर 2021 को झारखंड के महिला, बाल विकास एवं सामाजिक सुरक्षा विभाग की ओर से इस संबंध में एक विस्तृत दिशा-निर्देश वाला पत्र सभी प्रमंडलीय आयुक्तों, संबंधित जिलों के उपायुक्तों और उप विकास आयुक्तों को लिखा गया।

समर अभियान और अब तक इसका हासिल

समर अभियान की शुरुआत समुदाय आधारित या समुदाय की सहभागिता वाले उपचार माध्यम के रूप में की गयी। इसके पीछे यह अनुभव था कि सामान्यतः परिजन कुपोषित बच्चों को उपचार के लिए अस्पताल लेकर नहीं आते हैं, जिन बच्चों में स्वास्थ्य संबंधी अधिक जटिलताएं होती हैं, उन्हें ही परिवार वाले अस्पताल या कुपोषण उपचार केंद्र लेकर पहुंचते हैं। इस अभियान को शुरू करने के पीछे यह सोच थी कि पहले चरण में पांच जिलों में समर के तहत बच्चों को चिह्नित किए जाने से जो अनुभव हासिल होगा, साक्ष्य हासिल होगा इसके आधार पर अभियान का विस्तार राज्य के अन्य जिलों में करने पर विचार किया जाएगा।

समर अभियान के लिए राज्य के महिला, बाल विकास एवं सामाजिक सुरक्षा विभाग को नोडल विभाग की जिम्मेदारी दी गयी। इसके साथ स्वास्थ्य विभाग, ग्रामीण विकास विभाग, स्कूली शिक्षा एवं साक्षरता विभाग, खाद्य सार्वजनिक वितरण एवं उपभोक्ता मामले विभाग एवं यूनिसेफ की भागीदारी भी तय की गयी। अभियान को जमीनी स्तर पर अमल में लाने की जिम्मेवारी समर पोषक दल पर दी गयी, जिसमें आंगनवाड़ी सेविका, सहिया और जेएसएलपीएस के सखी मंडल की एक सदस्य जिनके पास टैब या एंड्रायड फोन उपलब्ध हो उन्हें शामिल किया गया।

इस अभियान में ग्रामीण विकास विभाग के उपक्रम जेएसएलपीएस (झारखंड स्टेट लाइवलीहुड प्रमोशन सोसाइटी) की अहम भूमिका तय की गयी। समर ऐप का निर्माण ग्रामीण विकास विभाग की ओर से ही किया गया और इस ऐप पर चिह्नित किए गए बच्चे-व्यक्ति का फॉलोअप करने और डेटा भरने की जिम्मेदारी जेएसएलपीएस की दीदियों को दिया गया। शुरुआत में जेएसएलपीएस की दीदियों ने इस कार्य में रुचि ली। लेकिन इस कार्य के लिए किसी प्रकार का मानदेय तय नहीं हो पाने की वजह से उनकी सक्रियता इसमें खत्म हो गई। झारखंड राज्य पोषण मिशन से मिली जानकारी के अनुसार फिलहाल यह कार्य आंगनवाड़ी सेविका ही कर रही हैं।

समर में डिजाइन गैप:

बच्चों के स्वास्थ्य के क्षेत्र में काम करने वाली संस्था पब्लिक हेल्थ रिसोर्स नेटवर्क (पीएचआरएन) के झारखंड स्टेट कन्वेनर और पोषण मामलों के जानकार हलधर महतो ने इंडियास्पेंड हिंदी से कहा, "समर अभियान के जरिए सिर्फ नाम बदला है। जमीन पर कुपोषण के खिलाफ कार्यक्रमों में कोई बदलाव नहीं आया है। कार्यक्रम को लागू करने का तरीका और सेवा में सुधार कुपोषण से लड़ाई के अभियान के दो महत्वपूर्ण पक्ष हैं।”

"इस कार्यक्रम को लागू करने के लिए जेएसएलपीएस को एक टूल के रूप में देखा गया, क्योंकि उनका नेटवर्क नीचे तक है! लेकिन वे इस काम को कैसे और क्यों करेंगे इस पर विचार नहीं किया गया, यह डिजाइन गैप है।”

