कैसे विभिन्न उद्योग और रसायन मंत्रालय, भारत के प्लास्टिक नियमों को प्रभावित कर रहे हैं

उत्पादन के बजाय प्लास्टिक प्रबंधन पर जोर देने से लेकर राज्यों के कड़े कानूनों को दरकिनार करने तक, RTI दस्तावेज दिखाते हैं कि भारत के प्लास्टिक कानूनों को हजारों छोटी-छोटी कटौतियों के जरिये कमजोर किया गया है।;

Update: 2025-08-22 04:36 GMT

नई दिल्ली: 175 देशों के राजनयिक जिनेवा में प्लास्टिक पर होने वाली अहम बैठक के लिए इकट्ठा हो रहे हैं। भारत के वार्ताकार ऐसी मांगों के साथ वहां पहुंच रहे हैं, जो पर्यावरण की तात्कालिक जरूरतों से कम और औद्योगिक जरूरतों से ज्यादा प्रभावित है।

दुनिया में प्लास्टिक कचरे के प्रमुख उत्पादकों में से एक होने के नाते भारत के फैसले किसी भी वैश्विक संधि का रुख बदल सकते हैं। लेकिन जिनेवा तक का रास्ता उद्योग के दशकों पुराने प्रभाव और कमजोर किए गए वादों से भरा हुआ है।

अगस्त के दूसरे और तीसरे हफ्ते में सभी देश ग्लोबल प्लास्टिक संधि पर गहन दौर की बातचीत में शामिल होंगे, जो प्लास्टिक प्रदूषण से निपटने के लिए संयुक्त राष्ट्र की अगुवाई में चलाया जा रहा प्रयास है।

2024 में बुसान में हुई पिछली बातचीत बिना नतीजे के खत्म हो गई थी, क्योंकि भारत और अन्य पेट्रोकेमिकल उत्पादक देशों ने प्लास्टिक निर्माण पर सीमा तय करने से इनकार कर दिया था। बुसान में भारत ने यह कहते हुए “डाउनस्ट्रीम उपायों” जैसे रिसाइक्लिंग और पुन: उपयोग प्रक्रियाओं के पक्ष में दलील दी थी कि निर्माण पर प्रतिबंध लगने से प्लास्टिक पर निर्भर लाखों कामगारों की रोजी-रोटी पर असर पड़ेगा।

भारत का यह रुख अचानक नहीं बना है, बल्कि प्लास्टिक निर्माताओं और उद्योग लॉबी की लगातार लॉबिंग व नई दिल्ली में पेट्रोलियम और उद्योग मंत्रालयों के दबाव के कारण यह तैयार हुआ है।

हमने सूचना के अधिकार (RTI) अधिनियम के तहत पर्यावरण, वन और जलवायु परिवर्तन मंत्रालय (MoEF&CC) से प्राप्त 5,600 से ज्यादा पन्नों के बैठक के मिनट्स, नोट्स, रिपोर्ट और प्रस्तुतियों की जांच की और एक साफ पैटर्न पाया कि देश के केमिकल्स और पेट्रोकेमिकल्स विभाग (DCPC) व प्लास्टिक निर्माताओं ने भारत के प्लास्टिक प्रदूषण पर रुख तय करने में एक बड़ा असर डाला है।

हमारे रिपोर्ट की यह दो भागों की सीरीज बताती है कि भारत की प्लास्टिक नीति कैसे विकसित हुई और कई मामलों में ये उद्योगों के दबाव में कमजोर भी पड़ी। पहले भाग में हम बताने की कोशिश करेंगे कि सख्त प्लास्टिक प्रतिबंध कैसे ढीले किए गए और राज्यों के स्तर पर सख्त नियम लागू करने की कोशिशों को कैसे प्लास्टिक निर्माण संघों के कहने पर केंद्र सरकार ने रोक दिया।


