पटना: इस साल जून महीने से ही बाढ़ की आपदा का सामना कर रहे बिहार के जल संसाधन मंत्री संजय कुमार झा का मानना है कि बिहार की बाढ़ का स्थायी समाधान तब तक मुमकिन नहीं है जब तक नेपाल में प्रमुख नदियों पर हाईडैम नहीं बन जाते और इसके लिए केंद्र सरकार को नेपाल के साथ चल रही वार्ता में तेजी लानी चाहिए।

उत्तर बिहार को तबाह करने के बाद इन दिनों बाढ़ गंगा के तटीय इलाकों में अपना असर छोड़ रही है। मगर बिहार के लिए यह कोई नयी घटना नहीं है। राज्य सरकार के आपदा प्रबंधन विभाग की वेबसाइट पर उपलब्ध आंकड़ों के मुताबिक राज्य में 1979 से लगातार हर साल बाढ़ आ रही है जिसके कारण राज्य के 38 में से 28 जिले बाढ़ से बुरी तरह प्रभावित होते हैं।

मगर राज्य सरकार इस हर साल आने वाली बाढ़ का अपनी सीमा में समाधान निकालने के बदले हर साल नेपाल और फरक्का नदी को जिम्मेदार ठहरा देती है। जबकि जानकारों का मानना है कि नेपाल से अमूमन 200 धाराएं बिहार में प्रवेश करती हैं, अगर हाईडैम ही समाधान है, तो भी इन तमाम धाराओं पर डैम बनाना मुमकिन नहीं है। इसलिए, राज्य सरकार को अपनी सीमा में बाढ़ की आपदा से मुक्ति के उपाय तलाशने चाहिए।

"बाढ़ को समझिए" शीर्षक से बिहार के जल संसाधन मंत्री संजय कुमार झा ने 13 जुलाई 2021 को तीन ट्वीट करते हुए लिखा कि नेपाल से बिहार आने वाली प्रमुख नदियों पर जब तक बांध नहीं बनेंगे बिहार की बाढ़ का स्थायी समाधान नहीं हो सकता है। उन्होंने फरक्का नदी पर बने बराज को भी बिहार में हर साल आने वाली भीषण बाढ़ के लिए जिम्मेदार ठहराया और एक तरह से बिहार की बाढ़ की जिम्मेदारी नेपाल और केंद्र सरकार पर डाल दी।

क्या है बिहार की बाढ़ की वजहें

बिहार की बाढ़ के संकट को समझने के लिए हमें इन आंकड़ों से होकर गुजरना चाहिए। बिहार सरकार मानती है कि राज्य की 76% आबादी और राज्य के कुल भौगोलिक क्षेत्र का 73% हिस्सा बाढ़ से प्रभावित है। वहीं आंकड़े यह भी बताते हैं कि देश के कुल बाढ़ पीड़ित क्षेत्र का 16.5% बिहार में पड़ता है और कुल बाढ़ पीड़ित आबादी का 22.1% इसी राज्य के लोग हैं। राज्य के कुल 38 जिलों में से 28 को बाढ़ प्रभावित घोषित किया गया है।

उत्तर बिहार में हर साल आने वाली बाढ़ की प्रमुख वजह नेपाल से आने वाली गंडक, बागमती, कमला, अवधारा समूह और कोसी जैसी नदियों में बारिश के महीने में आने वाला अत्यधिक पानी और गाद है। मगर यह भी सच है कि महानंदा, सोन, गंगा और दूसरी बड़ी नदियां नेपाल से नहीं आतीं जबकि बाढ़ इन नदियों में भी हर साल आती है।

फरक्का बराज के बनने के बाद से बिहार में बाढ़ की आपदा बढ़ी है। पिछले 42 साल के उपलब्ध आंकड़े इस ओर इशारा करते हैं कि इस दौरान लगभग हर साल बिहार को बाढ़ का सामना करना पड़ा है।

वर्ष 1979 से लेकर अब तक के उपलब्ध आंकड़ों के हिसाब से पिछले 43 वर्षों में एक भी ऐसा साल नहीं गुजरा, जब बिहार में बाढ़ नहीं आई हो। इस बाढ़ की वजह से बिहार में हर साल औसतन 200 इंसानों और 662 पशुओं की मौत होती है और सालाना तीन अरब का नुकसान होता है। राज्य सरकार बाढ़ सुरक्षा के नाम पर हर साल औसतन रुपये 600 करोड़ खर्च करती है और बाढ़ आने के बाद राहत अभियान में अमूमन रुपये दो हजार करोड़ से अधिक की राशि खर्च होती है।

