बाली द्वीप, सुंदरबन: इतवार 21 सितम्बर 2025 की दोपहर दिनेश मंडल (बदला हुआ नाम) मातला नदी किनारे पेड़ की छाँव में बैठ अपने मोबाइल फ़ोन पर दोस्तों के साथ फ्री फायर गेम खेल रहे थे। सभी की तरह इतवार उनके लिए छुट्टी का दिन था, स्कूल से नहीं बल्कि खेत और एक मछुआरे के काम से।

15 वर्षीया दिनेश ने शैक्षिक वर्ष 2023-24 में सातवीं कक्षा 68 प्रतिशत अंको के साथ पास की थी और उसके बाद उन्होंने विद्यालय में आठवीं कक्षा में दाखिला लिया था लेकिन दाखिला लेने के तीन महीने बाद ही दिनेश ने पढ़ाई छोड़ दी कारण था घर में एक कमाऊ हाथ बनना।

दिनेश सुंदरबन द्वीप श्रृंखला के गोसाबा ब्लॉक के अंतर्गत आने वाले बाली-1 द्वीप के निवासी है और उनके पिता अंडमान निकोबार द्वीप में मजदूरी कर घर का खर्च चलाते है। दिनेश बताते हैं कि उनके पिता पढ़ाई न छुड़वाने के पक्ष में कभी नहीं थे लेकिन यास तूफ़ान के बाद आयी त्रासदी ने उन्हें ये फैसला लेने पर मजबूर कर दिया। आपको बताते चलें कि 7 मई 2021 को ताउते तूफ़ान ने अपना रंग दिखाना शुरु किया। इसी दौरान भारतीय मौसम विभाग ने बंगाल की खाड़ी में कम दबाव का क्षेत्र बनने की चेतावनी जारी की। इस कम दबाव की वजह से पैदा हुआ तूफान यास

“यास के बाद कुछ महीनो के लिए मैं अपने पिता के साथ अडंमान निकोबार गया था जहा पिता के साथ ही मैंने दिहाड़ी मजदूरी की। जो पैसे वह कमाए थे वो कुछ दिन चले और मेरे बूढ़े दादा दादी की दवाइयों में बहुत पैसा लग जाता है और साथ ही साथ हमने जो कुछ जमीन बटाई पर ले रखी है उसमे भी बहुत फायदा नहीं होता और क्युकी अब मिटटी में लून (नमक) ज्यादा है तो घर के खाने के लिए चावल निकालना मुश्किल है. यही सब कारण है कि मै पढ़ाई छोड़ घर काम कर अपने पिता की मदद कर रहा हूँ,” दिनेश कहते है।

हड्डियों के ढांचे में बंधी हुई दिनेश की माँ कुंती अपने घर की चिंताओं में अपनी उम्र भी भूल चुकी है। पैरों में घिसी हुई कई बार सिली गयी एक हवाई चप्पल और साड़ी के एक किनारे से अपने तन को ढकने की असफल कोशिश करते हुए कुंती बताती हैं कि जब उनकी शादी हो रही थी तो उन्होंने भी एक सपना देखा था की माँ बाप के घर की तरह उनके ससुराल में आर्थिक दिक्कत नहीं होगी। “मैंने सोचा तो बहुत कुछ था की घर संपन्न होगा और सब ठीक रहेगा लेकिन यास के बाद यहां स्थितियां विपरीत होती चली गयी और उसी में चला गया अपने बेटे को जज बनाने का सपना,” कुंती कहती है।

गोसाबा के बाली गाँव में मछली बेचती हुई एक माँ जिन्हे अपने बेटे की पढ़ाई छुड़वा कर काम पर लगवाना पड़ा। फोटो सौरभ शर्मा

शर्मीले स्वभाव वाली कुंती आगे बताती है कि उनकी एक बेटी भी है जो तीसरी या पांचवी कक्षा (कुंती भूल चुकी हैं) में एक बंगाल मध्यम स्कूल में पढ़ने जाती है।

“बेटे को तो पढ़ा नहीं पायी लेकिन कोसिस है बेटी को पढ़ा दू वो बहुत छोटी है और स्कूल जाने से कम से कम उसे एक समय का अच्छा खाना तो मिल जाता है। लड़किया पढ़ने के लिए नहीं बनी होती है और उन्हें घर द्वार का काम ही करना चाहिए लेकिन मै चाहती हूँ की वो पढ़े और टीचर या फिर आंगनवाड़ी में काम करे,” कुंती बताती है।

