मनरेगा: भारतीय महिलाओं के लिए अंतिम और एकमात्र आय का सहारा

भले ही यह ग्रामीण रोजगार कार्यक्रम कम मजदूरी प्रदान करता है लेकिन यह उन महिलाओं के लिए आय का अवसर और स्रोत है, जिनके पास ग्रामीण भारत में आय के कुछ और साधन नहीं हैं। साथ ही जिन्हें काम के लिए गांव से बाहर जाने के लिए कई बाधाओं का सामना करना पड़ता है।

Update: 2022-11-22 07:44 GMT

राजस्थान के राजसमंद जिले के भीम ब्लॉक में वर्षा जल संरक्षण हेतु गड्ढा खोदते मनरेगा कामगार। मनरेगा योजना महिलाओं के लिए एक सुरक्षा जाल की तरह है जिनके पास पुरुषों की अपेक्षा काम करने के कम अवसर प्राप्त होते । फोटो: सुनैना कुमार

राजसमंद, राजस्थान: चंचल कुमारी का जन्म साल 2002 में हुआ। उस साल राजस्थान सूखाग्रस्त भी था। दो साल से राज्य में पीने या फसल बोने के लिए पानी की भारी कमी थी, मवेशी मर रहे थे। चंचल का परिवार भी भुखमरी के कगार पर था। उनके पिता राजू सिंह एक मजदूर थे। उन्हें काम की तलाश में अपना गांव छोड़ना पड़ा। जैसे-जैसे आजीविका चौपट हुई, रोजगार सृजन कार्यक्रम के लिए कोलाहल बढ़ता गया। चंचल का परिवार भी उस आंदोलन में शामिल हुआ।

चंचल दक्षिणी राजस्थान के राजसमंद जिले से हैं, जिसका जमीनी स्तर के संगठनों द्वारा संचालित सामाजिक लामबंदी का इतिहास रहा है। 'सूचना का अधिकार' और 'काम करने के अधिकार' जैसे अभियान का नेतृत्व इसी जिले ने किया है। हालांकि यह बाद का अभियान था जो 2005 में महात्मा गांधी राष्ट्रीय ग्रामीण रोजगार गारंटी अधिनियम के कार्यान्वयन के साथ समाप्त हुआ था। दुनिया के सबसे बड़े रोजगार गारंटी कार्यक्रम मनरेगा ने रोजगार गारंटी योजना से प्रेरणा ली, जिसे 1970 के दशक में पड़े सूखे की अवधि के बाद महाराष्ट्र से लाया गया था।

इस साल भी इस क्षेत्र में बहुत कम बारिश हुई है। चंचल ने आत्म-आश्वासन के साथ कहा, "मनरेगा के बिना हम जीवित नहीं रह पाएंगे। इससे महिलाओं को अपने परिवार का भरण-पोषण करने में मदद मिलती है।"

जब इंडियास्पेंड ने जुलाई में चंचल से मुलाकात की तो वह मानसून के दौरान वर्षा जल के संरक्षण के लिए गड्ढे की खुदाई की निगरानी कर रही थीं। पिछले एक साल से वह मनरेगा 'साथी' या कार्यस्थल पर्यवेक्षक के रूप में काम कर रही हैं। उनके चार भाई गुजरात के शहरों में केटरिंग सेक्टर में काम करते हैं। एक मनरेगा 'साथी' के रूप में यह उसका काम है कि वह अपने मोबाइल फोन पर श्रमिकों की उपस्थिति दर्ज करें और दैनिक आधार पर काम आवंटित करें। खुदाई स्थल पर लगभग 80 श्रमिक थे, जिनमें से 70 से अधिक महिलाएं कुल्हाड़ी से लैस थीं।

जिस तरह से चंचल की नियुक्ति 'साथी' के रूप में हुआ है, उसी तरह की नियुक्ति झारखंड, उत्तर प्रदेश और राजस्थान जैसे राज्यों में हाल ही में शुरू की गई है। इस नूतन प्रक्रिया में महिलाओं को मनरेगा 'साथी' के रूप में नियुक्त किया गया है और उन्हें कार्यक्रम केंद्र में रखा गया है, जिसमें महिलाएं, पुरुषों की तुलना में अधिक संख्या में भाग लेती हैं। ग्रामीण विकास मंत्रालय के अनुसार साल 2021-22 में 54.54% महिलाएं मनरेगा से जुड़े कुल कार्यबल का हिस्सा रही हैं। फिर भी कार्यस्थलों पर 'साथी' जैसे पदों को हमेशा ऐसे पुरुषों द्वारा विनियोजित किया गया है जो फंड और अन्य निर्णय लेने के कार्यों को नियंत्रित करते हैं।

