पुलिवेंदुला (आंध्र प्रदेश) और बेंगलुरु: एक नीम के पेड़ की छाया में अपने छोटे से एक कमरे के घर के सामने पी. मैरी अपने छह महीने के जुड़वां पोते को दुलारती हैं। जैसे ही गर्मी कम होती है और हवा चलती है, मैरी अपने पति मनोहर और सबसे छोटी बेटी श्रीलेखा के साथ पास की एक एकड़ भूमि पर चली जाती हैं। उस जमीन पर उन्होंने एक सप्ताह पहले ही केले की खेती शुरू की है।

इन खेतों में श्रृंखलाबद्ध तरीके से एक काले रंग की ड्रिप पाइप (सिंचाई के पाइप) लगी हुई है। उन्हीं पाइप के आस-पास वे टमाटर और मिर्च के बीजों की बुआई करते हैं। हालांकि इस बीजारोपण से पहले वे वहां बीजामुरुथम नामक एक लेप को मिट्टी में पंक्तिबद्ध तरीके से मिलाते हैं। यह लेप गोबर, गोमूत्र और चूने से तैयार किया जाता है।

मैरी और उनका परिवार वाईएसआर जिले (पहले कडप्पा) के वेमुला मंडल में रहते हैं। 25 वर्षों से वे खेती का काम करते हैं। पहले वे कपास और मूंगफली रासायनिक खाद से उगाते थे। उन्होंने 2019 से प्राकृतिक खेती की ओर रुख किया है। मैरी कहती हैं, "जमीन (अब) नरम हो गई है। उपज ताजा रहती है और यह एक स्वस्थ विकल्प है।"

मैरी उन 60 लाख किसानों में से एक हैं, जिनके जरिए आंध्र प्रदेश 2031 तक प्राकृतिक खेती की तरफ बढ़ने का प्रयास कर रहा है और इससे जुड़ी योजनाएं बना रहा है। आंध्र प्रदेश सामुदायिक प्रबंधित प्राकृतिक खेती (एपीसीएनएफ) को रयथु साधिका संस्था (आरवाईएसएस) द्वारा कार्यान्वित किया जाता है, जो एक गैर-लाभकारी किसान सशक्तिकरण समूह है।

इस योजना का इरादा खेती की उच्च लागत को कम करके कृषि संकट का प्रबंधन करना है। खेती के उच्च लागत के कारण ही किसान ऋण के जंजाल में फंसते जाते हैं। साथ ही यह योजना लाभकारी कीमतों का समर्थन कर, फसल की पैदावार में सुधार करता है। यह खपत के लिए सुरक्षित एवं स्वस्थ भोजन के उत्पादन में भी मदद करता है। अगस्त 2022 तक एपीसीएनएफ ने 3,700 से अधिक ग्राम पंचायतों को कवर किया था और अगले तीन वर्षों में आंध्र प्रदेश के 13,371 पंचायतों तक पहुंचने की योजना है।

खेतों में महिलाएं करती हैं ज़्यादा परिश्रम

पूरे भारत में ज्यादातर जगहों पर जमीनें पुरुषों के नाम पर होती हैं। हालांकि अगर देखा जाए तो कृषि के काम का ज्यादातर बोझ महिलाएं उठाती हैं। 55% पुरुषों की तुलना में ग्रामीण भारत में चार में से तीन से अधिक महिलाएं कृषि में लगी हुई हैं। पूरे भारत में जितने भी खेती की जमीन महिलाओं के नाम पर है, उसमें से 12.6 प्रतिशत हिस्सा आंध्र प्रदेश की महिला किसानों का है। वहीं अगर हर राज्य की तुलना की जाए तो महिलाओं के नाम पर जो जमीन है, उसका 92 फीसदी हिस्सा 12 राज्य के महिला किसानों के पास है। यह बातें 2015-16 कृषि जनगणना के रिपोर्ट में सामने आई थी।