प्लास्टिक प्रतिबंध का दिलचस्प मामला

प्लास्टिक को लेकर भारत का मौजूदा वैश्विक रुख दो दशकों से चले आ रहे बदलावों का नतीजा है। इसकी शुरुआत 1999 के री-साइक्ल्ड प्लास्टिक्स मैन्युफैक्चर एंड यूज़ेस नियमों से हुई, जिसमें प्लास्टिक कैरी बैग के निर्माण को सीमित करने की कोशिश की गई थी। इसके बाद केंद्रीय प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड (CPCB) ने इस दायरे को बढ़ाने का काम शुरू किया। सुप्रीम कोर्ट द्वारा गठित कमेटियों समेत कई समितियों ने जल्द ही प्लास्टिक कचरे से निपटने के लिए और सख्त नियमों की सिफारिश करनी शुरू कर दी।

CPCB ने लैमिनेट्स और मल्टी-लेयर्ड पैकेजिंग पर प्रतिबंध लगाने का प्रस्ताव दिया, जिनमें प्लास्टिक, कागज, एल्युमिनियम और अन्य सामग्री की परतें होती हैं। ये पैकेजिंग चिप्स, शैम्पू पाउच, जूस से लेकर चॉकलेट रैपर तक हर जगह मिलती हैं और प्लास्टिक कचरे के सबसे बड़े स्रोतों में से एक है। इन्हें रिसाइकिल करना भी बेहद मुश्किल है। प्रस्तावित प्रतिबंधित सूची में प्लास्टिक कंटेनर भी थे, जो अब फूड डिलीवरी में हर जगह इस्तेमाल होते हैं। CPCB ने प्लास्टिक निर्माताओं पर कचरा इकट्ठा करने और रिसाइकल करने की वित्तीय जिम्मेदारी डालने की भी सिफारिश की थी।

नए कानून का नाम “प्लास्टिक मैन्युफैक्चर एंड यूजेस नियम” रखा जाना था, जिसमें प्लास्टिक निर्माण पर रोक को मुख्य रूप से दर्शाया गया था। इसके आंतरिक नोट्स में केमिकल मंत्रालय की कड़ी आपत्तियां दर्ज हैं, जो प्लास्टिक के उत्पादन को नियंत्रित करता है।

मुख्य आपत्ति नाम को लेकर ही थी, जिसे मंत्रालय ने DCPC के शब्दों में एक “कमाल की सामग्री” लेकिन एक अनुचित निशाना माना। उनका कहना था प्लास्टिक के प्रयोग को बिल्कुल ही वापस लेना “अव्यवहारिक और बेहद मुश्किल काम” है। वहीं यूरोप व आर्थिक सहयोग एवं विकास संगठन (OECD) के विकसित देश ऐसे कदमों को लागू कर रहे थे।

प्लास्टिक निर्माता भी इन चिंताओं से सहमत थे। 22,000 से अधिक प्लास्टिक निर्माताओं का प्रतिनिधित्व करने वाले ऑल इंडिया प्लास्टिक्स मैन्युफैक्चरिंग एसोसिएशन (AIPMA) ने 2002 में कहा था, “प्लास्टिक बहुत उपयोगी और पर्यावरण के अनुकूल है…पॉलीथिन बैग के बिना खरीदारी, डिस्पोजेबल गिलास के बिना पिकनिक, हमारी रसोई में प्लास्टिक के जार की कतारों के बिना रहना क्या सोचना भी मुश्किल है।” उनके लिए समस्या प्लास्टिक नहीं बल्कि “कचरा प्रबंधन और लोगों की गंदगी फैलाने की आदतें” थीं।

प्लास्टिक उद्योगों के सलाहकार और 1996 की नेशनल प्लास्टिक वेस्ट मैनेजमेंट टास्क फोर्स जैसी समितियों के सदस्य रह चुके ओ. पी. रात्रा ने इंडिया स्पेंड को बताया, “मैं लगातार यह कहता आ रहा हूं कि असली समस्या प्लास्टिक नहीं, बल्कि कचरा फैलाना है। अंतरराष्ट्रीय संस्थाएं प्लास्टिक के खिलाफ अपने अभियान तेज कर रही थीं, लेकिन मैंने इस बहस के दूसरे पक्ष को दिखाने का काम किया है।”
सरकारी बैठकों में उन्हें DCPC के रूप में एक सहयोगी भी मिला। उन्होंने कहा, “वे इन विचारों के समर्थक रहे हैं और हमारी चिंताओं को सक्रिय रूप से आगे भी रखते रहे हैं।”

