लखनऊ: "तुम्‍हे टीबी है। कुछ द‍िन दूर रहो सबसे।"

उत्तर प्रदेश की राजधानी लखनऊ से लगभग 300 क‍िलोमीटर दूर ज‍िला म‍िर्जापुर में रहने वालीं प्र‍िया कुमारी (27 वर्ष बदला हुआ नाम) को सात महीने पहले पता चला क‍ि उन्‍हें फेफड़े की टीबी है। उनकी शादी को आठ साल हो चुके हैं और दो बच्‍चे भी हैं। लेक‍िन जब से डॉक्‍टर ने टीबी की पुष्‍ट‍ि की, तब से वे अपने बच्‍चों को लेकर मायके में हैं। पत‍ि मुंबई में नौकरी करते हैं।

“टीबी कैसे हो गया, यह तो पता ही नहीं है। कुछ द‍िनों से खांसी आ रही थी फ‍िर सांस लेने में द‍िक्‍कत हो गई। पास के सरकारी अस्‍पताल में जांच हुई तो पता चला मुझे टीबी है। दवा तो तुरंत शुरू हो गई। लेक‍िन जब घर लौटी तो लोग बात करना शुरू कर द‍िये क‍ि ये तो छुआछूत वाली बीमारी है।”

“मुझे भी लगा क‍ि मेरी वजह से और लोगों को ना हो जाये। इसलिए बच्‍चों को लेकर मायके चली गई।” पर‍िवार के लोग तो मायके भी होंगे? इस सवाल के जवाब में प्र‍िया कुछ नहीं बोलतीं और आगे बात करने से मना कर देती हैं।

प्र‍िया से इंडियास्पेंड रिपोर्टर की मुलाकात तब हुई थी जब वे म‍िर्जापुर ज‍िला अस्‍पताल में दवा लेने के ल‍िए आई थीं।

भारत में टीबी जैसी बीमारी को आज भी कलंक की तरह देखा जाता है और जब यह मह‍िलाओं में होता है तो स्‍थ‍ित‍ि और बदतर हो जाती है। फ‍िर यह एक ऐसी लड़ाई बन जाती है जो दवाइयों और इलाज से कहीं ज्‍यादा मुश्किल है। यह लड़ाई है अकेलेपन, कलंक और उस चुप्पी की, जो उन्हें धीरे-धीरे अंदर से खत्म कर देती है। यह सिर्फ एक बीमारी की कहानी नहीं है, यह उन अनगिनत महिलाओं की कहानी है जिनके जिस्म के घाव तो शायद भर जाएं, पर मन पर लगे जख्‍म हमेशा हरे रहते हैं।

यह सिर्फ एक बीमारी की कहानी नहीं है, यह उन अनगिनत महिलाओं की कहानी है जिनके जिस्म के घाव तो शायद भर जाएं, पर मन पर लगे जख्‍म हमेशा हरे रहते हैं। र‍िपोर्ट भी इसकी गवाही देते हैं।

विश्व स्वास्थ्य संगठन (डब्ल्यूएचओ) के अनुसार, दुनिया भर में क्षय रोग (टीबी) के मामलों में काफी भिन्नता है। सबसे ज्यादा मरीज निम्न और मध्यम आय वाले देशों खासतौर पर अफ्रीका और एशिया में हैं।

डब्ल्यूएचओ की रिपोर्ट बताती है कि वर्ष 2023 में 45 फीसदी टीबी के नए मरीज दक्षिण-पूर्व एशिया के देशों में पाए गए। इसके बाद 24 फीसदी अफ्रीकी और 17 फीसदी मरीज पश्चिमी प्रशांत क्षेत्र में मिले। अगर दक्षिण पूर्व एशिया की बात करें तो भारत, इंडोनेशिया और फिलीपींस विश्व स्तर पर टीबी के सबसे अधिक मामलों वाले देशों में शामिल हैं।

नई दिल्ली स्थित केंद्रीय टीबी प्रभाग (सीटीडी) के मुताबिक, साल 2022 में 24.2, 2023 में 25.5 और 2024 में 26.07 लाख नए मरीजों की पहचान हुई जो पूरी दुनिया में सबसे अधिक संख्या भी है। यही कारण है कि करीब सात वर्ष पहले प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने भारत को टीबी से मुक्ति दिलाने के लिए साल 2025 तक लक्ष्य घोषित किया जो वैश्विक स्तर पर 2030 की तुलना में पांच साल पहले है।