चंचल कुमारी को हाल ही में मनरेगा साथी के रूप में काम मिला है। चंचल वर्षा जल संरक्षण हेतु राजसमंद जिले के भीम ब्लॉक में खोदे जा रहे गड्ढो का काम देखती है। फोटो: सुनैना कुमार 

इंडियास्पेंड ने उदयपुर और राजसमंद जिलों में जिन तीन अन्य स्थलों का दौरा किया, वहां महिलाएं (लगभग सभी बीस वर्ष की उम्र में) प्रशिक्षण ले रही थीं और 'साथी' के रूप में काम कर रही थीं। डिजिटल साक्षरता इस नौकरी के लिए एक पूर्वापेक्षा है। हालांकि ग्रामीण भारत में अधिकांश महिलाओं के पास डिजिटल उपकरणों या इस तरह के कौशल तक पहुंच नहीं है।

राजस्थान मनरेगा में सबसे अच्छा प्रदर्शन करने वाला राज्य रहा है। इस साल की शुरुआत में शहरी रोजगार गारंटी योजना शुरू की गई है। महामारी के बाद से रोजगार सृजन की आवश्यकता पर बढ़ते ध्यान के साथ तमिलनाडु, उड़ीसा, हिमाचल प्रदेश और झारखंड ने भी शहरी मजदूरी रोजगार कार्यक्रम शुरू किए हैं।

दूसरी ओर उत्तर प्रदेश में मनरेगा में महिलाओं की भागीदारी की दर सबसे कम है और पिछले एक साल से मनरेगा में महिला साथियों को प्रशिक्षण दिया जा रहा है ताकि यह सुनिश्चित किया जा सके कि महिलाएं सक्रिय हितधारक हैं न कि वह कार्यस्थल पर केवल एक मजदूर हैं। यह योजना कारगर भी साबित हो सकती है। राज्य के आंकड़ों से पता चलता है कि 2020-21 में महिलाओं की भागीदारी 33.59% से बढ़कर 2022-23 में 37.7% हो गई है।साक्ष्यों के अनुसार महिला साथियों ने भी इसमें पारदर्शिता लाई है।

'वीमेन एट वर्क 3.0' हमारी दूसरी सीरीज हैं, जहां हम भारत की महिला श्रम शक्ति में महिलाओं के लिए कोविड -19 के बाद की वास्तविकता के संदर्भ में चर्चा कर रहे हैं।। पहले भाग में यह दिखाया गया कि 2020-21 में महिलाओं के श्रम बल में वृद्धि हो सकती है क्योंकि नौकरियों और आय के लिए जरूरतमंद महिलाएं खराब गुणवत्ता वाली कम वेतन की नौकरियां भी ले रही हैं। अगले भाग में यह देखा जाएगा कि नौकरियों का बढ़ता डिजिटलीकरण महिलाओं को कैसे प्रभावित कर रहा है।

मनरेगा : ट्रेंड को आगे बढ़ाते हुए

यह कोई रहस्य नहीं है कि भारत में महिलाओं की श्रम शक्ति भागीदारी में गिरावट आई है।

(इंडियास्पेंड की पहली 'वीमेन एट वर्क सीरीज़' पढ़ें, जिसमें इस समस्या और इसके पीछे के कारणों का विवरण दिया गया है।)

हालांकि उस सामान्य गिरावट के विपरीत मनरेगा में महिलाओं की कार्यबल की भागीदारी ने इस प्रवृत्ति को लगातार कम किया है। इसे आंशिक रूप से 33% आरक्षण के माध्यम से महिलाओं को काम देने के कार्यक्रम के मूल जनादेश के लिए जिम्मेदार ठहराया जा सकता है।

