चुनाव 2024: क्या इन चुनावों में वन अधिकार नतीजों को प्रभावित कर सकते हैं?

2019 में भाजपा ने वन अधिकारों के लिहाज से संवेदनशील माने जाने वाली ज्यादातर आदिवासी बहुल सीटों पर जीत हासिल की थी। लेकिन विशेषज्ञों का दावा है कि पिछले पांच सालों में वन कानून और नीतियां को कमजोर किया गया है।

Update: 2024-04-06 07:04 GMT

इमेज क्रेडिट - तन्वी देशपांडे 

मुंबई: अब से बस कुछ ही हफ्तों बाद देश में आगामी आम चुनावों का सिलसिला शुरू हो जाएगा। भाजपा, कांग्रेस समेत तमाम क्षेत्रीय दल कुछ अहम मुद्दों के साथ चुनावी मैदान में उतरेंगे, जो उनकी हार जीत की कहानी तैयार करेंगे। एक विश्लेषण बताता है कि 153 संसदीय निर्वाचन क्षेत्र ऐसे हैं जहां वन अधिकार एक बड़ा मुद्दा हैं। इन क्षेत्रों में रह रहे बड़ी संख्या में लोग अपनी पहचान और आजीविका के लिए जंगलों पर निर्भर हैं। सरकार की वन नीतियां प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप से उनसे जुड़ी हुई हैं और आगामी चुनाव के नतीजों को प्रभावित कर सकती हैं।

2019 के लोकसभा चुनावों में इन क्षेत्रों से जुड़ी से ज्यादातर सीटें भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) के खाते में गईं, तो वहीं इनमें से कई सीटों पर कांग्रेस उपविजेता रही। साल 2006 में कांग्रेस के नेतृत्व वाली संयुक्त प्रगतिशील गठबंधन सरकार ‘अनुसूचित जनजाति और अन्य परंपरागत वन निवासी (वन अधिकारों की मान्यता) अधिनियम’ लेकर आई थी, जिन्हें आमतौर पर वन अधिकार अधिनियम या एफआरए के रूप में जाना जाता है। लेकिन इसके बावजूद 2019 में भाजपा ने उन आदिवासी निर्वाचन क्षेत्रों में जीत हासिल की थी, जहां विभिन्न आंदोलनों के जरिए जल, जंगल, जमीन लोगों की मांगों के केंद्र में रहे हैं।

अनुमान बताते हैं कि भारत की कम से कम 30 मिलियन हेक्टेयर वन भूमि सामुदायिक वन अधिकारों (सीएफआर) के साथ ग्राम सभाओं को दी जा सकती हैं। यह वन भूमि के कुल वन क्षेत्र का 40 फीसदी से अधिक का हिस्सा है। अगर ऐसा होता है तो लगभग 9 करोड़ आदिवासियों सहित कम से कम 20 करोड़ लोगों के अधिकारों और आजीविका को सुरक्षित किया जा सकेगा। देश के लगभग एक-चौथाई यानी 175,000 गांव सीएफआर अधिकार पाने के हकदार हैं। इसका उल्लेख एफआरए में भी किया गया है।

विशेषज्ञों का मानना है कि इन निर्वाचन क्षेत्रों में चुनाव प्रचार करने वाली कोई भी पार्टी अगर जीत की तरफ अपने कदम बढ़ाना चाहती है तो उसे खासतौर पर अनुसूचित जनजातियों के लिए आरक्षित निर्वाचन क्षेत्रों में प्रभावी एफआरए कार्यान्वयन पर खास ध्यान देना होगा। इसके अलावा सालों से खारिज किए गए बड़ी संख्या में सीएफआर दावों, वन भूमि से बेदखली के खतरे से जुड़े मामले, प्रभावी लघु वन उपज की कीमत, अनुसूचित क्षेत्रों की पंचायतों को सशक्त बनाने के लिए बनाए गए PESA (पेसा) एक्ट यानी पंचायत उपबंध (अनुसूचित क्षेत्रों तक विस्तार) अधिनियम, 1996 को सख्ती से लागू करने और वन मामलों को वापस लेने जैसे मामलों को भी उतनी ही मजबूती के साथ उठाना होगा।