भारत में महिला किसानों के अधिकारों को सुरक्षित करने के लिए काम करने वाले संगठन महिला किसान अधिकार मंच (MAKAAM) की राष्ट्रीय सदस्य सीमा कुलकर्णी ने कहा, "खेती में महिलाओं की भागीदारी की संख्या काफी अधिक है। हालांकि इसे अवैतनिक या नहीं गिने जाने वाले श्रम के रूप में देखा जाता है। भले ही खेती में सशुल्क नौकरियों के अवसर घटते हुए दिख रहे हैं, लेकिन इस काम में महिलाओं की भागीदारी अधिक है।"

आरवाईएसएस में एक इंस्टीट्यूशन बिल्डिंग (आईबी) विभाग है, जो प्राकृतिक खेती की तरफ अग्रसित कृषक समुदाय के साथ मिलकर काम करता है और मुद्दों एवं समाधानों की पहचान करने में मदद करता है। आईबी की कोऑर्डिनेटर टी. प्रणिता ने कहा, “ज्यादातर पुरुष पर्यवेक्षण (सुपरविजन) का काम कर रहे हैं, (जबकि) महिला किसान खेती में पूरी तरह से शामिल हैं।"

वर्ष 2015-16 में राज्य के कृषि विभाग ने सुझाव दिया कि पुरुष किसानों के साथ काम करके महिला किसानों को भी प्राकृतिक खेती की तरफ ले जाने का समर्थन किया जा सकता है। ऐसा इसलिए करना चाहिए क्योंकि भूमि उनके स्वामित्व में थी।

नाम न बताने की शर्त पर आरवाईएसएस के एक वरिष्ठ अधिकारी ने इंडियास्पेंड को बताया, "लगभग एक साल तक हम इस दृष्टिकोण के साथ आगे बढ़ते रहे, लेकिन खेतों में ज्यादातर काम महिलाओं द्वारा किया जाता है। इसका मतलब यह था कि प्रगति के लिए हमें आम तौर पर किसान परिवारों और विशेष रूप से महिला किसानों के साथ काम करना था।"

प्राकृतिक खेती की तरफ बढ़ती हुई आंध्र प्रदेश की महिलाएं

आंध्र प्रदेश में तीन चौथाई से अधिक कृषक परिवार छोटे और सीमांत हैं, जिनके पास औसतन दो हेक्टेयर या उससे कम जमीन है। रासायनिक कृषि में छोटी जोत की खेती अलाभकारी प्रतीत होती है। पूरे भारत में सबसे अधिक ऋणग्रस्त परिवार आंध्र प्रदेश से हैं, जिनकी औसत ऋणग्रस्तता प्रति परिवार लगभग 2.5 लाख रुपये है।

समाधान खोजने के प्रयास में 2004 में आंध्र प्रदेश ने गैर-सिंथेटिक रासायनिक कीट प्रबंधन, मृदा स्वास्थ्य सुधार और जल संरक्षण पर ध्यान देने के साथ-साथ समुदाय-प्रबंधित सतत कृषि के माध्यम से खेती की वैकल्पिक प्रणालियों के साथ प्रयोग करना शुरू किया।

सरकार ने 2016-17 में एपीसीएनएफ (तब इसे ‘एपी जीरो बजट नेचुरल फार्मिंग’ कहा जाता था ) लॉन्च किया। कार्यक्रम में 2024 तक 1800 करोड़ रुपये का खर्च निर्धारित किया गया है। यह धन केंद्र सरकार के कार्यक्रमों, भारतीय प्राकृतिक कृषि पद्धति (बीपीकेपी) और परम्परागत कृषि विकास योजना (पीकेवीवाई) के माध्यम से प्राप्त किया जाता है। साथ ही जर्मनी की केएफडब्ल्यू नामक बैंक से ऋण भी लिया गया है। इसके अलावा इसमें अजीम प्रेमजी की संस्था से 100 करोड़ रुपये का अनुदान भी मिला है।

वरिष्ठ आरवाईएसएस अधिकारी ने बताया कि एपीसीएनएफ के आंकड़े बताते हैं कि राज्य में 140,000 महिला स्वयं सहायता समूह (एसएचजी) और 5,300 से अधिक संघ हैं। यह कार्यक्रम किसी विशेष व्यक्ति के साथ नहीं समूहों के साथ काम करता है। महिला स्वयं सहायता समूह (एसएचजी) एक ऐसा मंच था जहां से इस योजना को आसानी से आगे बढ़ाया जा सकता था। महिला स्वयं सहायता के अलग-अलग संघों में सदस्य नियमित रूप से क्रेडिट, कम खर्ची और आजीविका से संबंधित मुद्दों पर चर्चा करते हैं। कुल मिला कर इस काम को करने के लिए यह एक तैयार मंच था।