शुरुआती दिनों से ही महिलाओं ने अन्य सभी प्रकार के रिकॉर्ड किए गए कार्यों की तुलना में कहीं अधिक सक्रिय रूप से मनरेगा में भाग लिया है।अनुसंधान से पता चला है कि मनरेगा के तहत मिलने वाले काम में महिलाओं की हिस्सेदारी सभी राज्यों के अन्य श्रम बाजार में मिलने वाले काम से अधिक है।

उदाहरण के लिए ग्रामीण राजस्थान को लें। श्रम बल सर्वेक्षण के अनुसार 2020-21 के बीच श्रम बल में 46.5% महिलाएं (15 वर्ष और उससे अधिक आयु की) थीं। इसी अवधि के दौरान 65.68% महिलाएं मनरेगा के काम में लगी थीं। इसी तरह श्रम बल में ग्रामीण महिलाओं की अखिल भारतीय भागीदारी जुलाई 2020 और जून 2021 के बीच 36.5% थी, जबकि मनरेगा के तहत इसी अवधि के लिए यह 53.19% थी।

दुर्गा गमेती हाल ही में मनरेगा साथी बनी है। दुर्गा राजसमंद जिले के कुंभलगढ़ ब्लॉक में अपनी साथियों के साथ। सुनैना कुमार 

कोविड-19 के दौरान सुरक्षा जाल

कोविड -19 के बाद भारत में आर्थिक अनिश्चितता और बढ़ती बेरोजगारी ने मनरेगा के तहत काम की मांग बढ़ाया है, जो 2020-21 में कोविड -19 संकट के दौरान 40% तक बढ़ गया। इस कारण से यह एक बार फिर दिखा कि मनरेगा में ग्रामीण समुदायों के लिए एक लाइफ लाइन बनने की क्षमता मजबूत हुई।

2020 के लॉकडाउन के दौरान मनरेगा की प्रभावशीलता का मूल्यांकन करने के लिए 2021 में IWWAGE के एक अध्ययन से पता चला है कि ग्रामीण महिलाओं के लिए रोजगार पर मनरेगा का प्रभाव ग्रामीण पुरुषों की तुलना में अधिक था। मनरेगा ने ग्रामीण महिलाओं के लिए नौकरी के नुकसान को लगभग 100% तक कम कर दिया और ग्रामीण महिलाओं के रोजगार में 74% की वृद्धि हुई। ये बातें उस रिपोर्ट में थीं। ग्रामीण पुरुषों के रोजगार पर इसका प्रभाव सकारात्मक था, हालांकि यह लगभग महत्वहीन या नगण्य था। लेकिन ग्रामीण महिलाओं के लिए मनरेगा ने रोजगार के नुकसान पर काफ़ी रोक लगाई और उन महिलाओं को भी मौका दिया जो पहले श्रम बल का हिस्सा नहीं थीं। वैसी महिलाओं को संकट के दौरान श्रम बाजार में प्रवेश करने का मौका मिला।

इंडियास्पेंड ने जिन गांवों का दौरा किया, वहां महामारी के बाद से एक महत्वपूर्ण रूप से मनरेगा के बारे में जागरूकता बढ़ी है। हालांकि ग्रामीण श्रम बाजार में पुरुषों की बढ़ती भागीदारी के साथ मनरेगा में महिलाओं की हिस्सेदारी 2020-21 और 2021-22 में गिर गई। कई महिलाओं ने कहा, "हमारे पति नौकरी नहीं होने के कारण घर लौट आए, मनरेगा ने ही हमारे परिवारों को बचाया।" उन्होंने सरकार से उनकी मजदूरी बढ़ाने, कार्यदिवसों की संख्या बढ़ाने और अधिक कार्यस्थल खोलने की मांग की।

महिलाओं को मनरेगा की ओर कदम बढ़ाने के लिए क्या आकर्षित करता है?