इस संकल्प को पूरा करने के लिए हर जिले में अभियान चल रहे हैं। इसका परिणाम है कि 2015 से 2023 के बीच भारत में टीबी मामलों में
17.7%
की गिरावट दर्ज की गई है, जो वैश्विक औसत 8.3% की तुलना में दोगुनी से भी अधिक है। इसी तरह टीबी के ना पता लग पाने वाले मामलों यानी मिसिंग केसों की संख्या 2015 में 15 लाख से घटकर 2023 में 83% की कमी के साथ 2.5 लाख रह गई है। निक्षय मित्र, पोषण आहार और निक्षय पोर्टल जैसी सरकार की पहलों को इस बदलाव का श्रेय जाता है।

म‍िर्जापुर के ज‍िला अस्‍पताल में मरीजों को पोषण पोटली के साथ दवा और दूसरी स्वास्थ्यवर्धक सामग्री देते स्‍वास्‍थ्‍यकर्मी। फाइल फोटो,साभार स्‍वास्‍थ्‍य व‍िभाग।

केंद्रीय स्वास्थ्य मंत्रालय की रिपोर्ट बताती है कि साल 2017 से 2019 के बीच भारत के ग्रामीण क्षेत्रों पर ध्यान बढ़ाने से टीबी के नए मरीजों की संख्या में कई गुना इजाफा हुआ है। 2017 में पूरे देश में कुल 18.27 लाख टीबी मरीज मिले जिनमें 4,70,185 रोगी ग्रामीण और आदिवासी क्षेत्रों से थे लेकिन 2018 में कुल 21.52 में से 9.05 और 2019 में कुल 21.46 में से 11.59 लाख मरीज सामने आए। 2023 में यह संख्या 16 लाख तक पहुंच गई है क्योंकि भारत सरकार ने ग्रामीण क्षेत्रों में 50 हजार की आबादी पर एक माइक्रोस्कोपी केंद्र (डीएमसी) स्थापित किया है जो पहले एक लाख से अधिक की आबादी पर होता था।

ट्यूबरकुलोसिस या टीबी एक संक्रामक बैक्टीरियल रोग है, जो माइकोबैक्टीरियम ट्यूबरकुलोसिस नामक जीवाणु के कारण होता है। भारत में यह बीमारी मुख्य रूप से फेफड़ों को प्रभावित करती है, हालांकि यह शरीर के किसी भी हिस्से में फैल सकती है, जैसे रीढ़ की हड्डी, किडनी, या ब्रेन तक।

टीबी एक व्यक्ति से दूसरे व्यक्ति में हवा के माध्यम से फैलती है। जब कोई संक्रमित व्यक्ति खांसता, छींकता या जोर से बोलता है, तो उसकी सांस से निकले बेहद बारीक ड्रॉपलेट्स हवा में तैरने लगते हैं। यही ड्रॉपलेट्स पास मौजूद लोगों को संक्रमित कर सकते हैं।

टीबी के मुख्य तौर पर दो प्रकार होते हैं जिन्हें सक्रिय टीबी और लेटेंट टीबी के नाम से जाना जाता है। यह शरीर के किसी भी हिस्से को प्रभावित कर सकती है हालांकि भारत में सालाना मिलने वाले नए मरीजों में 80 फीसदी से ज्यादा फेफड़ों से प्रभावित टीबी संक्रमित मिल रहे हैं। इसलिए भारत में फेफड़े का टीबी सबसे आम है।

वर्ष 2018 में भारत ने घोषणा की थी कि वह वर्ष 2025 तक देश को क्षय रोग (टीबी) से मुक्‍त कर देगा—यह विश्‍व स्‍वास्‍थ्‍य संगठन (WHO) की तय समयसीमा से पांच साल पहले का लक्ष्‍य था। लेकिन सरकारी आंकड़े बताते हैं कि इस दिशा में घोषित रणनीति के लिए जरूरी बजट का केवल दो-तिहाई ही आवंटित किया गया।