महिलाओं के समूह और महासंघ के बीच एक सप्तसूत्रीय अभियान बनाया गया। जहां प्राकृतिक खेती, प्राकृतिक खाद्य पदार्थ, प्राकृतिक रसोई उद्यान, प्राकृतिक फार्म, प्राकृतिक संसाधन, प्राकृतिक खेती के रिकॉर्ड और प्राकृतिक खेती के फंड के रूप में सात सूत्रीय कार्यक्रम बना।

आरवाईएसएस के साथ आईबी कोऑर्डिनेटर प्रणिता ने बताया कि 2018-19 में जब उन्होंने वेमुला में कुछ पुरुष किसानों से संपर्क किया, तो उन्होंने प्राकृतिक खेती में भाग लेने से इनकार कर दिया। हालांकि गांव की एक महिला किसान ने प्राकृतिक तरीकों का उपयोग करके खेती करने का फैसला किया और उसके जब परिणाम दिखने लगे तो पुरुषों को राजी किया गया।

तल्लापल्ले में अगस्त 2022 में स्वयं सहायता समूह की एक बैठक का दस्तावेजीकरण किया गया, जहां महिलाएं विभिन्न मामलों पर चर्चा करती हैं, जिसमें प्राकृतिक कृषि पद्धतियों की जानकारी भी शामिल है।

प्राणिता ने बताया, "यह मेरा पहला अनुभव था। शुरुआत में (पुरुष) किसान (जिन्होंने मना कर दिया था) एक एकड़ में खेती करते थे, अब वह पट्टे की जमीन पर सात एकड़ जमीन में खेती (प्राकृतिक खेती) कर रहे हैं।"

मैरी ने कहा, "मैं शुरू में इन नए तरीकों को आजमाने के लिए अनिच्छुक थी लेकिन आरवाईएसएस और सीएसए (सेंटर फॉर सस्टेनेबल एग्रीकल्चर) से प्रणिता और अन्य लोग बार-बार आए और मुझे इसे आजमाने के लिए प्रोत्साहित किया।" इसके बाद मैरी ने अपने पति को मना लिया, और शुरू में एक किचन गार्डन में हाथ आजमाया, जिसके परिणाम अच्छे रहे।

तल्लापल्ले गांव में 10 किमी से भी कम दूरी पर, टी. गंगोजम्मा (एक दलित किसान) रहते हैं। उनके पास 2.5 एकड़ की एक छोटी सी जमीन है। वह जीवामृतम नामक एक फर्मेंटेड माइक्रोबियल कल्चर तैयार करती है, जिसे वह अपने खेत पर छिड़कती है। जहां वह कपास, दाल और सब्जियां उगाती हैं। लाखों किसानों को प्राकृतिक खेती की ओर मोड़ने के लिए आंध्र प्रदेश का जो अभियान है, वह गंगोजम्मा और उनकी बेटी प्रभावती जैसी महिलाओं पर निर्भर करता है। प्रभावती ग्राम संगठन की अध्यक्ष भी हैं, जो 10-15 स्वयं सहायता समूह का एक संगठन है।

वह SHG बैठकों में अन्य महिलाओं को किचन गार्डन और प्राकृतिक खेती के बारे में शिक्षित करती हैं और कहती हैं, "जब हम पहले महिलाओं के बीच जागरूकता पैदा करते हैं। इसके बाद महिलाएं पुरुषों से संवाद करती हैं। फिर वे महिलाएं पुरुषों को इसके बारे में बताती हैं और उन्हें इसे आजमाने के लिए राजी कर लेती हैं।"