हलधर महतो एक आंकड़े के हवाले हुए आगे कहते हैं, "राज्य के कुपोषण उपचार केंद्रों में भर्ती होने वाले 92% (वित्त वर्ष 2017-18) से 93 (वित्त वर्ष 2018-19) प्रतिशत बच्चे तीन साल से कम आयु के होते हैं। वे अधिकांशतः अनुसूचित जनजाति व अनुसूचित जाति वर्ग के हैं। उनके माता-पिता के पास रोजगार नहीं है या आर्थिक दिक्कते हैं। ऐसे में जरूरी यह है कि फिडिंग प्रोग्राम व सर्विस पर जोर दिया जाए।” वे बच्चों को हर दिन आंगनवाड़ी केंद्र व स्कूलों में अंडा नहीं दिए जाने पर भी सवाल उठाते हैं, जिसकी मांग समय-समय पर राज्य में उठती रही है।

यूनिसेफ झारखंड ने इंडियास्पेंड हिंदी को लिखित जवाब में बताया कि समर कार्यक्रम के माध्यम से पोषण दल घर-घर जाकर बच्चों एवं महिलाओं में कुपोषण तथा एनीमिया की पहचान करने के साथ-साथ यह सुनिश्चित करता है कि कुपोषित बच्चे, किशोरियों एवं महिलाओं को समुदाय आधारित सरकारी सेवाओं एवं कार्यक्रमों से जोड़ा जाए और उनका नियमित फॉलोअप भी ल‍िया जाए। इसके तहत गंभीर कुपोषित बच्चों को आंगनवाड़ी केंद्र के विशेष उपचार केंद्र (एसटीसी) में भर्ती कराया जाता है या उनकी गंभीरता के आकलन के आधार पर एमटीसी (कुपोषण उपचार केंद्र) में भी भर्ती किया जाता है।

यूनिसेफ ने अपने जवाब में आगे कहा है कि बिना चिकित्सकीय जटिलता वाले अति गंभीर बच्चे को सामुदायिक स्तर पर एसटीसी में उपचार के लिए भर्ती किया जाता है, जिसके कारण पिछले एक वर्ष में कई बच्चे ठीक हो चुके हैं। इसने चिकित्सकीय रूप से जटिल कुपोषित बच्चों की एमटीसी में भर्ती और उनकी रिकवरी को भी सुनिश्चित किया है। समर अभियान के तहत बड़ी संख्या में एनीमिक मामलों की पहचान की जा रही है और एनीमिया मुक्त भारत कार्यक्रम के दिशानिर्देश के अनुसार आवश्यकता अनुरूप उपचार प्रदान किया जा रहा है।

तालमेल में दिक्कत

कई जिलों और राज्य स्तर पर अधिकारियों से बातचीत के दौरान यह साफ पता चला कि अभियान के समन्वय में दिक्कतें हैं और जेएसएलपीएस के सखी मंडल की सदस्य की इसमें अब रुचि नहीं है जिसकी एक वजह इसके लिए किसी प्रकार का पारिश्रमिक निर्धारण न होना है।

पश्चिम सिंहभूम जिले के चाईबासा सदर प्रखंड की नरसंडा पंचायत के नरसंडा गांव की जेएसएलपीएस की सखी जयंती सोंडी ने इंडियास्पेंड हिंदी से बातचीत में कहा, “करीब दो साल पहले प्रज्ञा केंद्र में कुपोषित बच्चों के काम करने को लेकर कुछ जानकारी मिली थी। लेकिन उसके लिए हमने कभी काम नहीं किया।” जेएसएलपीएस के कार्यक्रम के तहत वे बैंक सखी का काम करती हैं और इससे उन्हें महीने में साढ़े चार हजार रुपए की कमाई हो जाती है। पोषण अभियान से जुड़े काम को लेकर वे कहती हैं, “उस काम (पोषण का काम) के लिए पैसे की कोई बात नहीं हुई थी और इस काम (बैंकिंग के काम) से मुझे समय भी नहीं मिलता है।”