कुंती आगे कहती है “आप जानते है कि लड़किया सुरक्षित नहीं हैं इसलिए अगर मेरी बेटी के लिए कोई अच्छा रिश्ता दीखता है उम्र होने पर तो मैं पढ़ाई की चिंता नहीं करुँगी और उसकी शादी करवा दूँगी।”

कुंती आगे कहती है की गाँव में जिस स्कूल में उनकी बेटी पढ़ रही है वो स्कूल भी बहुत अच्छा नहीं है लेकिन क्युकी उनके पास पैसे नहीं है तो वो उसे वही पढ़ने भेजती है।

“उस स्कूल में एक टीवी (स्मार्ट बोर्ड) पर पढ़ाई कराई जाती है लेकिन आये दिन बिजली न रहने के कारण वो भी आये दिन नहीं चलता और पढाई के नाम पर सिर्फ खानापूर्ति होती है,” कुंती कहती हैं।

इंडियास्पेंड हिन्दी ने उस स्कूल के प्रधानाध्यापक से बात करने की कोशिश की लेकिन उन्होंने बात करने से इंकार कर दिया। हालांकि इंडियास्पेंड हिंदी ने उस स्कूल की छत पर दो छोटी सोलर प्लेट्स धुल फांकती हुई देखी लेकिन उस पर बात करने के लिए रोइ राज़ी नहीं हुआ।

“पढाई में मैं बहुत अच्छा नहीं कर रहा था लेकिन फिर भी मैं हायर सेकेंडरी तो करना ही चाहता था. घर की स्थितियां साथ नहीं दे रही थी और हमारे खेतो में लगातार नुक्सान हो रहा था इसलिए घर में मै किसी तरह से कुछ हाथ बटा पाव तो मैंने पढाई छोड़ दी,” दिनेश बताते हैं।

प्रणॉय जेना जो बालीपुर प्राथमिक विद्यालय में अध्यापक है बताते हैं, “सुंदरबन में समस्याओ की कमी नहीं। कभी तूफ़ान आता है तो कभी सूखा पड़ जाता है। जब सब कुछ सही रहता है तो गांव में बिजली नहीं आती। ऐसे में बच्चो की पढ़ाई पर ख़ासा असर पड़ता है, लम्बे समय के लिए विद्यालय बंद रहते है और सबसे बड़ी समस्या यह है की बाढ़, तूफ़ान या किसी भी तरह की प्राकृतिक आपदा के समय स्कूलों को शेल्टर होम की तरह इस्तेमाल किया जाता है जिसकी वजह से विद्यालयों को बच्चो की शिक्षा के लिए बंद रखना पड़ता है और ऐसे में बच्चो का पाठ्यक्रम समय से पूरा नहीं हो पाता। हमने मसहूस किया है की ऐसे में बच्चो के मानसिक विकास पर भी थोड़ा बहुत असर पड़ता है।”

काली टी-शर्ट में प्रणॉय जेना जो बालीपुर प्राथमिक विद्यालय में अध्यापक के तौर पर कार्यरत हैं।

यूनिसेफ का अनुमान है कि जलवायु संबंधी घटनाओं ने 2024 में कम से कम 24.2 करोड़ बच्चों की स्कूली शिक्षा को प्रभावित किया। दक्षिण एशिया में यह संकट और भी गंभीर था, जहाँ 12.8 करोड़ छात्र प्रभावित हुए। भारत में, अकेले लू से 5.48 करोड़ बच्चे प्रभावित हुए। यह देश जलवायु संबंधी झटकों के प्रति अत्यधिक संवेदनशील है और यूनिसेफ चिल्ड्रन क्लाइमेट रिस्क इंडेक्स में 163 में से 26वें स्थान पर है।

वर्ल्ड बैंक की एक रिपोर्ट के अनुसार, यदि वैश्विक तापमान में 3°C की वृद्धि होती है, तो 2024 में 10 वर्ष के बच्चे को अपने जीवनकाल में 1970 की तुलना में कहीं अधिक जलवायु-जनित आपदाओं का सामना करना पड़ेगा - दोगुनी संख्या में जंगल की आग और उष्णकटिबंधीय तूफान, तीन गुना अधिक नदी बाढ़, चार गुना अधिक फसल विफलताएं, तथा पांच गुना अधिक सूखा।