मगर जानकार यह भी मानते हैं कि बिहार में बाढ़ को नियंत्रित करने वाली तटबंध आधारित नीति ने भी बाढ़ के संकट को बढ़ाने का काम किया है। उत्तर बिहार की नदियों के जानकार एवं नमामि गंगा मिशन के सदस्य रह चुके लेखक दिनेश कुमार मिश्र कहते हैं कि आजादी के वक्त जब राज्य में तटबंधों की कुल लंबाई 160 किमी थी तब राज्य का सिर्फ 25 लाख हेक्टेयर क्षेत्र बाढ़ पीड़ित था। अब जब तटबंधों की लंबाई 3760 किमी हो गयी है तो राज्य की लगभग तीन चौथाई जमीन यानी 72.95 लाख हेक्टेयर भूमि बाढ़ प्रभावित है। यानी जैसे-जैसे तटबंध बढ़े बिहार में बाढ़ प्रभावित क्षेत्रफल भी बढ़ता चला गया।

वे मानते हैं कि आजादी के बाद उत्तर बिहार की नदियों पर बने तटबंध, इन इलाकों में रेल्वे और हाईवे के अनियोजित निर्माण और नदियों पर हो रहे अतिक्रमण की वजह से बाढ़ की स्थिति पिछले 50 वर्षों में विकराल हुई है। मगर सरकार इन वजहों पर विचार करने और अपनी सीमा में बाढ़ का समाधान करने के बदले नेपाल, बंगाल और केंद्र सरकार को जिम्मेदार बता कर पल्ला झाड़ने की कोशिश करती है।

नेपाल में कितने हाईडैम बनवायेगी बिहार सरकार

मंत्री संजय कुमार झा कहते हैं कि नेपाल में हाईडैम बनने से ही बिहार की बाढ़ का स्थायी समाधान होगा। मगर सवाल यह भी उठ रहे हैं कि बिहार सरकार नेपाल में कितने हाईडैम बनवायेगी क्योंकि नेपाल से बिहार आने वाली छोटी-बड़ी नदियों की संख्या अमूमन 200 से अधिक बतायी जाती है। इन सभी नदियों में हर साल बाढ़ की स्थिति उत्पन्न होती है। क्या बिहार सरकार सभी 200 धाराओं पर हाईडैम बनवायेगी?

भारत और नेपाल के बीच इस वक्त पांच नदियों पर हाईडैम बनाने के लिए बातचीत चल रही है, जिनमें तीन -- कोसी, गंडक और घाघरा -- बिहार में प्रवेश करती हैं। दिनेश कुमार मिश्र कहते हैं कि कोसी नदी पर हाईडैम की बात तो कई दशकों से चल रही है। मगर बांध बन नहीं पा रहा। ऐसे में हम कब तक बांध के भरोसे रहेंगे। बांध तभी बनेगा जब नेपाल से सहमति होगी। फिलहाल हमें अपनी सीमा के भीतर समाधान की तलाश करनी चाहिए।

नेपाल के बराहक्षेत्र में सप्तकोशी हाईडैम बनने की बात 1897 से चल रही है। वर्ष 1991 में इस मसले पर दोनों देशों में समझौता भी हुआ। मगर तब से आज तक बातचीत में हर बार किसी न किसी मसले पर गतिरोध उत्पन्न हो जा रहा है और इसी वजह से आज तक उस बांध की डिटेल्ड प्रोजेक्ट रिपोर्ट (डीपीआर) भी तैयार नहीं हुई है। 2020 के आम बजट में एक बार फिर भारत सरकार ने रुपये 750 करोड़ नेपाल को सप्तकोशी हाईडैम का डीपीआर तैयार करने के लिए आवंटित किये हैं।

नेपाल के बराहक्षेत्र के पास यही वह जगह है जहां कोसी पर हाईडैम का निर्माण प्रस्तावित है। फोटो- पुष्यमित्र

जहां तक गंडक की बात है, अभी उसको लेकर संभावना ही तलाशी जा रही है। इसके साथ ही कमला और बागमती नदी पर हाईडैम बनाने की संभावना की भी तलाश हो रही है। ऐसे में दिनेश कुमार मिश्र की यह बात सही लगती है कि अगर हम नेपाल में बनने वाले हाईडैम के भरोसे रहे तो बिहार को बाढ़ मुक्त होने में सदियां बीत जायेंगी, ऐसे में फिलहाल तो हमें अपनी सीमा में बाढ़ के समाधान के विकल्पों पर विचार करना चाहिए।

क्या सचमुच बांध बनने से बाढ़ से निजात मिल जाएगी?