"मनरेगा के तहत मिलने वाले काम को एक सरकारी कार्य के रूप में देखा जाता है। इस प्रकार यह महिलाओं के लिए सम्मानजनक भी माना जाता है। ऐसे परिवार जो महिलाओं को निर्माण या किसी अन्य आकस्मिक श्रम कार्य में काम करने की अनुमति नहीं देते हैं, उन्हें मनरेगा में काम करने के लिए समर्थन करते हैं। इसके अलावा यहां महिलाएं सुरक्षित महसूस करती हैं क्योंकि वहां वे महिलाओं के बड़े समूह के साथ काम करती हैं। मैरीलैंड विश्वविद्यालय में समाजशास्त्र के प्रोफेसर और नेशनल काउंसिल ऑफ एप्लाइड इकोनॉमिक रिसर्च में केंद्र निदेशक सोनाल्डे देसाई ने मनरेगा और उसके लैंगिक आधार पर शोध किया है। उन्होंने इस संदर्भ में कहा, "मनरेगा का सबसे बड़ा योगदान यह है कि इसने देश में कई महिलाओं के लिए काम (रोजगार) को सुलभ और स्वीकार्य बना दिया है।"

इसके पीछे कई और कारण भी हैं। कई महिलाओं को मनरेगा की तरफ "पुश" किया गया है और कई स्तरों पर उन्हें इस तरफ "आकर्षित" भी किया गया है। इसी कारण से मनरेगा में 2006-07 के बाद से इसमें महिलाओं की हिस्सेदारी में वृद्धि हुई है।

भारत में कृषि में गहराते संकट के कारण कृषि कार्यों की उपलब्धता कम हो गई है और ग्रामीण परिवारों की मनरेगा कार्य पर निर्भरता बढ़ गई है। जहां पुरुष रोजगार के अन्य अवसरों से कमाई करने में सक्षम हुए हैं, वहीं महिलाएं मनरेगा पर वापस आ गई हैं। मनरेगा के प्रमुख उद्देश्यों में से एक प्रवास के संकट को रोकना था। हालांकि इसका पुरुषों के प्रवास पर कोई प्रभाव नहीं पड़ा है, लेकिन मनरेगा के काम की उपलब्धता ने महिलाओं और बच्चों के पलायन को कम किया है।

राजस्थान के जिन जिलों में काम की तलाश में उच्च प्रवासन की सबसे अधिक समस्याएं हैं, उन जिलों में फील्ड अध्ययनों से पता चला है कि महिलाओं के मनरेगा में शामिल होने की अधिक संभावना है, जिससे महिलाओं के अल्पकालिक प्रवास में कमी आई है और उनके बच्चों के पालन-पोषण में वृद्धि हुई है। इंडियास्पेंड ने जिन महिलाओं से मुलाकात की, वे अपने पतियों के साथ प्रवास करने के विचार के खिलाफ थीं। यहां तक कि उन्हें यह पता था कि उन्हें शहरों में अधिक वेतन मिलेगा। उन्होंने अपने गांव में ही बने रहने के अपने कारणों के रूप में सुरक्षा, बेहतर आवास, परिवार और कृषि भूमि के प्रति जिम्मेदारी का हवाला दिया।

मनरेगा में पुरुषों और महिलाओं के लिए समान मजदूरी का प्रावधान है। भारत में आय के अंतर पर IWWAGE द्वारा किए गए एक विश्लेषण के अनुसार, स्वरोजगार करने वाली महिलाएं स्व-नियोजित पुरुषों द्वारा अर्जित आय का केवल 30% से 40% तक ही कमा पाती हैं, जबकि नियमित श्रमिकों के बीच यह अंतर 52% से 67% था। मनरेगा में मजदूरी की समानता यह सुनिश्चित करती है कि महिलाओं को बेहतर मजदूरी के लिए सौदेबाजी नहीं करनी पड़े।

घर के आस-पास रोजगार उपलब्ध कराकर मनरेगा उन ग्रामीण महिलाओं के लिए भी काम को संभव बनाता है, जिनके पास वेतन आधारित मजदूरी के कम मौके हैं और जिनके पास घरेलू कार्यों की जिम्मेदारी हो।

राजनीति विज्ञान में मास्टर डिग्री के साथ, मीना डांगी राज्य सरकार की एक पहल के तहत उदयपुर में मनरेगा 'साथी' के लिए एक प्रशिक्षण कार्यक्रम में भाग ले रही हैं। अपनी शिक्षा के बावजूद, डांगी ने कहा कि उदयपुर के बाहरी इलाके में उनके गांव में रोजगार के अधिक अवसर नहीं थे।