इसके अलावा अभियान को सफल बनाने में अन्य दिक्कतें भी हैं। पश्चिम सिंहभूम जैसे अति माओवाद प्रभावित जिले में स्वास्थ्य विभाग की टीम को माओवादी गतिविधियों के कारण अशांत क्षेत्र में काम करने में दिक्कतों का सामना करना होता है। चाईबासा एमटीसी के प्रभारी डॉ. शिवचरण हांसदा ने इंडियास्पेंड हिंदी से कहा, “हमारे यहां बहुत चुनौतीपूर्ण स्थिति है। अशांत क्षेत्र में ठीक से काम नहीं हो पा रहा है। हम वैसे इलाके से एनजीओ को माध्यम से गाड़ी से कुपोषित बच्चों को उपचार के लिए मंगवाते हैं।”

67.31 प्रतिशत आदिवासी आबादी वाले पश्चिम सिंहभूम में कुपोषण के मामले बहुत अधिक हैं। इस जिले में पांच एमटीसी कार्यरत हैं और सभी बेड भरे रहते हैं। डॉ. हांसदा के अनुसार चाईबासा एमटीसी में बेड एक्वेंसी 107.84 प्रतिशत है और सामान्यतः एक बच्चा 15 दिनों तक एमटीसी में रहता है। पश्चिम सिंहभूम की समाज कल्याण पदाधिकारी अनिशा कुजूर कहती हैं, “हमारे जिले में 1,790 चिह्नित सैम (Severe Acute Malnutrition) बच्चे हैं, समर के तहत वे चिह्नित किए जा रहे हैं और ठीक होकर घर भी जा रहे हैं।”

एमटीसी और इसकी क्षमता

झारखंड में कुल 96 एमटीसी (कुपोषण उपचार केंद्र - Malnutrition Treatment Center) हैं, जिनकी क्षमता 1105 बेड की है। यूनिसेफ के अनुसार इन एमटीसी के पास हर साल चिकित्सीय जटिलता वाले 26,500 अति गंभीर कुपोषित बच्चों के इलाज करने की क्षमता है। हालांकि खेती के समय और धान काटे जाने के वक्त एमटीसी पर बोझ अपेक्षाकृत कम होता है। इन सेंटर्स पर कार्यरत एक न्यूट्रिशन काउंसलर के अनुसार एमटीसी पर बच्चे के साथ रहने वाली माताओं को आहार देने के साथ 130 रुपये प्रतिदिन के हिसाब से भुगतान किया जाता है, जबकि अगर वे कहीं मजदूरी करेंगी तो न्यूनतम 250 रुपये मिलेगा। सिमडेगा एमटीसी में न्यूट्रिशन काउंसलर डॉ. श्वेता रानी पंडा कहती हैं, “खेती के समय और फसल कटाई के समय महिलाएं उस काम को प्राथमिकता देती हैं न कि बच्चे के उपचार को।”

सिमडेगा में वित्त वर्ष 2022-23 में 1959 सैम (Severe Acute Malnutrition - गंभीर रूप से कुपोषित) बच्चों को चिह्नित किया गया था, जिसमें 1285 बच्चे उपचार के बाद स्वस्थ हो गए और उनके स्वस्थ होने की दर 66 प्रतिशत है। वहीं, 1682 मेम (Moderate Acute Malnutrition - मध्यम रूप से कुपोषित बच्चे ) बच्चों को चिह्नित किया गया, जिसमें 1045 बच्चे उपचार के बाद ठीक हो गए। मेम बच्चों के ठीक होने का प्रतिशत 62 है। यह आंकड़े सिमडेगा जिले के महिला एवं बाल विकास विभाग ने रिपोर्टर से साझा किये हैं।

हालांकि सिमडेगा के सिविल सर्जन डॉ. नवल कुमार का यह दावा है कि उनका जिला समर अभियान के मानकों पर बेहतर काम कर रहा है। सिमडेगा के समाज कल्याण पदाधिकारी राजेंद्र प्रसाद के अनुसार, अति गंभीर कुपोषित बच्चों को उपचार के उपरांत एक सेम किट दिया जाता है जिसमें नौ प्रकार की दवाएं और टेक होम राशन होता है। यह छह महीने से तीन साल तक के बच्चों को दिया जाता है।