प्रभावती ने कहा, "अगर लोगों के पास 10 एकड़ जमीन है तो शुरुआत में पूरी जमीन पर प्राकृतिक खेती करना मुश्किल होगा, क्योंकि उन्हें गोमूत्र, गोबर, सूखे पत्ते आदि जैसे चीज़ें प्राप्त करने होंगे। इसलिए हम उनसे कहते हैं कि पहले एक एकड़ में करें और इसका परिणाम देखें। अगर आपको लगता है कि यह अच्छा है तो आप इसे जारी रख सकते हैं और रासायनिक और जैविक खेती के बीच के अंतर की जांच कर सकते हैं।"

आरवाईएसएस अधिकारी ने कहा कि जैसे ही अभियान ने गति पकड़ी, एसएचजी सदस्यों के पति/पत्नियों ने प्राकृतिक खेती पर हुई बैठकों में भाग लेना शुरू कर दिया, और महिलाएं और पुरुष अब एक साथ फसल उगाने से संबंधित फैसले लेते हैं। परिणामस्वरूप हमने देखा कि वे 20 से अधिक फसलें उगा रहे हैं।"

प्राकृतिक खेती से मिलने वाला आर्थिक लाभ

मैरी और गंगोजम्मा जैसे छोटे और सीमांत किसान को ने जब से प्राकृतिक खेती को अपनाया, उनकी आय में सुधार हुआ है, क्योंकि पहले बीज, उर्वरक और कीटनाशकों जैसी जरूरी चीजों की लागत काफी ज्यादा थी।

2019 तक ग्रामीण भारत में कृषि परिवारों से जुड़े भूमि और पशुधन की एक रिपोर्ट के अनुसार पिछले छह सालों में खेती की उच्च लागत के कारण 50.2% कृषि परिवार कर्ज में थे, और उनका औसत बकाया ऋण 58% बढ़कर लगभग 74,000 रुपये हो गया था।

टी. गंगोजम्मा, एक दलित किसान, तल्लापल्ले में अपने छोटे से खेत में काम करती हैं, जहां वह कपास और अन्य फसलें उगाती हैं।

मैरी ने अपने पति मनोहर से परामर्श करने के बाद कहा, "जब हम पारंपरिक रासायनिक खेती कर रहे थे, तब खेती की लागत अधिक थी और जब हमने प्राकृतिक खेती की ओर रुख किया तो लागत 60 फीसदी कम था। हमारी लागत प्रत्येक मौसम में 10,000 रुपये प्रति एकड़ हुआ करती थी। बहु फसल (मल्टी क्रॉपिंग) खेती करने के बाद अब यह लागत गिरकर 3,000 रुपये प्रति एकड़ हो गई है"

परिवार अपनी 2 एकड़ जमीन पर केले उगाने के लिए मजदूरों को काम पर रखने सहित लगभग 5,000 रुपये खर्च करता है। वे लगभग 60 टन केले की कटाई करने में सक्षम हैं और प्रति टन 10,000 रुपये से 15,000 रुपये के बीच कमाते हैं। मनोहर की ड्राइवर की नौकरी को जोड़ दें तो उनका परिवार कुल मिलाकर सालाना लगभग 3 लाख रुपये कमाता है।

गंगोजम्मा ने यह भी पुष्टि की कि उन्होंने रसायनों और कीटनाशकों पर लागत कम करके पैसे बचाए हैं। उन्होंने कहा, "प्राकृतिक खेती में 2,000 रुपये से अधिक की लागत नहीं आती है। पहले मैंने 8,000 रुपये प्रति एकड़ खर्च किया था।" गंगोजम्मा प्रति सीजन 50,000 रुपये कमाती हैं; इंटरक्रॉपिंग और कई फसलें उगाने से भी फसल खराब होने का खतरा कम हो जाता है।

प्राकृतिक खेती के सबसे बड़े लाभों में से एक है - स्वास्थ्य। दोनों महिलाओं ने कहा कि महामारी के दौरान भी वे स्वस्थ रहीं। इसके अलावा उनकी सब्जी की फसल का अधिशेष अक्सर परिवार और पड़ोसियों के साथ साझा किया जाता है।