इन आपत्तियों के साथ 2007 की DCPC की पेट्रोकेमिकल नीति ने भी सरकार पर असर डाला, जिसका उद्देश्य प्लास्टिक निर्माण को बढ़ावा देना था। CPCB और MoEF ने अपने रुख को कमजोर कर दिया। “प्लास्टिक मैन्युफैक्चर एंड यूजेस नियम” ड्राफ्ट का नाम बदलकर “प्लास्टिक्स (मैन्युफैक्चर, यूजेस एंड वेस्ट मैनेजमेंट)” हो गया और आखिरकार 2011 में जब नियम लागू हुए, तो “मैन्युफैक्चर” शब्द पूरी तरह से हटा दिया गया।




सिंगल-यूज़ प्लास्टिक प्रतिबंध के कई कमजोर रूप

सिंगल-यूज़ प्लास्टिक (SUP) यानी प्लास्टिक बैग, प्लास्टिक कटलरी, आइसक्रीम स्टिक, प्लास्टिक ईयर-बड और अन्य ऐसी चीजें जो सिर्फ एक बार इस्तेमाल होती हैं। 2018 में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने घोषणा की थी कि 1 जुलाई 2022 तक भारत SUP से मुक्त हो जाएगा। मार्च 2019 में भारत ने चौथी संयुक्त राष्ट्र पर्यावरण सभा (UNEA) में सिंगल-यूज़ प्लास्टिक उत्पादों के प्रदूषण पर एक प्रस्ताव पेश किया। इसको अंतरराष्ट्रीय प्रशंसा भी मिली। UN पर्यावरण प्रमुख एरिक सोलहेम ने कहा कि भारत के पास “एक राजनीतिक प्रेरणा है, जिसे व्यावहारिक कदमों में बदला गया है। यह दुनिया को प्रेरित कर सकती है और वास्तविक बदलाव भी ला सकती है।”

इस घोषणा के बाद प्लास्टिक वेस्ट मैनेजमेंट (PWM) नियम 2021 आए, जिसमें 19 विशेष SUPs के निर्माण, वितरण, भंडारण, बिक्री और इस्तेमाल पर प्रतिबंध लगाया गया। हालांकि विशेषज्ञों ने भारत की वैश्विक बात और घरेलू कार्रवाई के बीच बड़े अंतर की ओर इशारा किया और यह भी कहा कि प्रतिबंध में बहुत ज्यादा अपवाद रखे गए थे।

यह प्रतिबंध प्लास्टिक उद्योग के सिर्फ सबसे छोटे हिस्से पर ही था, जबकि यह वही वर्ग है जिसे सिंगल-यूज़ प्लास्टिक से बाहर निकलने के लिए सबसे ज्यादा मदद की जरूरत है। अक्टूबर 2022 में इंडिया स्पेंड ने रिपोर्ट किया था कि भारत सरकार को बड़े उद्योगों को उनके हिस्से के प्लास्टिक प्रदूषण के लिए जिम्मेदार ठहराना चाहिए।
2019 में मंत्रालयों के बीच एक एक्शन प्लान साझा किया गया, जिसमें बताया गया था कि SUPs प्लास्टिक खपत का 43% हिस्सा हैं। लेकिन अंतिम नीति में भारत में बनने वाले कुल प्लास्टिक का सिर्फ 2-3% ही प्रतिबंधित किया गया। यह कैसे हुआ?

इस नीति का दायरा ही प्लास्टिक एसोसिएशनों ने तय किया था। किन सिंगल-यूज़ प्लास्टिक को प्रतिबंधित किया जाएगा, यह फैसला 2019 में बनी DCPC की विशेषज्ञ समिति ने किया। इस समिति के नौ सदस्यों में से CPCB के सिर्फ दो अधिकारियों को छोड़ किसी ने भी पर्यावरण नियमों पर पहले काम नहीं किया था। बाकी के सदस्य अलग-अलग सरकारी विभागों से थे। इस समिति की चर्चाओं में प्लास्टिक उद्योग से जुड़े 14 एसोसिएशन और संगठन शामिल थे, जबकि बाकी पांच में सरकारी मंत्रालय, रिसर्च संस्थान और गैर-सरकारी संगठन थे।
समिति ने प्लास्टिक की ‘उपयोगिता’ को पर्यावरणीय असर, रिसाइकिल करने की क्षमता, कचरे से ऊर्जा बनाने की संभावना और अन्य समाधानों व विकल्पों को कचरा फैलाने की प्रवृत्ति के साथ तौला। समिति ने स्वास्थ्य और पारिस्थितिक असर पर विचार नहीं किया।