डिमांड साइड पर पर्याप्त काम नहीं

समर अभियान से जुड़े एक कंसलटेंट ने नाम न छापने की शर्त पर इंडियास्पेंड हिंदी से कहा, “हम समर के तहत जो सेवाएं चला रहे हैं, समुदाय में उसकी मांग नहीं है। सेवा और आपूर्ति के स्तर पर दिक्कत नहीं है। समस्या यह है कि डिमांड साइड पर पर्याप्त काम नहीं हुआ है”। उनके अनुसार समर के तहत जो काम हो रहा है उसका असर दिखने में चार से पांच साल का वक्त लग सकता है। समर के तहत चिह्नित बच्चों व उनके परिवार को अन्य सरकारी योजनाओं के लाभ से भी जोड़ा जाता है, जैसे बच्चा स्कूल जाता है या नहीं, उसके परिवार के सदस्यों के पास मनरेगा का जॉब कार्ड है या नहीं, इत्यादि।

रांची में स्वास्थ्य विभाग के एक अधिकारी ने नाम न छापने की शर्त पर कहा, “समर का काम ठीक से नहीं चल रहा है, जैसा होना चाहिए और हमारा जोर नियमित कार्यक्रमों पर है”। सिमडेगा जिले में महिला एवं बाल कल्याण विभाग की एक अधिकारी ने कहा, “दिसंबर 2021 में समर अभियान शुरू होने के बाद फरवरी 2022 में रांची में इसको लेकर हमारा पहला प्रशिक्षण हुआ था तो हमें लगा था कि यह प्रोग्राम बहुत आगे तक जाएगा, पर वैसा हो नहीं पाया। इस अभियान को लेकर क्षमता वर्धन (कैपिसिटी बिल्डिंग) उस तरह हो नहीं पाया।”

झारखंड में खराब मातृ स्वास्थ्य व कुपोषण की क्या हैं वजहें?

चाईबासा एमटीसी के प्रभारी डॉ. शिवचरण हांसदा कहते हैं, “गरीबी, अशिक्षा, जानकारी का अभाव के साथ कम उम्र में विवाह और खंडित परिवार मां और बच्चों के कुपोषण की अहम वजह है”। सिमडेगा, पश्चिम सिंहभूम और गोड्डा जिले के अलग-अलग एमटीसी में भर्ती कराए गए बच्चे गरीब परिवारों से हैं और उनमें आदिवासी व अल्पसंख्यक वर्ग के बच्चों की बहुलता है। इसके साथ बच्चों को भर्ती कराने पहुंची ऐसी माताओं की संख्या अधिक है जिनके एक-दो से अधिक बच्चे हैं और उनके बीच मानक अंतराल भी नहीं है।

जैसे पश्चिम सिंहभूम जिले के अति माओवाद प्रभावित टोंटो प्रखंड क्षेत्र के पट्टातारोप गांव की 25 से 30 वर्ष के बीच की दिखने वाली मनकी सुरीन को यह भी नहीं पता है कि उनकी उम्र कितनी है। लेकिन उन्होंने अपने पांचवें बच्चे को चाईबासा एमटीसी में फरवरी में भर्ती कराया था। बच्चे को तेज बुखार व कान में पानी बहने की शिकायत थी, हालांकि बाद में वह रिकवर कर गया।

सिमडेगा एमटीसी में न्यूट्रिशन काउंसलर डॉ श्वेता रानी पंडा कहती हैं, “गरीबी कुपोषण का एक प्रमुख कारण है। इसके अलावा अशिक्षा, परिवार नियोजन नहीं अपनाना और कम समय अंतराल पर गर्भवती हो जाना भी कुपोषण की प्रमुख वजह है, क्योंकि इस वजह से बच्चों को पोषण नहीं मिल पाता है। वे कहती हैं, महिलाएं घरेलू कामकाज में काफी व्यस्त हो जाती हैं, इस वजह से वे ध्यान नहीं दे पाती हैं कि बच्चों को क्या और कब खिलाना है।”