जैसे-जैसे मतदान की तारीखें नजदीक आ रही हैं, हम चुनाव के रुझानों पर अपनी नजर बनाए हुए हैं। वन अधिकार क्यों एक चुनावी मुद्दा बना हुआ है और आंकड़े क्या दिखा रहे है? इस बारे में हमने पर्यवेक्षकों से बात की।

आंकड़े क्या कहते हैं

जनजातीय मामलों के राज्य मंत्री बिश्वेश्वर टुडू ने दिसंबर 2023 में संसद को बताया कि अक्टूबर 2023 तक व्यक्तिगत और सामुदायिक वन अधिकारों सहित कुल 18 मिलियन एकड़ से अधिक के लगभग 2.34 मिलियन भूमि के मालिकाना अधिकार एफआरए के जरिए वितरित किए गए हैं। ये इस समय तक प्राप्त हुए दावों का लगभग आधा हिस्सा है, जिनका निपटान किया गया है।

नवंबर 2023 में उनके मंत्रालय की ओर से जारी आंकड़ों से पता चलता है कि निपटाए गए सीएफआर और व्यक्तिगत वन अधिकार (आईएफआर) दावों की संख्या मई 2014 तक 23,578 थी। यह वही समय था जब भाजपा के नेतृत्व वाला राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन सत्ता में आया। जून 2023 तक स्वीकार किए दावों की संख्या लगभग चार गुना बढ़कर 86,621 हो गई। वहीं वितरित भूमि की सीमा भी दोगुनी से अधिक हो गई। 2014 से पहले यह 5.5 मिलियन एकड़ थी जो साल 2023 में बढ़कर 12.3 मिलियन एकड़ हो गई।

भले ही आंकड़े अलग तस्वीर पेश करते हों, लेकिन जमीनी स्तर पर देखा जाए तो वास्तव में एफआरए को लागू करने का काम काफी कमजोर रहा है। बार-बार यह बात साबित भी हुई है। हाल ही में एक फैक्ट फाइंडिंग कमेटी ने भारत में एफआरए कार्यान्वयन पर जनजातीय मामलों के मंत्रालय को अपनी रिपोर्ट सौंपी। इस रिपोर्ट में कई मामलों को लेकर चिंता जाहिर की गई थी। मसलन ग्राम सभा की सिफारिशों पर निर्णय लेने के लिए किसी तरह की समय-सीमा का पालन नहीं करना, भूमि के बहुत छोटे टुकड़ों के लिए आईएफआर टाइटल दिए जाना, सामुदायिक अधिकारों पर अपर्याप्त ध्यान और एफआरए मान्यता प्रक्रिया से वंचित अन्य परंपरागत वन निवासी।

केंद्र सरकार का कार्यकाल जून में समाप्त हो रहा है। नई रिसर्च बताती है, "केंद्र सरकार द्वारा नीतिगत हस्तक्षेप, खास तौर पर MOEFCC/वन नौकरशाही ने विधायी और नीतिगत बदलावों के जरिए एफआरए को कमजोर करने के प्रयास किए हैं..." एमओईएफसीसी पर्यावरण, वन और जलवायु परिवर्तन मंत्रालय है। इस रिसर्च रिपोर्ट को स्वतंत्र वन शोधकर्ताओं के एक समूह ने तैयार किया और इसे इंडियास्पेंड के साथ साझा किया था। यहां जिन विधायी और नीतिगत बदलावों का जिक्र किया गया है, उसमें प्रतिपूरक वनीकरण कोष अधिनियम, राष्ट्रीय वन नीति का मसौदा, भूमि अधिग्रहण, पुनर्वास और पुनर्व्यवस्थापन अधिनियम (एलएआरआर) में किए गए बदलावों के साथ-साथ 2023 में वन संरक्षण अधिनियम (एफसीए) में हालिया संशोधन शामिल हैं।