समिति ने प्लास्टिक की ‘उपयोगिता’ को पर्यावरणीय असर, रिसाइकल करने की क्षमता, कचरे से ऊर्जा बनाने की संभावना, अन्य समाधानों और विकल्पों के साथ तौला। इस दौरान स्वास्थ्य और पारिस्थितिक असर पर विचार नहीं किया गया।

वहीं आर्थिक असर को पर्यावरण या स्वास्थ्य के असर से ऊपर रखा गया। सिर्फ 12 ऐसे उत्पाद चुने गए जो कम उपयोगी और रिसाइकल करने में मुश्किल थे, जबकि छोटे सैशे जैसे व्यापक रूप से इस्तेमाल होने वाले लेकिन अत्यधिक प्रदूषण फैलाने वाले प्लास्टिक को बख्श दिया गया, क्योंकि वे “उपयोगिता” सूचकांक में ऊंचा स्कोर करते थे। ये मानदंड संयोग से वही थे, जो AIPMA ने समिति के सामने रखे थे और जिसका घोषित उद्देश्य प्लास्टिक उपयोग व उद्योग को बढ़ावा देना है।

कचरे और केमिकल के मुद्दों पर काम करने वाले NGO टॉक्सिक्स लिंक के एसोसिएट डायरेक्टर सतीश सिन्हा भी इस समिति से मिलने वाले कुछ हितधारकों में शामिल थे। उन्हें याद है कि समिति का मुख्य मुद्दा ही “प्लास्टिक को चरणबद्ध तरीके से हटाने का आर्थिक असर” था।

उन्होंने कहा, “डिपार्टमेंट स्टोर की अलमारियों पर रखी कई वस्तुओं पर विचार नहीं किया गया क्योंकि अगर इन्हें अचानक प्रतिबंधित कर दिया जाता या महंगे विकल्पों से बदलना पड़ता, तो इसकी कीमत उपभोक्ताओं को चुकानी पड़ती। उस समय ये सिफारिशें सभी हितधारकों को स्वीकार्य थीं। हमें लगा कि यह बातचीत की शुरुआत है।”

DCPC की विशेषज्ञ समिति की रिपोर्ट ने दिखाया था कि कठोर कंटेनर फूड डिलीवरी में व्यापक रूप से इस्तेमाल होते हैं लेकिन उनकी उपयोगिता और रिसाइकिलिंग क्षमता अपेक्षाकृत कम ही है। इसमें यह भी बताया गया था कि इनके विकल्प मौजूद हैं, जिनमें एल्युमिनियम बॉक्स भी शामिल हैं।

पर्यावरण मंत्रालय ने प्रतिबंध को कठोर कंटेनरों तक बढ़ाने की कोशिश की, लेकिन उद्योग संघों ने इसका विरोध किया और दावा किया कि ये “मल्टी-यूज” हैं। सूक्ष्म, लघु और मध्यम उद्योग मंत्रालय (MSME) ने भी इस बात से सहमति जताई और कंटेनरों को प्रतिबंध सूची से हटा दिया गया।

इसी तरह प्लास्टिक फाइबर से बने कैरी बैग पर प्रतिबंध का प्रस्ताव रखा गया। उस समय महाराष्ट्र और कई अन्य राज्यों में ऐसे बैग पहले से प्रतिबंधित थे। लगभग तुरंत ही कई संघों और निर्माताओं ने लिखित में दावा किया कि ये बैग “टेक्सटाइल” माने जाते हैं और ये रिसाइकल करने व दोबारा इस्तेमाल करने योग्य हैं। यहां तक कि सितंबर 2019 में प्रधानमंत्री कार्यालय ने भी अहमदाबाद स्थित इंडियन नॉन-वोवन फैब्रिक मैन्युफैक्चरर एसोसिएशन का प्रतिबंध के खिलाफ दिए गए पत्र को आगे बढ़ाया