उन्होंने बताया, "रोजगार प्राप्त करने के लिए महिलाओं का पलायन करना आसान नहीं है। हालंकि जब मैं अपने गांव वापस जाऊंगी, तो मैं इस प्रशिक्षण का उपयोग महिलाओं को उनके रोजगार और मजदूरी के अधिकार की मांग को आगे बढ़ाने के लिए उन्हें प्रोत्साहित करूंगी। साथ ही मैं कोशिश करूंगी कि वे बेहतर कार्यस्थल की भी मांग करें, जहां शिशु पालन की भी सुविधाएं हो ताकि जिन महिलाओं के छोटे बच्चे हैं, वह भी काम कर सकें।"

जो महिलाएं श्रम बल में नहीं होतीं वे मनरेगा के कारण काम करती हैं। 2011 में बिहार, छत्तीसगढ़, झारखंड, मध्य प्रदेश, राजस्थान और उत्तर प्रदेश के 10 जिलों में किए गए एक अध्ययन में पाया गया कि सर्वेक्षण से पहले के तीन महीनों में केवल 30% महिलाओं ने मनरेगा के अलावा किसी अन्य स्रोत से नकद आय अर्जित करने में सक्षम थी। कुल महिलाओं में से 50% ने कहा कि मनरेगा के अभाव में वे घर पर काम करतीं या बेरोजगार ही रहतीं।

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उदयपुर में मीना दांगी मनरेगा साथी के कार्यक्रम में भाग लेते हुए

वीडियो एडिटिंग: सुनैना कुमार और ज्योत्सना रिछारिया

मनरेगा में महिलाओं की अधिक भागीदारी के लिए शायद सबसे महत्वपूर्ण कारकों में से एक यह है कि पुरूष काम की तलाश में गांवों से बाहर चले गए हैं। भारतीय सांख्यिकी संस्थान में अर्थशास्त्र की प्रोफेसर और मनरेगा शोधकर्ता फ़रजाना अफ़रीदी ने कहा, "महिलाएं इसमें भाग लेने में सक्षम हैं क्योंकि उच्च गतिशीलता वाले पुरुष बेहतर मजदूरी अर्जित करने के लिए पलायन करते हैं। पुरुष इसमें तब तक काम नहीं करेंगे, जब तक कि उनके लिए कोई अन्य विकल्प उपलब्ध न हो। जैसा कि हमने कोविड -19 की शुरुआत के दौरान देखा, जब मजदूर शहरों से वापस अपने गांव लौट रहे थे और मनरेगा का काम कर रहे थे।"

अफ़रीदी का हालिया शोध जलवायु परिवर्तन और सूखे के बढ़ते जोखिम के साथ मनरेगा की संभावित भूमिका को देखता है, जो महिलाओं को अधिक प्रभावित करेगा क्योंकि पुरुष पलायन करने और गैर-कृषि कार्य खोजने में सक्षम हैं।

'गरीबी का नारीकरण (महिलाकरण )'

मनरेगा के काम के लिए राष्ट्रीय औसत दैनिक वेतन 2015-16 के 153.67 रुपये से बढ़कर 2021-22 में 207.20 रुपये हो गया है। हालांकि अशोका विश्वविद्यालय में सेंटर फॉर इकोनॉमिक डेटा एंड एनालिसिस (सीईडीए) के एक अध्ययन के अनुसार यह काफी कम है। अलग-अलग राज्यों में यहभिन्न-भिन्न हैं। छत्तीसगढ़ और मध्य प्रदेश में प्रति दिन मनरेगा मजदूरों को 204 रुपये मिलते हैं, जबकि हरियाणा में यह प्रति दिन 331 रुपये हैं। मनरेगा मजदूरी 21 प्रमुख राज्यों में से 17 में कृषि के लिए मिलने वाले न्यूनतम मजदूरी से भी कम है।

भुगतान में देरी के साथ-साथ मनरेगा के तहत काम की भी कमी है। हालांकि यह योजना प्रत्येक ग्रामीण परिवार को 100 दिनों के काम का आश्वासन देती है। सीईडीए (CEDA) के अध्ययन से पता चला है कि 2015-16 और 2020-21 के बीच, प्रति पंजीकृत परिवार में उच्चतम औसत रोजगार 2020-21 में 22 दिन था।