वहीं व्यक्तिगत किसानों को भी यह पता चल रहा है कि प्राकृतिक खेती में स्विच करने से आर्थिक लाभ होता है। राज्य की बैलेंस शीट भी इस चीज को दर्शाती है। यह अनुमान लगाया गया है कि जब किसान 60 लाख हेक्टेयर भूमि पर प्राकृतिक खेती की ओर बढ़ते हैं तो उर्वरक और बिजली सब्सिडी से बचत 54,000 करोड़ रुपये से अधिक हो सकती है। अकेले 2021-22 में बिजली सब्सिडी 9,000 करोड़ रुपए बताई गई थी।

आरवाईएसएस अधिकारी ने कहा, "हमारे अब तक के अनुभव के आधार पर हमारा अनुमान है कि सात से 10 साल की अवधि में इस परिवर्तन के लिए प्रति कृषक परिवार को 15,000 रुपये की आवश्यकता होगी और मुद्रास्फीति के साथ यह लगभग 13,000 करोड़ रुपये हो सकता है। हालांकि सभी किसान ऐसा नहीं कर सकते हैं। हम उम्मीद कर रहे हैं कि 80 फीसदी किसान प्राकृतिक खेती की तरफ आगे बढ़ सकते हैं।"

प्राकृतिक खेती महिलाओं पर बोझ नहीं बनना चाहिए बल्कि उन्हें सशक्त बनाना चाहिए

यह देखते हुए कि महिलाएं पहले से ही कृषि में बहुत अधिक काम करती हैं, क्या एपीसीएनएफ जैसा कार्यक्रम उन पर और भी अधिक बोझ डालता है, जबकि पुरुषों को जिम्मेदारी से बचने की अनुमति देता है?

सेंटर फॉर सस्टेनेबल एग्रीकल्चर के कार्यकारी निदेशक जीवी रमनजनेयुलु ने कहा, "डिजाइन के अनुसार हमें ‘निर्णयकर्ता’ के लिए जगह बनाने की जरूरत है। महिलाएं केवल मजदूर नहीं हैं, उन्हें प्रबंधकों और संसाधन की व्यवस्था करने वाले एक व्यक्ति के रूप में देखा जाना चाहिए, जो उनके लिए सम्मान की भावना पैदा करता है।"

तल्लापल्ले गांव में गाय के गोबर, गोमूत्र और मिट्टी से बायो-इनपुट बना रही महिलाएं, जिनका इस्तेमाल उनके खेतों में किया जाएगा। फोटो अगस्त 2022 की है

विशेषज्ञों का कहना है कि महिलाओं को जमींदार के रूप में देखना भी महत्वपूर्ण है। साथ ही उनके लिए जमीन पर अधिकार हासिल करना आसान बनाना है। उदाहरण के लिए आत्महत्या करने वाले कर्जदार किसानों की कम से कम 29 फीसदी पत्नियां अपने पति की जमीन को अपने नाम पर स्थानांतरित करने में सक्षम नहीं थीं। महिला किसान अधिकार मंच के द्वारा 2018 में किए गए एक अध्ययन में ऐसा कहा गया है। इंडियास्पेंड ने सितंबर 2019 में इससे संबंधित एक ख़बर को प्रकाशित भी किया था।

खेतों में श्रमिकों के रूप में महिलाओं की भूमिका के बावजूद अंतर्राष्ट्रीय गैर-लाभकारी ऑक्सफैम की 2022 की रिपोर्ट से पता चलता है कि श्रम बाजार में महिलाओं के खिलाफ लिंग आधारित भेदभाव, ग्रामीण क्षेत्रों में वेतनभोगी और स्व-नियोजित महिलाओं द्वारा सामना की जाने वाली 100 फीसदी रोजगार असमानता का कारण बनता है। शहरी क्षेत्रों में यह 98 फीसदी है।

इन्हीं कारणों से महिला किसानों और श्रमिकों के साथ काम करने वाले कार्यकर्ता और विद्वान महसूस करते हैं कि महिलाओं को गैर-रासायनिक खेती या पारंपरिक कृषि लक्ष्यों को प्राप्त करने की प्रक्रिया में सशक्त होना चाहिए।