आंकड़ों की हकीकत

वर्ष 2016 में जब नेशनल स्‍ट्रेटेजिक प्‍लान (NSP) लागू नहीं हुआ था, तब देश में प्रति 1 लाख आबादी पर 211 टीबी के मामले थे। लेकिन 2022 तक यह आंकड़ा घटकर सिर्फ 199 प्रति लाख ही हो सका। टीबी उन्मूलन का मतलब है कि यह आंकड़ा 44 प्रति लाख तक लाया जाए।

टीबी से मृत्यु दर को भी 2025 तक 32 से घटाकर 3 प्रति लाख करना लक्षित था, लेकिन 2022 में यह दर 23 मृत्यु प्रति लाख रही, जो लक्ष्‍य से बहुत दूर है। ये आंकड़े India TB Report 2024 से लिए गए हैं।

बजट की हकीकत

सरकारी आरटीआई के जवाब में इंड‍ियास्‍पेंड को मिली जानकारी के अनुसार, 2014-15 से 2016-17 के बीच टीबी देखभाल और रोकथाम पर ₹1,990 करोड़ खर्च किए गए थे। इसके बाद यह खर्च चार गुना बढ़ा, लेकिन फिर भी योजना से पीछे रहा।

दरअसल, सरकार ने 2017 से 2020 तक तीन सालों के लिए ₹12,327 करोड़ की जरूरत बताई थी, लेकिन आवंटन सिर्फ ₹8,313 करोड़ किया गया यानी करीब 33% कम।

मह‍िलाओं के मामले में ये बीमारी और गंभीर क्‍यों?

वैसे तो ये बीमारी गंभीर है। लेक‍िन मह‍िलाओं के मामले में ये कई दूसरे पहलुओं को लेकर और गंभीर हो जाती है। किंग जॉर्ज मेडिकल यूनिवर्सिटी लखनऊ (केजीएमयू) की हाल ही में प्रकाशित एक र‍िसर्च र‍िपोर्ट भी इसी ओर इंग‍ित करती है। दी जर्नल ऑफ ऐसोस‍िऐशन ऑफ चेस्‍ट फिजिशियंस में प्रकाशित इस अध्ययन के मुताबिक, टीबी से पीड़ित 10 प्रतिशत विवाहित महिलाओं की शादियां तलाक पर खत्म हो गईं, खासकर युवतियों के मामले में यह आंकड़ा और भी अधिक है। स्टडी बताती है कि 40 फीसदी अविवाहित महिलाओं को टीबी की जानकारी सामने आने के बाद विवाह प्रस्ताव ही नहीं मिला। यही नहीं, 25 प्रतिशत महिलाएं खुद को अपने ही घर में अकेला महसूस करने लगीं, जबकि 18 प्रतिशत को पत‍ि या ससुराल वालों ने ठुकरा द‍िया।

मध्‍य प्रदेश में शि‍होर ज‍िलो में टीबी वार्ड की तस्‍वीर। फोटो- म‍िथ‍िलेश धर दुबे।

अध्ययन में किंग जॉर्ज चिकित्सा विश्वविद्यालय, लखनऊ (केजीएमयू) के डॉट्स केंद्र में राष्ट्रीय क्षय रोग उन्मूलन कार्यक्रम (एनटीईपी) के तहत दर्ज 960 नई महिला टीबी मामलों का विश्लेषण किया गया। इससे पता चला कि इस बीमारी का असर चिकित्सीय लक्षणों से कहीं आगे तक जाता है, जो एक गहरी जड़ें जमाए सामाजिक कलंक को उजागर करता है।

केजीएमयू में श्वसन चिकित्सा की प्रमुख शोधकर्ता डॉ. ज्योति बाजपेयी बताती हैं, "हमारा अध्ययन दर्शाता है कि टीबी केवल एक चिकित्सीय चुनौती नहीं है। यह एक गहरी जड़ें जमाए सामाजिक समस्या है, खासकर महिलाओं के लिए। जहाँ चिकित्सा समुदाय उपचार पर ध्यान केंद्रित करता है, वहीं हम उन मनोवैज्ञानिक, सामाजिक और आर्थिक कठिनाइयों को नज़रअंदाज़ नहीं कर सकते जो महिलाओं के जीवन को तबाह कर देती हैं।"