आखिरकार 2021 के PWM नियमों में एक कमजोर पाबंदी लागू की गई, जिसके तहत सिर्फ 60 ग्राम प्रति वर्ग मीटर (GSM) से कम के रेशेदार प्लास्टिक कैरी बैग प्रतिबंधित होंगे। यह सीमा DCPC की अपनी विशेषज्ञ समिति के सिफारिशों से भी कम थी, जिसने 80 GSM से कम के रेशेदार प्लास्टिक के थैलों को “जितनी जल्दी हो सके चरणबद्ध तरीके से हटाने” की सिफारिश की थी। CPCB के दस्तावेज दिखाते हैं कि प्लास्टिक निर्माताओं ने इस कम सीमा को इसलिए मान लिया क्योंकि वे बिना किसी रुकावट के उत्पादन जारी रख सकते थे।

रेशेदार प्लास्टिक के थैले, राज्यों के लिए अब भी समस्या बने हुए हैं, जहां इन्हें कपड़ों के बैग या प्लास्टिक के इको-फ्रेंडली विकल्प के रूप में बेचा जा रहा है।


मल्टी लेयर्ड प्लास्टिक

मल्टी-लेयर्ड प्लास्टिक पर लगने वाला प्रस्तावित प्रतिबंध भी बाहरी प्रभावों के कारण नीतियों के कमजोर होने का एक और उदाहरण है। CPCB लंबे समय से MLP में गैर-रिसाइकिल योग्य प्लास्टिक के प्रतिबंध की वकालत कर रहा था। इस संस्था ने 2012 में बताया कि MLP, हर साल पहुंचने वाले 0.56 मिलियन टन गैर-रिसाइकिल योग्य प्लास्टिक कचरे का एक बड़ा हिस्सा है।

लेकिन DCPC ने बार-बार इस प्रतिबंध को यह कहकर रोकने की कोशिश की कि इसका कोई वैकल्पिक उत्पाद नहीं है और चेतावनी दी कि अगर यह प्रतिबंध लागू हुआ तो अलग-अलग तरह की प्लास्टिक फिल्म और MLP में पैक होने वाले प्रोसेस्ड फूड प्रोडक्ट्स हमारी दुकानों से गायब हो जाएंगे।

आखिरकार 2016 में प्लास्टिक वेस्ट मैनेजमेंट नियमों के जरिए CPCB की बात मानी गई और कहा गया, “यदि कोई गैर-रिसाइकिल योग्य मल्टीलेयर्ड प्लास्टिक का निर्माण और उपयोग हो रहा है, तो उसे दो साल में चरणबद्ध तरीके से खत्म किया जाना चाहिए।”

लेकिन यह जीत ज्यादा समय तक नहीं टिकी। जैसे ही समय सीमा नजदीक आई, निर्माताओं और उत्पाद कंपनियों से आपत्तियां आने लगीं। उनका दावा था कि भले ही प्लास्टिक रिसाइकिल योग्य न हो, इसे जलाकर या तेल में बदलकर बिजली पैदा की जा सकती है।

कृषि और उपभोक्ता खाद्य प्रसंस्करण क्षेत्र की कंपनियों के शीर्ष संगठन भारतीय खाद्य और कृषि परिषद (ICFA) ने कहा, “MLP कचरे से होने वाले पर्यावरणीय खतरे का हल, इसके इस्तेमाल पर पूरी तरह प्रतिबंध लगाना नहीं है।”

ICFA ने गैर-रिसाइकिल योग्य MLP पर प्रतिबंध लागू होने से एक महीने पहले फरवरी 2018 में मंत्रालय को लिखा, “इस समस्या से निपटने और कचरा प्रबंधन को बेहतर बनाने का एक संभव तरीका यह है कि ऐसे सामानों को चरणबद्ध तरीके से खत्म किया जाए जो ना तो रिसाइकिल योग्य हों और ना ही ऊर्जा में बदले जा सकें।”
उस साल मार्च में पर्यावरण, वन और जलवायु परिवर्तन मंत्रालय ने एक राजपत्र अधिसूचना जारी कर प्रतिबंध की शर्तों में बदलाव किया और इसे केवल उन MLP पर लागू किया, जो “गैर-रिसाइकिल योग्य हों, ऊर्जा में बदले ना जा सकें और जिनका कोई अन्य उपयोग ना हो।”