लड़कियों की पढ़ाई में सुधार लाने और उन्हें लंबे समय तक स्कूल में बने रहने में मदद करने के लिए, 2012 में पश्चिम बंगाल सरकार ने कन्याश्री प्रकल्प योजना शुरू की, जो 13-18 वर्ष की अविवाहित लड़कियों को वार्षिक छात्रवृत्ति प्रदान करती है। इससे शुरुआत में स्कूल छोड़ने वाली लड़कियों की संख्या कम करने में मदद मिली। लेकिन चक्रवात अम्फान और यास के बाद से, स्कूल में अभी भी पढ़ने वाली और छात्रवृत्ति लेने वाली लड़कियों की संख्या में कुछ गिरावट देखी गयी है।

2019-21 के सरकारी आंकड़ों से पता चलता है कि पश्चिम बंगाल में कानूनी न्यूनतम उम्र से कम उम्र में लड़कियों की शादी की दर भारत में सबसे अधिक है। 2007-2008 में यह दर दूसरी सबसे अधिक थी। 2019-21 के आंकड़ों से पता चलता है कि पश्चिम बंगाल में छह से 10 वर्ष की आयु की 99% लड़कियां स्कूल जाती हैं, जो 15-17 आयु वर्ग के लिए 77% तक गिर जाती है।

दिनेश के घर से कुछ 400 मीटर की दूरी पर चिन्मय मंडल एक मोबाइल रिचार्ज की दुकान चलाते हैं। चिनमय ने 2021 हायर सेकेंडरी यानी इंटर की परीक्षा पास कर कर ली थी और उसके बाद उन्होंने कैनिंग स्थित एक डिग्री कॉलेज में स्नातकोत्तर होने के लिए दाखिला लिया था लेकिन उसी वर्ष सुंदरबन में यास तूफ़ान आया जिसकी वजह से सुंदरबन के द्वीपों में काफी नुक्सान हुआ था और उसी कारणवस चिनमय को अपनी पढ़ाई छोड़नी पड़ी थी।

“मैं भी पढ़ कर कुछ करना चाहता था लेकिन हमारे द्वीपों पर आये दिन कुछ न कुछ घटना होती रहती है. कभी तूफ़ान आता है तो कभी बिन मौसम बरसात होती है। हमारी खेती में भी हमें कोई ख़ास फायदा नहीं होता है इसी कारण मुझे अपने घर की आर्थिक स्थिति को देखते हुए पढ़ाई छोड़ने का फैसला लेना पड़ा,” चिन्मय बताते हैं।

अपनी मोबाइल रिचार्ज की दूकान पर बैठे हुआ चिन्मय मंडल। फोटो: सौरभ शर्मा

सुंदरबन द्वीप समूहों में बाघ के हमले और बढ़ते तूफ़ान के अलावा दूसरी सबसे बड़ी समस्या जमीन और पानी का खारा होना है जो कि स्थानियो के मुताबिक़ तूफानों के आने के बाद भू में खारापन बढ़ा है जिसकी वजह से फसलों की पैदावार पर काफी असर पड़ा हैं।

सुंदरबन में पर्यावरण बदलाव की वजह से काफी चुनौतियां बढ़ी हैं जिसकी वजह से यहाँ पे रह रहे लोगो को नयी नयी चुनौतियों का सामना करना पड़ रहा है जिनमे से एक प्राथमिक, माध्यमिक शिक्षा भी हैं।

तूफानों, बाढ़ और किसी भी अन्य प्राकृतक आपदाओं के आने पर यहाँ के विद्यालयों को शेल्टर कैम्प्स में तब्दील कर दिया जाता है जिनकी वजह से विद्यालय कई दिनों तक बंद रहते है।

आपको बताते चलने कि सुंदरबन क्षेत्र में स्कूलों के बंद रहने के दिनों की संख्या हर साल लगातार बदलती है और यह करिब 2018 से 2025 तक बड़े पैमाने पर मौसम और जलवायु आपदाओं के कारण काफी प्रभावित हुई है। विशेष रूप से दक्षिण 24 परगना जिले के सघन द्वीपों में बाढ़, चक्रवात, भारी वर्षा, और हाल के वर्षों में हीटवेव के कारण स्कूलों को अचानक और लगातार कई दिनों तक बंद रखना पड़ा है। उदाहरण स्वरूप, 2024-25 शैक्षणिक वर्ष में हीटवेव की वजह से पूरे राज्य में 13-14 जून को दो दिन की छुट्टी घोषित करनी पड़ी थी और मई के महीने से ग्रीष्म अवकाश को एक सप्ताह पूर्व (30 अप्रैल) से शुरू कर दिया गया था, यह फैसले अत्यधिक गर्मी और छात्रों के स्वास्थ्य की रक्षा के लिए किए गए थे।