इसका सबसे ज्यादा असर महिलाओं पर पड़ता है। वे कम मजदूरी के लिए काम करने के लिए तैयार हैं और मनरेगा के तहत उनकी कमाई को उनकी न्यूनतम नकदी आवश्यकताओं को पूरा करने के लिए पर्याप्त माना जाता है। महिलाओं को भाग लेने के लिए प्रोत्साहित करने के लिए कार्यस्थलों पर चाइल्डकेअर सुविधाओं की आवश्यकता होती है लेकिन इसकी अनदेखी की जाती है।

मनरेगा के तहत महिलाओं की उच्च भागीदारी को वर्षों से कई शिक्षाविदों द्वारा "गरीबी की नारीकरण" के रूप में संदर्भित किया गया है। मनरेगा का काम न्यूनतम मजदूरी पर कठिन शारीरिक श्रम है और ग्रामीण महिलाओं के लिए एक विकल्प है, जिनके पास अच्छे काम तक पहुंचने के कम से कम अवसर हैं।

देसाई ने कहा, "परिवार के खेतों में ग्रामीण महिलाओं के लिए पर्याप्त काम नहीं है। भले ही मनरेगा का काम उनके परिवारों का भरण-पोषण नहीं कर सकता, लेकिन यह उन्हें सुरक्षा प्रदान करता है।"

गांवों में एक बात आमतौर पर काफी बार सुना जाता है,"पुरुषों को इस काम को करने में शर्म आती है।"

चंचल कुमारी जिस स्थान की देखरेख कर रही थीं, उस जगह की एक कार्यकर्ता, 45 वर्षीय लक्ष्मी बाई को कभी भी पढ़ाई करने का अवसर नहीं मिला और उन्होंने यह नहीं सोचा था कि उनके लिए काम पर जाना संभव होगा। परिवार का एक छोटा सा खेत है और उनका पति नजदीकी शहर में एक निर्माण मजदूर के रूप में काम करता है। अपने बच्चों की शिक्षा में सहयोग करने के लिए उन्होंने मनरेगा का काम शुरू किया, जिसके लिए उन्हें प्रति दिन 251 रुपये का भुगतान किया जाता है। उन्होंने कहा, "मैं जो कुछ भी कमाती हूं वह घर पर खर्च हो जाता है और मैं इसे बचाने का नहीं सोचती। सरकार को हमारी मजदूरी बढ़ानी चाहिए।"

लक्ष्मी बाई मजदूर किसान शक्ति संगठन (एमकेएसएस) के ही एक संघ की सदस्य हैं, जो एक कार्यकर्ता-नेतृत्व वाला संगठन है। साथ ही यह संगठन अधिकार-आधारित कानून के लिए अभियान चलाता है। वेतन वृद्धि के लिए अभियान चला रहे एमकेएसएस के सह-संस्थापक शंकर सिंह ने कहा।"मनरेगा को लेकर कभी यह नहीं सोचा गया था कि यह लैंगिक तौर पर कोई परिवर्तनकारी काम करेगा, लेकिन अब वही हो रहा है। यह महिलाओं को अपनी पहचान देता है, पहले उन्हें केवल किसी की 'पत्नी' या 'बेटी' के रूप में देखा जाता था। जीवन यापन की लागत बढ़ गई है लेकिन मनरेगा की मजदूरी वही रहती है। एक घर 200 रुपये प्रतिदिन पर कैसे चल सकता है?"

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शंकर सिंह मजदूर किसान संगठन के सह संस्थापक हैं। इनकी संस्था मजदूरों के हक़ की बात करती हैं। वीडियो एडिटिंग: सुनैना कुमार और ज्योत्सना रिछारिया

वित्तीय समावेशन और महिलाओं की स्वायत्तता पर प्रभाव

जब यह शुरू हुआ तो मनरेगा की मजदूरी आम घरेलू बैंक खातों में जमा की गई, जो ज्यादातर घर के पुरुषों द्वारा संचालित की जाती थी। 2012 में केंद्र सरकार ने अनिवार्य किया कि भ्रष्टाचार से बचने के लिए मनरेगा मजदूरी सीधे श्रमिकों के बैंक खातों में जमा की जाएगी। इससे सबसे अधिक लाभ महिलाओं को हुआ क्योंकि वे अपनी कमाई को नियंत्रित कर सकती थीं। शोध से पता चलता है कि भुगतान किए गए रोजगार तक पहुंच घर के भीतर महिलाओं की बार्गेनिंग पावर को बढ़ाती है और यह उनकी आर्थिक और सामाजिक स्थिति को बढ़ाने के लिए महत्वपूर्ण है।