खतरनाक तकनीक थोपने के लिए दबाव बनाना

उद्योगों की लॉबी ने सिर्फ प्रतिबंध को ही नहीं, बल्कि संदिग्ध समाधानों को भी बढ़ावा दिया।

मार्च 2018 में रसायन और उर्वरक मंत्री मनसुख मांडविया ने पर्यावरण मंत्रालय को लिखा कि ऑक्सो-बायोडिग्रेडेबल प्लास्टिक फेडरेशन (जो ऐसे एडिटिव बनाने वाली कंपनियों का संगठन है जिन्हें प्लास्टिक में मिलाकर उसे जल्दी गलने में मदद की जा सकती है) से बातचीत के बाद उन्होंने पाया है कि यह “बहुत अच्छी तकनीक” है, जो कचरे को प्रबंधित करने में मदद करेगी।

इसी समय दुनिया भर के वैज्ञानिक और कार्यकर्ता इसके प्रतिबंध की मांग कर रहे थे क्योंकि ये एडिटिव प्लास्टिक को तोड़कर और भी ज्यादा खतरनाक माइक्रोप्लास्टिक में बदल देते हैं। 2019 में यूरोपीय संघ ने इन एडिटिव पर प्रतिबंध लगाया, जिसके बाद अन्य देशों ने भी इसी तरह की कार्रवाई की। दस्तावेजों से पता चलता है कि 2022 में भारत के पर्यावरण मंत्रालय ने स्वीकार किया कि उसे इसके प्रतिबंध के लिए कई टिप्पणियां मिलीं, लेकिन कोई कार्रवाई नहीं की गई।
ऑक्सो-डीग्रेडेबल उत्पाद भारत में “पर्यावरण अनुकूल” के रूप में बेचे जाते रहे। 2023 में ही CPCB ने यह अनिवार्य किया कि इन उत्पादों को बेचने से पहले पंजीकृत और परीक्षण किया जाना चाहिए।


राज्य बनाम केंद्र सरकार: आखिरी फैसला किसका?

उद्योगों का प्रभाव राज्यों और केंद्र सरकार के बीच शक्तियों के संतुलन तक फैला हुआ है। आंतरिक दस्तावेज बताते हैं कि उद्योगों ने प्लास्टिक प्रबंधन से संबंधित राज्य कानूनों को निरस्त करने के लिए केंद्रीय नीति को प्रभावित किया।

मार्च 2018 में प्रधानमंत्री मोदी के संयुक्त राष्ट्र में भाषण से चार महीने पहले महाराष्ट्र ने कैरी बैग, कंटेनर, कटलरी और अन्य सहित एक बड़ी श्रेणी के एकल-उपयोग उत्पादों पर प्रतिबंध लगा दिया। महाराष्ट्र 18वां ऐसा राज्य बन गया, जिसने या तो पूरी तरह से एकल-उपयोग प्लास्टिक पर प्रतिबंध लगाया या चुनिंदा पर्यावरण-संवेदनशील क्षेत्रों में प्रतिबंध लागू किए। निर्माताओं ने बॉम्बे हाईकोर्ट में महाराष्ट्र के प्रतिबंध को चुनौती दी, लेकिन असफल रहे।

इसके बाद प्लास्टिक उद्योग ने पर्यावरण, वन और जलवायु परिवर्तन मंत्रालय को कई प्रतिवेदन भेजे, जिनमें राज्यों के प्रतिबंधों की शिकायत की गई और यह बताया गया कि राज्य के कानून, केंद्र सरकार द्वारा दी गई रियायतों और छूटों की तुलना में अधिक कड़े हैं। उदाहरण के लिए, महाराष्ट्र ने 50 माइक्रॉन से कम मोटाई वाले सभी प्लास्टिक पर प्रतिबंध लगा दिया था, जिसमें मल्टी-लेयर पैकेजिंग भी शामिल थी, जिसे केंद्र ने अनुमति दी थी।
पर्यावरण मंत्रालय को अन्य राज्यों के प्रतिबंधों और पाबंदियों के खिलाफ भी प्रतिवेदन प्राप्त हुए। इंडियन बेवरेजेस एसोसिएशन ने पर्यावरण-संवेदनशील अंडमान और निकोबार द्वीप समूह में दो लीटर से कम क्षमता वाली PET बोतलों के प्रतिबंध का विरोध किया। इन द्वीपों पर कचरा प्रसंस्करण की कोई सुविधा मौजूद नहीं है।