बीते पिछले पांच साल कई आंदोलनों के गवाह रहे हैं। जहां एक तरफ छत्तीसगढ़ में हसदेव जंगल बचाओं आंदोलन चला तो वहीं एफसीए संशोधन के बाद पूर्वोत्तर भारत में जंगलों के नुकसान पर चिंता जाहिर की गई। 2020-21 में गोवा में जंगलों को बचाने के लिए ‘मोलेम बचाओ आंदोलन’ को भी अनदेखा नहीं किया जा सकता है।

2019 के चुनावी आंकड़े

वन खतरे में हैं, तो उन लोगों के जीवन और आजीविका का क्या होगा जो उन पर निर्भर हैं? मतदान करते हुए उन्हें कौन से मुद्दे प्रभावित करते हैं और परंपरागत रूप से वह कैसे मतदान करते आए हैं? 2019 के चुनावी आंकड़े क्या बताते हैं? आईए इस पर एक नजर डालते हैं।

सोज एक स्वतंत्र वन शोधकर्ता हैं और उन्होंने इस रिसर्च रिपोर्ट पर काम किया है। वह कहती हैं, "इस अधिनियम (एफआरए) को लागू हुए 17 साल हो गए हैं, लेकिन हमें इसकी 20-30% क्षमता भी हासिल होती नहीं दिख रही है।" हमने अपने इस प्रयास (रिसर्च) में यह समझने की कोशिश की है कि आगामी चुनावों में वन अधिकार से जुड़े मसले किस हद तक प्रभावित कर सकते हैं और वे प्रत्येक निर्वाचन क्षेत्र में कितने महत्वपूर्ण साबित होंगे।”

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रिसर्च टीम ने पाया कि भारत के 545 संसदीय निर्वाचन क्षेत्रों में से 270 में एफआरए एक बड़ा मुद्दा है। लेकिन अगर उन सीटों को हटा दिया जाए जहां अन्य मुद्दे ज्यादा हावी हैं, तो ऐसी सीटों की संख्या घटकर 153 रह जाती हैं।

इन 153 में से भाजपा ने 2019 में बहुमत से 103 सीटें जीतीं और 18 सीटों पर दूसरे नंबर पर रही। वहीं कांग्रेस ने सिर्फ 11 सीटों पर जीत हासिल की और 79 में उपविजेता रही। बाकी की सीटें मसलन आंध्र प्रदेश (5), महाराष्ट्र (10), ओडिशा (11), तेलंगाना (5) और अन्य पर क्षेत्रीय दलों का दबदबा रहा।

अगर 153 सीटों को और तोड़ा जाए तो ऐसे 45 निर्वाचन क्षेत्र बचते हैं जहां वन अधिकारों को ध्यान में रखकर वोट करने वाले मतदाताओं (वोट देने और वन अधिकारों के हकदार लोगों) की संख्या सबसे अधिक है। वन अधिकारों के लिहाज से यह क्षेत्र काफी महत्वपूर्ण माने जाते हैं।

आंकड़ों से पता चलता है कि बस्तर के अनुसूचित जनजाति-आरक्षित निर्वाचन क्षेत्र में 72% मतदाता एफआरए अधिकार पाने के हकदार हैं। कांग्रेस ने 2019 में यह सीट जीती थी। वहीं झारखंड के खूंटी और चतरा में ऐसे मतदाताओं का प्रतिशत 68% और 67% हैं। ये दोनों ही सीटें भाजपा के खाते में गईं थीं। मध्य प्रदेश के मंडला और महाराष्ट्र के गढ़चिरौली-चिमूर निर्वाचन क्षेत्रों में वन अधिकारों के पाने वाले योग्य मतदाताओं की संख्या समान थी। यहां भी भाजपा ने जीत हासिल की थी। ओडिशा के क्योंझर में 72% मतदाता वन अधिकार के हकदार हैं, उन्होंने बीजू जनता दल (बीजेडी) को वोट दिया। मयूरभंज में 74% पात्र मतदाताओं ने भाजपा को वोट दिया, जबकि नबरंगपुर में 84% ने बीजद को अपना समर्थन दिया था।