शोध में पाया गया कि लगभग 70 प्रतिशत प्रतिभागी (लगभग 664 महिलाएं) टीबी की गंभीरता और उपचार पूरा करने की आवश्यकता के बारे में जानती थीं। लेक‍िन 50 प्रतिशत कलंक के डर से अपनी बीमारी का खुलासा करने से डरती थीं। परिणामस्वरूप 44 प्रतिशत ने अपनी सामाजिक गतिविधियां कम कर दीं और अलग-थलग पड़ गईं।

थोड़ी उम्रदराज मह‍िलाओं (45 वर्ष और उससे अधिक आयु) को भी चुनौतियों का सामना करना पड़ा। 16 प्रतिशत 154 विधवाओं ने इलाज के बाद गंभीर सामाजिक कठिनाइयों के बारे बताया। आश्चर्यजनक रूप से कम आय से संबंध रखने मह‍िलाओं की तुलना में मध्यम और उच्च-मध्यम वर्गीय परिवारों की महिलाएं टीबी की वजह से होने वाली सामाजिक समस्‍या को लेकर चिंत‍ित हैं। अध्ययन में यह भी पाया गया कि पुरुष और मह‍िला के बीच इलाज को भी लेकर अंतर पाया गया। दोनों पर‍िवार से म‍िलने वाले सहयोग में भी अंतर द‍िखा।

अध्ययन की सह-लेखिका डॉ. कंचन श्रीवास्तव बताती हैं, "हमने एक महत्वपूर्ण लैंगिक अंतर देखा। जहां पुरुष टीबी रोगियों को आमतौर पर अपनी पत्नियों से देखभाल और समर्थन म‍िलता था तो वहीं उसकी तुलना में महिला रोगियों न समर्थन म‍िलता द‍िखा और ही सम्‍मान।"

अध्‍ययन में शामिल डॉ. शुभजीत रॉय ने इन मुद्दों से निपटने की तात्कालिकता पर जोर दिया।

"ये निष्कर्ष महत्वपूर्ण हैं क्योंकि ये इस बात पर जोर देते हैं कि सिर्फ बीमारी का इलाज करना ही काफी नहीं है। हमें एक समग्र दृष्टिकोण की जरूरत है जो भेदभाव के मूल कारणों से निपटे और महिलाओं के लिए मजबूत सामाजिक सुरक्षा तंत्र प्रदान करे।"

कलंक को कम करने और उपचार के परिणामों को बेहतर बनाने के लिए, शोधकर्ता ज्यादा जागरूकता और सामुदायिक समर्थन की वकालत करते हैं।

"इस महामारी को वास्तव में समाप्त करने और इससे जुड़े कलंक को दूर करने के लिए हमारी सामुदायिक शिक्षा को इस बीमारी के बारे में फैली झूठी बातों का खंडन करना होगा। हमें रोग का शीघ्र पता लगाने को प्रोत्साहित करना होगा और सबसे महत्वपूर्ण बात, उपचार का पूरा कोर्स पूरा करने पर जोर देना होगा।" डॉ. ज्योति कहती हैं।

अध्ययन में टीबी से पीड़ित महिलाओं के लिए विशेष रूप से चिकित्सा सेवाएं और सहायता समूह स्थापित करने की सिफारिश की गई है। एक अन्य शोधकर्ता डॉ. अपूर्व नारायण कहते हैं, "महिलाओं के लिए चिकित्सा सेवाएं और सहायता समूह स्थापित करना परिवर्तनकारी हो सकता है। ये मंच मरीजों को मनोवैज्ञानिक पीड़ा से निपटने, साथियों का सहयोग बढ़ाने और सामाजिक बाधाओं को दूर करने में उनकी मदद कर सकते हैं।"

नेशनल हेल्‍थ म‍िशन उत्‍तर प्रदेश सोशल मीड‍िया के माध्‍यम से लोगों को जागरूक कर रहा।

इसके अलावा, शोधकर्ताओं ने कहा कि वित्तीय सहायता और कौशल विकास की पेशकश करने वाले सामाजिक-आर्थिक सशक्तिकरण कार्यक्रम महिलाओं को उनकी स्वतंत्रता हासिल करने, उपचार का अनुपालन सुनिश्चित करने और सम्मान के साथ अपने समुदायों में पुनः एकीकृत होने में मदद करने के लिए महत्वपूर्ण हैं।