प्राकृतिक खेती में महिला किसानों को सशक्त बनाने के बारे में सोचते समय पांच पहलुओं पर विचार किया जाना चाहिए, जिसमें खेतों के बारे में निर्णय लेना, भोजन से पोषण, खेतों में काम करने के दौरान कठिन परिश्रम में कमी, उनकी आजीविका और महिलाओं के नेतृत्व वाली संस्थाओं की भूमिका शामिल है।

एक स्वयंसेवी नेटवर्क एलायंस फॉर सस्टेनेबल एंड होलिस्टिक एग्रीकल्चर के साथ काम करने वाली एक सामाजिक कार्यकर्ता कविता कुरुगंती ने कहा कि कृषि पारिस्थितिकी (इसे एग्रोइकोलॉजी भी कहते हैं। इसमें प्राकृतिक खेती शामिल है) हरित क्रांति के विपरीत महिला किसानों के लिए अधिक स्थान प्रदान करती है। हरित क्रांति में महिलाओं को वह स्थान न मिल पाने का सबसे बड़ा कारण महिलाओं का ज्यादा दूरी की यात्रा न कर पाना, बीजों का विकल्प तय करने में शक्ति की कमी, रासायनिक उपयोग, वित्तीय फैसलों में कम भागीदारी आदि हैं।

कुरुगंती ने हालांकि यह भी आगाह किया कि प्राकृतिक खेती में महिलाओं की भूमिका के दृष्टिकोण को संशोधित करने की आवश्यकता हो सकती है। विशेष रूप से पुरुषों को "सुरक्षित भोजन और पोषण" के लिए भी जिम्मेदार होना चाहिए।

महिला किसान अधिकार मंच के कुलकर्णी ने कहा, "प्राकृतिक खेती को आगे ले जाने के लिए महिलाओं को एक साधन के रूप में प्रयोग नहीं करना चाहिए।" उन्होंने कहा कि जहां महिलाएं एपीसीएनएफ को लेकर उत्साहित हैं, वहीं पुरुषों ने यह काम महिलाओं पर छोड़ दिया है। "जबकि स्वयं सहायता समूह छोटे ऋण प्रदान करते हैं। अधिकांश महिलाएं संस्थागत ऋण द्वारा कवर नहीं की जा सकती हैं। एक सहायक सेवा होनी चाहिए (जैसे खेती करने के संसाधन के लिए जैव-संसाधन केंद्र) जो भूमिहीन महिलाओं को रोजगार प्रदान करती है। शायद मनरेगा के साथ अभिसरण के माध्यम से खेती के लिए संसाधन विकसित करने के का प्रयास किया जा सकता है। एपीसीएनएप विस्तार के लिए केवल स्वयं सहायता मॉडल पर निर्भर नहीं रहा जा सकता। वित्तीय सहायता के और भी विकल्प होने चाहिए।

गायत्री महिला रयथू संघ (गायत्री महिला किसान समूह) एक किसान उत्पादक संगठन है, जो वेम्पल्ले मंडल में स्थित है और सीएसए द्वारा समर्थित है। इसमें 200 से अधिक महिला सदस्य हैं। ये संस्था अनाज एवं अन्य उपज को बाजार में इकट्ठा करती है। 2014 में इसके निर्माण के बाद से आठ वर्षों में इसका लगभग 55 लाख रुपये का कारोबार हुआ है, जिसमें 50 सदस्य जैविक और प्राकृतिक खेती कर रहे हैं।

मल्लेश्वरम्मा (बाएं से दूसरी), अगस्त 2022 में वेम्पल्ले में विशेष रूप से महिला किसान उत्पादक संगठन के अन्य सदस्यों के साथ खींची गई तस्वीर

इस संगठन की अध्यक्ष मल्लेश्वरम्मा (55 वर्षीय ) एक किसान भी हैं। उनके पास एक अन्य किसान उत्पादक संगठन में काम करने का पूर्व अनुभव था। जहां पुरुषों का प्रभुत्व था और महिला किसानों के दृष्टिकोण की कमी थी, जिसने उन्हें महिलाओं से संबंधित किसान उत्पादक संगठन का पता लगाने के लिए प्रेरित किया।