चक्रवात के समय स्कूल कुछ दिनों के लिए ही नहीं, बल्कि कई बार हफ्तों तक बंद रहते हैं। अक्टूबर 2024 में 'साइक्लोन डाना' के चलते दक्षिण 24 परगना समेत 9 जिलों में 23 से 26 अक्टूबर (4 दिन) तक विद्यालय बंद रहे थे। वर्ष 2021 के दौरान चक्रवात 'यास' आने के बाद सुंदरबन के कई ब्लॉकों में विद्यालय औसतन 10 से 15 दिनों तक नहीं खुल सके थे क्योंकि स्कूलों को राहत शिविरों के रूप में इस्तेमाल करना पड़ा था। इसी तरह 2020 में 'अम्फान' चक्रवात के दौरान भी औसतन 10-12 दिनों तक स्कूल बंद रहे थे। इसी तरह आई बाढ़ और जलभराव के चलते आमतौर पर हर साल मानसून के दौरान 6 से 8 दिनों तक स्कूलों में पढ़ाई बाधित रहती है।

नोट: यह टेबल समाचार खबरों पर आधारित डाटा से बनाई गई है।

सरकार का अनुमान है कि अकेले पश्चिम बंगाल में लगभग 2.21 लाख हेक्टेयर फसलों और 71,560 हेक्टेयर बागवानी को नुकसान हुआ है (प्रेस ट्रस्ट ऑफ इंडिया 2021)। लवणता प्रवेश — एक प्रक्रिया जिसके द्वारा खारा पानी मीठे पानी वाले क्षेत्रों में प्रवेश करता है — ने खेतों को अपूरणीय क्षति पहुंचाई है, जिससे वे आने वाले मौसमों के लिए खेती योग्य नहीं रह गए हैं। फसल के मौसम में पहुंचकर आआस ने जलीय कृषि उद्योग को भी भारी नुकसान पहुंचाया है। कथित तौर पर, चक्रवात के दौरान 12,000 टन झींगे नष्ट हो गए, जिससे लगभग 1,000 करोड़ रुपये का आर्थिक नुकसान हुआ (टाइम्स न्यूज नेटवर्क 2021)। इसके अलावा, पश्चिम बंगाल के राज्य मत्स्य विभाग के एक सर्वेक्षण में बताया गया है कि इस साल यास के कारण आई बाढ़ और उसके परिणामस्वरूप हुए विनाश के कारण लगभग 30% नावें नहीं चलेंगी (चक्रवर्ती और फड़ीकर 2021)।

गोसाबा ब्लॉक के साढ़ूपुर स्थित रजत जुबली हाई स्कूल। फोटो: सौरभ शर्मा।

गोसाबा ब्लॉक के ही रजत जुबली (jubilee) गाँव (द्वीप) की रहने वाली ज्योति तरफ़दार दो बच्चो की माँ है जिनकी उम्र 7 और 9 वर्ष हैं. ज्योति के पति एक मछुआरे है और ज्योति अब अपने बच्चो के साथ हरियाणा के गुरुग्राम ने रहती है जहां वे घरो में चूल्हा चौका का काम कर अपनी जीविका चला रही है। ज्योति अपने बच्चों को पढ़ाना तो चाहती है लेकिन उनके पास उचित कागज़ ना होने के कारण उन्हें बच्चो को स्कूल में दाखिला दिलाने में दिक्कत हो रही है और ऐसे में उनके बच्चे एक एनजीओ के सहारे शाम को एक अस्थायी स्कूल में पढ़ रहे हैं।

“मेरे परिवार के पास खेत नहीं है और हो भी आमदनी का ज़रिया था वो नदी में मछली मारने और दिहाड़ी काम था था इसीलिए मैंने और मेरे पति ने बहार काम करने की सोची। हमारे गाँव में आए दिन कुछ न कुछ समस्या रहती है और पहले की तरह अब मछली भी छिछले पानी में आसानी से नहीं मिलती। अभी तो बच्चों का एडमिशन नहीं हो पाया है लेकिन जल्दी ही हो जायेगा मेरे पति कागज़ इकठ्ठा करने में लगे हुए है,” ज्योति बताती है।

नोट: यह स्टोरी इंटरन्यूज़ के अर्थ जर्नलिज्म नेटवर्क की नॉन इकनोमिक लॉस एंड डैमेज ग्रांट के सहयोग से रिपोर्ट की गई है। इस स्टोरी को करने में सुंदरबन से अमित नायक ने बंगाली से हिंदी में अनुवाद करने में मदद की है