वर्ष 2023 में आई डब्ल्यूएचओ की र‍िपोर्ट के अनुसार 2022 में दुनिया में टीबी की दर 133/1 लाख थी, जिसमें भारत का योगदान 27% था। दुनिया भर में महिलाओं का टीबी बोझ 33% है, जबकि भारत में यह 39.1% तक पहुँच गया है। भारत में लगभग 9.22 लाख महिलाएं और 14.33 लाख पुरुष इस वर्ष संक्रमित हुए। भारत सरकार की र‍िपोर्ट भी यही कहती है।

वैश्विक स्तर पर, महिलाओं में टीबी के कारण होने वाली मौतें एचआईवी-नकारात्मक लोगों में 32% और एचआईवी पॉजिटिव लोगों में 35% दर्ज की गई हैं। भारत में, 2022 में उपचार पर रखी गई महिलाओं में मृत्यु दर 3.1% थी। आमतौर पर, भारत में पुरुष टीबी से अधिक प्रभावित होते हैं।

इंडियन जर्नल ऑफ ट्यूबरकुलोसिस में प्रकाशित एक अध्ययन के अनुसार महिला टीबी रोगियों को कलंक समझा जाता है और उन्‍हें ज्‍यादा परेशानी का सामना करना पड़ता है। मह‍िलाएं सामाजिक स्‍तर पर स्‍वास्‍थ्‍यकर्मी या पुरुष मरीज की तुलना में 13 गुना अधिक परेशानी का सामना करती हैं। यह एक ऐसा तथ्य है जिसके लिए सह-लेखक, गांधी मेडिकल कॉलेज, भोपाल के पल्मोनरी मेडिसिन विभाग के विश्वास गुप्ता ने पुरुष-प्रधान समाज में महिलाओं को हर तरह से पीड़ित होने के लिए जिम्मेदार ठहराया।

गुप्ता कहते हैं, "कई परिवार महिलाओं के स्वास्थ्य पर खर्च नहीं करना चाहते, इसलिए बीमार पड़ने वाली महिलाओं को कलंकित माना जाता है क्योंकि उनका होना या न होना वास्तव में मायने नहीं रखता।"

जिन लोगों को इस बीमारी के बारे में कम जानकारी होती है, उनके कलंकित होने की संभावना तीन गुना अधिक होती है, जिसके बारे में गुप्ता ने कहा कि ऐसा संभवतः "इसलिए हो सकता है क्योंकि वे पूर्वाग्रहों को व्यक्त करने वाले लोगों से अपना बचाव नहीं कर सकते"। अनिवार्य रूप से इलाज के बाद सामाजिक और आर्थिक परिणामों का उन्हें अधिक डर हो सकता है।

लखनऊ से लगभग 130 क‍िलोमीटर दूर लखीमपुर खीरी में रहने वालीं 32 वर्षीय सीमा यादव (बदला हुआ नाम) की कहानी म‍िर्जापुर की प्र‍िया से ब‍िल्‍कुल अलग है। वे टीबी से जुड़ी उन सामाजिक रूढ़ियों को चुनौती देती हैं जिनमें महिलाओं को अक्सर भेदभाव और अकेलेपन का सामना करना पड़ता है।

पूजा को दो महीने पहले टीबी की पुष्टि हुई। उनकी शादी को तीन महीने हो चुके हैं। लेकिन उन्होंने न तो घबराहट दिखाई और न ही हार मानी। उनकी ससुराल ने उनका पूरा साथ दिया।

उनके पति बताते हैं, “सीमा समय पर दवाइयां लेती हैं। हमेशा मास्‍क पहनती हैं और जरूरी सभी एहतियात बरतती हैं। समाज में भी किसी ने दूरी नहीं बनाई। पूरा परिवार साथ रहता है।”

सीमा खुद बताती हैं क‍ि उन्हें उम्मीद है कि जल्द ही वे पूरी तरह ठीक हो जाएंगी।

“अगर परिवार साथ हो तो आप और मजबूत बन जाते हैं। टीबी को हराना मुमकिन है। बस डरना नहीं है।” सीमा अपनी बात खत्‍म करती हैं।