रिसर्च रिपोर्ट में शामिल तुषार दास ने कहा, "वन अधिकार हमेशा से एक राजनीतिक मुद्दा रहा हैं। अगर आप पिछले साल विभिन्न राज्यों में हुए विधानसभा चुनावों पर नजर घुमाएं तो कहानी समझ आने लगेगी। उदाहरण के लिए छत्तीसगढ़ में कांग्रेस ने वन अधिकारों के बारे में बात तो की, लेकिन हसदेव जंगल को बचाने के मुद्दे पर कुछ नहीं किया। यहां पार्टी हार गई (कुछ हद तक उसके कारण)। इसने तेलंगाना में आंशिक रूप से जीत हासिल की क्योंकि इसने पोडु (वन) भूमि खेती के अधिकार जैसे विषयों पर अभियान चलाया। वन अधिकार भारत में लोगों के लिए आर्थिक मुद्दे भी हैं।”

दास ने वन स्वामित्व दावों को बड़े पैमाने पर अस्वीकार किए जाने, बड़ी संख्या में गांवों को सामुदायिक स्वामित्व से वंचित करने, लघु वनोत्पाद के स्वामित्व और उस तक समुदायों की पहुंच के मुद्दों का हवाला देते हुए कहा कि मौजूदा समय में एफआरए के कार्यान्वयन को गंभीर रूप से कमजोर किया गया है।

चुनावी वादे

फिलहाल कांग्रेस पार्टी ने "आदिवासियों की जल, जंगल, जमीन की सुरक्षा के लिए" छह संकल्पों का वादा किया है। इनमें एक समर्पित एफआरए प्रभाग, अलग बजट और कार्य योजनाओं के जरिए एफआरए के प्रभावी कार्यान्वयन के लिए एक राष्ट्रीय मिशन भी शामिल है।

कांग्रेस अध्यक्ष मल्लिकार्जुन खड़गे ने 12 मार्च को प्लेटफॉर्म एक्स (पहले ट्विटर) पर पोस्ट किया था, "हम 1 साल के भीतर सभी लंबित एफआरए दावों का निपटान करेंगे और 6 महीने के भीतर सभी खारिज किए गए दावों की समीक्षा के लिए एक प्रक्रिया की भी शुरुआत करेंगे।"

संकल्पों में अनुसूचित क्षेत्रों को अधिसूचित करने, पेसा के अनुरूप 'ग्राम सरकार' और 'स्वायत्त जिला सरकार' की स्थापना, लघु वनोत्पादों को एमएसपी में शामिल करने के वादे भी किए गए हैं।

अभी तक भाजपा के राष्ट्रीय नेतृत्व की ओर से एफआरए/पेसा को मजबूत करने पर कोई चुनावी वादा नहीं किया गया है।

झारखंड के वन अधिकार कार्यकर्ता फादर जॉर्ज मोनापिल्ली ने बताया कि वन अधिकारों की सुरक्षा का वादा करने वाली किसी भी पार्टी को सबसे पहले ग्राम सभा को मजबूत करना होगा।

मोनापिल्ली कहते हैं, “यह पूरा सिस्टम उस ग्राम सभा के अधिकार को मान्यता नहीं देता है, जिसके पास एफआरए के अनुसार अदालत जैसी शक्तियां हैं। ग्राम सभा वन विभाग की सिफारिशों को भी खारिज कर सकती है। लेकिन पूरे भारत में कोई भी राज्य इसके अधिकार को बरकरार नहीं रख रहा है। अगर सरकार एफआरए कार्यान्वयन में सुधार के बारे में गंभीर है तो उसे सबसे पहले ग्राम सभाओं को मजबूत करना होगा।''

अनुवाद- संघप्रिया मौर्य



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