इंडियन कम्पोस्टेबल पॉलिमर्स एसोसिएशन ने शिकायत की कि महाराष्ट्र और कर्नाटक ने कम्पोस्टेबल प्लास्टिक बैग पर प्रतिबंध लगा दिया है, जबकि केंद्र ने इसकी अनुमति दी थी। जुलाई 2018 में मध्य प्रदेश प्लास्टिक ट्रेडर्स एसोसिएशन ने हर राज्य में समान नियमों की मांग की। यही नारा कई अन्य निर्माताओं और उपभोक्ता वस्तु कंपनियों ने भी दोहराया।
भारत के सबसे बड़े व्यापार संगठन ‘भारतीय वाणिज्य एवं उद्योग महासंघ’ (FICCI) ने भी नियमों में एकरूपता की मांग की। उनका कहना था कि उनका लक्ष्य भारत सरकार के प्रमुख स्वच्छता कार्यक्रम ‘स्वच्छ भारत मिशन’ और “ईज ऑफ डूइंग बिजनेस” के बीच संतुलन बनाना है।

सैमसंग इंडिया इलेक्ट्रॉनिक्स ने भी यह तर्क देते हुए अधिक केंद्रीकरण की मांग की कि अलग-अलग स्थानीय निकायों से निपटना “बहुत महंगा और बेहद समय लेने वाला” है।
अगस्त 2021 तक प्लास्टिक कचरा प्रबंधन नियमों (2021) ने प्रभावी रूप से राज्यों की शक्तियां छीन लीं। इसमें कहा गया, “इस अधिसूचना के बाद जारी किसी भी अधिसूचना, जिसमें थैलों, प्लास्टिक शीटों, बहु-स्तरीय पैकेजिंग व एकल-उपयोग प्लास्टिक के निर्माण, आयात, भंडारण, वितरण, बिक्री और उपयोग को प्रतिबंधित किया गया हो, वह अपनी प्रकाशन तिथि से दस वर्ष पूरे होने के बाद ही प्रभावी होंगी।”

एशिया प्रशांत क्षेत्र में #breakfreefromplastic आंदोलन की पूर्व संयोजक सत्यरूपा शेखर ने कहा, “यह नीति-निर्माण पर एक तरह का रोक है, जो राज्य सरकारों की प्लास्टिक उपयोग को कम करने की नीति निर्माण क्षमता को 10 वर्षों के लिए सीमित कर देता है।” उनका मानना था कि यह रोक संभवतः आगे बढ़ाई जाएगी।

पर्यावरण, वन और जलवायु परिवर्तन मंत्रालय (MoEF&CC) का यह रुख कुछ साल पहले अपनाए गए अपने ही रुख से एक अजीब विचलन को दर्शाता है। 2016 की शुरुआत में जब पंजाब ने सख्त प्लास्टिक प्रतिबंध लागू किया था, तब प्लास्टिक निर्माता और व्यापारी संघ ने एक समान उदार नीति की मांग की थी। उस समय 2016 के प्लास्टिक प्रबंधन नियमों का मसौदा तैयार कर रहे पर्यावरण मंत्रालय ने इस सुझाव को खारिज करते हुए कहा था कि राज्य कड़े मानक रख सकते हैं।”

ये नीतिगत उलटफेर सिर्फ कागजों पर ही नहीं रहे। उन्होंने वैश्विक वार्ताओं में भारत के मौजूदा रुख की पृष्ठभूमि तैयार की। इस बार जब जिनेवा में सभी प्रतिनिधि जुटेंगे, तो उनके सामने जो सवाल सबसे आगे होगा, वह यह है कि क्या भारत अपने उद्योग-हितैषी रुख पर कायम रहेगा या कोई अप्रत्याशित मोड़ आने वाला है?

इंडियास्पेंड ने MoEF&CC और CPCB को पत्र लिखकर प्लास्टिक नियमों के कमजोर पड़ने और MLPs व अन्य वस्तुओं को SUP प्रतिबंध से छूट देने के उनके रुख पर टिप्पणी मांगी है। जवाब मिलने पर हम इस स्टोरी को अपडेट करेंगे।

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