बिहार में पर्यावरण के सवाल पर लंबे समय से समय के सरोकार पुस्तक के लेखक एवं गंगा मुक्ति आंदोलन, जेपी आंदोलन और बागमती बचाओ आंदोलन का नेतृत्व करने वाले सामाजिक कार्यकर्ता अनिल प्रकाश कहते हैं, "यह हैरत भरी बात है कि एक तरफ मंत्री महोदय बिहार की बाढ़ के लिए फरक्का बराज को जिम्मेदार ठहराते हैं, तो दूसरी तरफ नेपाल में बांध की वकालत भी करते हैं। उन्होंने तो फरक्का बराज के अनुभवों से ही समझ लेना चाहिए था कि नदियों को रोककर बाढ़ का मुकाबला नहीं किया जा सकता।"

वे कहते हैं, "वैसे तो नदियों पर डैम मुख्यतः बिजली बनाने के लिए बनाये जाते हैं, बाढ़ रोकने के लिए नहीं। इसके बावजूद डैम बनाना एक पुराना तरीका साबित हो रहा है। आजकल कई वजहों से दुनिया भर में बांधों को तोड़ा जा रहा है। अमेरिका की मिसिसिपी नदी पर बने डैम को वहां की सरकार ही 30-40 साल से तोड़ रही है। चीन में ह्वांगहो नदी पर बने तटबंध को बम से उड़ा दिया गया।"

वे कहते हैं, "डैम तो केरल जैसे इलाके में असफल हो रहे हैं, ऐसे में हिमालय जैसे नये पर्वत और भूकंपीय ज़ोन में बांध की बात करना ही गलत है। इन बांधों के हमेशा टूटने का खतरा रहेगा। हर तीन-चार साल बाद यहां से पानी छोड़ना पड़ेगा, जो कहीं अधिक खतरनाक साबित होगा और ये बांध 30 से 50 साल की अवधि में ही गाद से भर जायेंगे। ऐसे में मंत्री महोदय कैसे इसे स्थायी समाधान कह रहे हैं।

मेघ पईन अभियान के संयोजक एकलव्य प्रसाद भी मानते हैं कि हाईडैम बाढ़ की समस्या का समाधान नहीं है। वे कहते हैं कि नये उदाहरण बताते हैं कि हाईडैम बनने से नदियों के निचले इलाकों में बाढ़ की समस्या बढ़ जाती है। वे कहते हैं, बाढ़ तो छोटी नदियों में भी बड़े पैमाने पर आती हैं, इसलिए हाईडैम से बाढ़ का समाधान नहीं निकलने वाला।

तो समाधान क्या है?

ज्यादातर जानकार मानते हैं कि बिहार की बाढ़ का समाधान न तो नेपाल में है, न ही कहीं और। इसका समाधान हमें अपनी सीमा के भीतर ही तलाशना होगा। बिहार की जल संपदा पर अध्ययन करने वाले राज्य के जल संसाधन विभाग के पूर्व सचिव गजानन मिश्र कहते हैं कि यह सच है कि नेपाल से आने वाली नदियां बारिश के दिन में अपने साथ बड़े पैमाने पर पानी और गाद लाती हैं, जिससे यहां बाढ़ की समस्या उत्पन्न होती है। मगर इसकी वजह यह भी है कि हम इस पानी और उपजाऊ मिट्टी का सही तरीके से इस्तेमाल करना भूल गये हैं।

वे कहते हैं, 1870-75 से पहले बिहार में बाढ़ का जिक्र नहीं मिलता था। जबसे यहां रेलवे की शुरुआत हुई और नदियों के स्वतंत्र बहाव में बाधा उत्पन्न होने लगी बाढ़ की समस्या सामने आने लगी। इसके बावजूद उत्तर बिहार में नदियों का अपना बेहतरीन तंत्र विकसित था। बड़ी नदियां, छोटी नदियों और चौरों से जुड़ी थीं और पूरे इलाके में पोखरों का जाल बिछा था। जब बारिश के दिनों में बड़ी नदियों में अधिक पानी होता था तो वह अपना अतिरिक्त पानी छोटी नदियों, चौरों और तालाबों में बांट देती थीं। इससे बाढ़ की समस्या नहीं होती थी। फिर जब गर्मियों में बड़ी नदियों में पानी घटने लगता तो छोटी नदियां और चौर इन्हें अपना पानी वापस कर देतीं। इससे ये नदियां सदानीरा बनी रहतीं।

मगर जब तटबंध बनाकर बाढ़ को रोकने की कोशिशें शुरू हुईं तो बड़ी नदियों का छोटी नदियों, चौरों आदि से संपर्क खत्म हो गया। ऐसे में नदियां तटबंधों को तोड़कर प्रलयंकारी बाढ़ लाने लगीं। चोटी नदियां और चौर सूखे तो लोगों ने उसे भर कर खेत औऱ मकान बना लिये। अब बारिश में नदियों को स्वतंत्र रूप से बहने का रास्ता नहीं मिलता है, इसलिए बाढ़ आती है। ऐसे में अगर बाढ़ का समाधान तलाशना है तो नदियों, चौरों और तालाबों के अंतर्संबंध को फिर से जिंदा करना होगा। यह समाधान नेपाल या बंगाल या केंद्र सरकार से आग्रह किये बगैर बिहार सरकार खुद ही कर सकती है।

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