कुपोषण के मानक

किसी बच्चे को कुपोषित मानने का एक निर्धारित मानक है। सिमडेगा एमटीसी की न्यूट्रिशन काउंसलर डॉ. श्वेता रानी पंडा के अनुसार केंद्र सरकार और यूनिसेफ की इस संबंध में एक निर्धारित गाइडलाइन है। उनके अनुसार, किसी बच्चे का वजन अगर सामान्य से 30 प्रतिशत कम है, उसे एडिमा यानी दोनों पैरों में सूजन है और उसका बाहुमाप तय मानक से कम है तो उसे अति कुपोषित या सेम श्रेणी में माना जाता है। ऐसे बच्चों को उपचार के लिए एमटीसी में भर्ती कराना जरूरी है।

यूनिसेफ झारखंड ने इस संबंध में इंडियास्पेंड हिंदी को दिए अपने जवाब में कहा, “कुपोषण के कई कारण हैं, जिसके कारण एक अंतर-पीढ़ीगत चक्र का निर्माण होता है, जैसे कि एक कुपोषित माँ कम वजन के बच्चे को जन्म देगी, कम वजन का बच्चा कुपोषित बच्चे के रूप में विकसित होगा। कुपोषण के दो तात्कालिक कारण हैं - आहार और देखभाल। कुपोषण के कई कारण हैं जो परस्पर जुड़े हुए है, जैसे - अपर्याप्त संसाधन, अशिक्षा तथा जागरूकता की कमी, गरीबी, कम उम्र में शादी और अन्य सांस्कृतिक मानदंडों जैसे कारकों से अच्छा आहार और देखभाल प्रभावित होती है”।

राष्ट्रीय स्वास्थ्य मिशन की झारखंड इकाई के बाल स्वास्थ्य के नोडल ऑफिसर डॉ आरएन शर्मा इंडियास्पेंड हिंदी से बातचीत में बाल स्वास्थ्य को लेकर झारखंड के समक्ष चुनौतियों को रेखांकित करते हैं। डॉ शर्मा कहते हैं, “झारखंड में पांच वर्ष की उम्र तक के बच्चों की होने वाली मौत में डायरिया और निमोनिया भी मुख्य कारण होते है।” वे कहते हैं कि कुपोषण एक अवस्था है और इस अवस्था में जो बच्चे होते हैं, उनमें निमोनिया व डायरिया का खतरा बढ जाता है।

डॉ. शर्मा कहते हैं कि निमोनिया के लिए एसएएएनएस (SAANS -Social awareness and action to neutralize Pneumonia Successfully )प्रोग्राम संचालित हो रहा है, उसके तहत हम लोगों को ट्रेनिंग देते हैं कि समय पर निमोनिया पीड़ित बच्चे की पहचान हो और उसका उपचार किया जाये। वे कहते हैं कि गांव-देहात में यह पकड़ में नहीं आता, जिससे पीड़ित बच्चे की मौत भी हो जाती है।

झारखंड राज्य सरकार ने नवजात बच्चों की मौत के मामले को नियंत्रित करने के लिए सभी 24 जिलों में 26 स्पेशल न्यूबोर्न केयर यूनिट बनाया गया है। दो जिलों रांची (रिम्स और सदर अस्पताल) व पूर्वी सिंहभूम (सदर अस्पताल और घाटशिला) में इसके दो-दो केंद्र हैं।एनएफएचएस - 5 के अनुसार, भारत में प्रति एक हजार पर नवजात (शून्य से 28 दिन) मृत्यु दर 24.9 %है, जबकि झारखंड में 28.2%, शून्य से एक साल की उम्र के बीच की प्रति एक हजार पर मृत्य दर राष्ट्रीय स्तर पर 35.2 है, जबकि झारखंड में यह 37.9 है। वहीं, शून्य से पांच साल के बच्चे की मृत्यु दर प्रति एक हजार पर भारत में 41.9 है, जबकि झारखंड में यह 45.4 है।

“रितेश अब सात महीने का हो गया है और ठीक है, सब कुछ खाता है। अब हम मसूर की दाल खाते हैं," रितेश सोरंग की माँ बताती हैं।

नोट: इस खबर में कुपोषित बच्चों और उनके अभिभावकों की पहचान न उजागर हो इसके लिए हमने उनके नाम बदल दिए हैं।