इस संगठन का उद्देश्य कीटनाशकों के बिना उत्पादन करना है। मल्लेश्वरम्मा ने कहा, "महिलाएं स्वास्थ्य के बारे में अधिक चिंतित हैं। हम उन किसानों की पहचान करते हैं जो अच्छी प्रथाओं (खेती से संबंधित) का पालन कर रहे हैं और हम उन्हें बाजार मूल्य से 10% अधिक भुगतान करते हैं। हम अनाज को ग्रेड करते हैं। स्नैक्स, धनिया पाउडर, (पैकेज्ड) बाजरा तैयार करते हैं, जो ऑर्गेनिक हैं। ऑर्गेनिक को बढ़ावा देने के लिए हमारे पास इसके लिए एक लेबल है।"

हानिकारक रसायनों का उपयोग करके उगाई जाने वाली उपज के स्वास्थ्य प्रभावों के परिणामस्वरूप प्राकृतिक खेती सबसे पहले स्व-उपभोग के लिए शुरू हुई। आरवाईएसएस अधिकारी ने कहा कि धीरे-धीरे बाजार और उचित कीमतों तक पहुंच के साथ प्राकृतिक खेती का विस्तार हो रहा है। इस विस्तार में और मदद करने के लिए अधिकारी ने कहा, सरकारों को प्राकृतिक खेती के पक्ष में एक स्पष्ट रुख अपनाना होगा और रासायनिक खेती के बारे में तटस्थ रहना होगा ताकि किसान इसकी नीति के बारे में भ्रमित न हों।

महिला किसान अधिकार मंच के कुलकर्णी ने कहा, इसके अलावा इसे इनपुट और आउटपुट मार्केटिंग के लिए रायथु भरोसा केंद्र (कृषि सेवा सहायता केंद्र) से जोड़ा जाना चाहिए, जिसके लिए सरकार द्वारा बजटीय आवंटन की आवश्यकता होती है।

कुरुगंती ने कहा कि बड़े किसान जो अपनी सभी उपज स्थानीय स्तर पर नहीं बेच सकते हैं, वे मांग कर रहे हैं कि उनके जैविक उत्पादों के लिए बाजार बनाए जाएं, जिसके बिना उन्हें रासायनिक कृषि उत्पादों के साथ-साथ नियमित बाजारों में बेचना होगा।

तिरुमाला तिरुपति देवस्थानम प्राकृतिक तरीकों से खेती की गई उपज के लिए सफलतापूर्वक एक बाजार बनाने का एक उदाहरण है, जिसने 2021 में अपनी दैनिक आवश्यकताओं के लिए प्राकृतिक कृषि उपज की खरीद शुरू की थी। इसमें 300 से अधिक अन्य मंदिर भी शामिल हैं। लगभग 2,000 हेक्टेयर में प्राकृतिक खेती की गई। 1500 टन उत्पादन और खरीद की गई थी। रामंजनयेलु ने कहा कि किसानों ने रासायनिक रूप से खेती किए गए उत्पादों की तुलना में 15% अधिक कमाया।

रामंजनयेलु ने कहा कि 2022-23 में एपीसीएनएफ का अनुमान है कि यह खरीद के लिए 25,000 हेक्टेयर जमीन को जोड़ेगा। इस पूरे जमीन पर 12 अलग-अलग फसल उगाए जाएंगे, जिससे लगभग 15,000 टन का उत्पाद होगा। उम्मीद यह है कि उत्पाद के उपभोक्ताओं के रूप में आंगनवाड़ी और अन्य सरकारी संस्थानों को शामिल करने के लिए मॉडल धीरे-धीरे बढ़ेगा।

अभी जब मैरी अपने खेत में केले की फसल की प्रतीक्षा कर रही है, वह प्राकृतिक खेती जारी रखने और अपने खेत में कई फसलें उगाने की उम्मीद करती है। वह कहती हैं कि वह अन्य महिलाओं को भी इसे अपनाने के लिए प्रोत्साहित करेंगी।

(सेंटर फॉर सस्टेनेबल एग्रीकल्चर के एक कार्यक्रम के अधिकारी ए.एल. रमना ने रिपोर्टिंग के दौरान अनुवाद में मदद की है।)