जे-पाल साउथ एशिया और इंक्लूजन इकोनॉमिक्स इंडिया सेंटर, क्रेया यूनिवर्सिटी के साथ साझेदारी में शोधकर्ताओं की एक टीम द्वारा 2019 के एक अध्ययन ने मध्य प्रदेश राज्य में महिलाओं को मनरेगा की कमाई पर, उनकी काम करने की इच्छा और घरेलू निर्णयों में अधिक से अधिक भागीदारी की क्षमता में नियंत्रण के प्रभाव की जांच की। अध्ययन ने पुष्टि की कि जिन महिलाओं को उनके बैंक खातों में मजदूरी की सीधी जमा राशि के साथ-साथ उन्हें बैंक खातों को चलाने का प्रशिक्षण मिला। वे श्रम बल में अधिक समय तक रहीं और अधिक सशक्त हुईं।

कुंभलगढ़ किले के पास पीपला गांव में इंडियास्पेंड ने मनरेगा कार्यस्थल पर रत्नी बाई से मुलाकात की। एक पहाड़ी की चोटी पर पौधे रोपते हुए 20 कार्यकर्ता भी वहां थे। वे सभी सभी महिलाएं थीं। रत्नी बाई उस कार्यस्थल पर उन मुट्ठी भर महिलाओं में से एक थीं, जिनके पास मोबाइल फोन था। अधिकांश महिलाओं ने कहा कि वे इसका खर्च वहन नहीं कर सकती। यदि उनके पास मोबाइल है भी तो वे उसका उपयोग केवल आपात स्थिति के लिए करती हैं।

रत्नी को पहली बार काम मिला है वह राजसमंद जिले के कुम्भलगढ़ ब्लॉक में मनरेगा योजना के तहत काम कर रही है।

रत्नी बाई ने खेतिहर मजदूर के रूप में अतिरिक्त काम करके किश्तों पर फोन खरीदा। उन्होंने कहा, "पहले मेरे पति मेरा साथ नहीं देते थे। अब जब मैं अपनी आय में इजाफा कर रही हूं तो वह मुझे काम करने के लिए प्रोत्साहित करते हैं।" हालांकि वह अभी भी नहीं जानती कि अपने बैंक खाते को कैसे संचालित किया जाए। पैसे निकालने के लिए वह अपने गांव में ई-मित्र की मदद लेती है।

राजस्थान और गुजरात में एक श्रमिक अधिकार संगठन आजीविका ब्यूरो में परिवार अधिकारिता कार्यक्रम का नेतृत्व करने वाली मंजू राजपूत ने कहा, "ये महिलाएं पहली बार काम कर रही हैं और घर से निकलने पर उन्हें उनकी आवाज मिल जाती है। यह उनके पतियों के साथ उनके समीकरण को बदल देता है।"

इस महीने की शुरुआत में देश भर से मनरेगा कार्यकर्ता कम वेतन और भुगतान में देरी के विरोध में दिल्ली के जंतर मंतर पर एकत्र हुए। श्रमिकों की यह लंबे समय से मांग है। इस बार अंतर यह रहा कि प्रदर्शन करने वालों में अधिकतर महिलाएं थीं। राजपूत ने कहा, "महिलाएं इस कार्यक्रम में आवाज उठा रही हैं।"


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मंजू राजपूत आजीविका ब्यूरो के फॅमिलू एम्पावरमेंट प्रोग्राम की अध्यक्ष है, इनकी संस्था राजस्थान और गुजरात में मजदूरों के हक़ की बात करता है। वीडियो एडिटिंग: सुनैना कुमार और ज्योत्सना रिछारिया

वापस अपने गांव में, चंचल कुमारी अपने भविष्य के बारे में सोचती है। उन्होंने कहा कि मनरेगा साथी का काम एक गड्ढा बंद करने जैसा है। अपने भाइयों की तरह वह भी गांव छोड़कर नर्स के रूप में प्रशिक्षण लेना चाहती है। वह इसके लिए बचत कर रही हैं। "यह मेरी पसंद का काम नहीं है लेकिन अगर यह काम नहीं होता तो मेरे परिवार ने मेरी शादी कर दी होती।"


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