माउंट आबू: 2016 में, विश्व बैंक की ओर से ‘कारोबार सुगमता ’ की रैंकिंग में भारत 190 देशों में से 130 वें स्थान पर रहा है। एक साल बाद, सुधारों को लागू करने के बाद, भारत 100 वें स्थान पर चढ़ गया है। इस साल 2018 में देश 77 वें स्थान पर पहुंच गया है और सुधार करने वाले टॉप दस देशों में भारत ने स्थान बनाया है। इस सूची का नेतृत्व करने वाले देश न्यूजीलैंड, सिंगापुर और डेनमार्क हैं।

लेकिन क्या जमीनी स्तर पर भी चीजें काफी हद तक बदली हैं? यह एक ऐसा सवाल है, जो शोधकर्ता और नीति विश्लेषक पूछ रहे हैं। भारत में केवल दो शहरों मुंबई और दिल्ली को विश्व बैंक रैंकिंग में जगह मिली है, लेकिन दिल्ली में हाल ही में हुए व्यापार सुधार छोटे उद्यमियों के लिए फायदेमंद नहीं रहा है, जैसा कि सेंटर फॉर सिविल सोसाइटी द्वारा एक नए अध्ययन ‘डूइंग बिजनेस इन दिल्ली’ में बताया गया है। एक रेस्तरां पर विचार करें: दिल्ली में, एक उद्यमी को गैर-अल्कोहल सर्विंग रेस्तरां शुरू करने के लिए कम से कम आठ तरह के लाइसेंस की आवश्यकता होती है। अगर वे शराब परोसना चाहते हैं तो 11 तरह के और यदि वे रिकॉर्ड किए गए संगीत भी बजाना चाहते हैं और एक लिफ्ट लगाना चाहते तो 13 तरह के लाइसेंस जरूरी हैं । इसके विपरीत, चीन में ऐसे रेस्तरां खोलने और चलाने के लिए चार लाइसेंस की जरुरत ही है और तुर्की में दो। इन लाइसेंसों में से एक ‘ईटिंग हाउस लाइसेंस’ है, जो दिल्ली पुलिस द्वारा जारी किया जाने वाला दस्तावेज है। अध्ययन में पाया गया कि इस प्रक्रिया को ऑनलाइन करने के बावजूद, दिल्ली पुलिस की लाइसेंसिंग यूनिट के ‘ईटिंग हाउस डेस्क’ के सामने लंबी कतारें रहती हैं। एक शख्स ने बताया कि ‘ईटिंग हाउस लाइसेंस ’ प्राप्त करने के लिए रिश्वत को व्यापक रूप से वैध तरीका माना जाता है, जबकि एक अन्य ने टिप्पणी की, "यदि आपके पास देने के लिए सही मूल्य है, तो लाइसेंस आपके दरवाजे पर दिया जाता है।" उद्यमशीलता और रोजगार को बढ़ावा देने के लिए कारोबार करने को आसान बनाना महत्वपूर्ण है। अंतर्राष्ट्रीय श्रम संगठन के अनुसार, 2018 में लगभग 1.86 करोड़ ( कार्यबल का 3.5 फीसदी ) भारतीय बेरोजगार थे। ‘सेंटर फॉर ससटेंबल एम्पलॉयमेंट ऑफ अजीम प्रेमजी यूनवर्सिटी’ की रिपोर्ट, स्टेट ऑफ वर्किंग इंडिया, 2018, के अनुसार युवाओं और उच्च शिक्षा प्राप्त लोगों के बीच 16 फीसदी की बेरोजगारी दर पिछले 20 वर्षों में देश में सबसे अधिक है। अध्ययन के सह-लेखक, अलस्टन डिसूजा ने इंडियास्पेंड के साथ साक्षात्कार में कहा, " कारोबार करने में आसानी के लिए उठाए गए कदम बड़े पैमाने पर ऊपरी दिखावा लगते हैं। सुधार के नाम पर केवल चेकलिस्ट बक्से में टिक किया जा रहा है।" उन्होंने कहा, “दिल्ली सरकार को सूक्ष्म, लघु और मध्यम उद्यमों के लिए स्थितियों में सुधार के लिए नियमों पर फिर से विचार करना होगा और नए नियम भी बनाने होंगे, जैसे कि लाइसेंसिंग आवश्यकताओं को युक्तिसंगत बनाना, प्रक्रियाओं को सुव्यवस्थित करना, परमिट मंजूरी की प्रक्रिया को तेज और कम खर्चीला बनाना और पारदर्शिता में सुधार किया जाना।" डिसूजा ‘इंडिया फेलो सोशल लीडरशिप प्रोग्राम’ से जुड़े थे, जो बिहार के ‘प्रयोग’ के माध्यम से विकास प्रबंधन में युवाओं को प्रशिक्षित करता है। उन्होंने कर्नाटक के ‘नेशनल इंस्टीट्यूट ऑफ टेक्नोलॉजी’ से इंजीनियरिंग में स्नातक की पढ़ाई पूरी की है, और इन दिनों ‘सेंटर फॉर सिविल सोसाइटी’ में एक वरिष्ठ शोध सहयोगी हैं।

कारोबार में आसानी के रैंकिंग में भारत 2016 में 130 वें स्थान पर था और 2018 में 77 वें स्थान पर पहुंचा है। आपको क्यों लगता है कि यह सुधार भारत भर में औसत सूक्ष्म, लघु और मध्यम उद्यम (एमएसएमई) द्वारा सामना किए गए व्यावसायिक परिदृश्य को नहीं दर्शाता है। ऐसा क्यूं?

सबसे पहले यह कि विश्व बैंक की रैंकिंग केवल मुंबई और दिल्ली में प्रचलित स्थितियों पर आधारित है, इसलिए इस अर्थ में, सूचकांक एक खास स्थान को देखता है। यह उन दो मेगा सिटी के बाहर के भारत की अनदेखी करता है।

उन शहरों के भीतर भी, यह धारणा है कि सूचकांक का आधार (190 भाग लेने वाली अर्थव्यवस्थाओं में व्यावसायिक नियमों की तुलना को सक्षम करने के लिए) बडे,आमतौर पर उत्पादन से संबंधित उद्योगों पर केंद्रित करना है, जिनके पास विशेषज्ञों से सलाह लेने की सुविधा है। उदाहरण के लिए, 'बिजनेस शुरू करने' के पहलू के तहत एक 'बिजनेस' को लगभग 929 वर्ग मीटर (10,000 वर्ग फुट) के ऑफिस स्पेस के साथ परिभाषित किया गया है, जो आंतरिक रूप से 100 फीसदी पांच लोगों के स्वामित्व में है; जिसका स्टार्ट-अप कैपिटल प्रति व्यक्ति आय का10 गुना है और टर्नओवर कम से कम प्रति व्यक्ति आय 100 गुना है। और जिसके पास ऑपरेशन शुरू करने के एक महीने के भीतर 10-50 कर्मचारी हैं। दिल्ली और मुंबई में कई एमएसएमई इन मानदंडों को पूरा नहीं करते हैं और इसलिए, उनके अनुभव के लिए सूचकांक में कोई जगह नहीं है। दूसरा, यदि आप भारत की बेहतर रैंकिंग के कारणों को देखते हैं, तो 2017 में वृद्धि का श्रेय बड़े पैमाने पर सुधारों को दिया जाता है जैसे कि औद्योगिक लाइसेंस की वैधता का विस्तार और वस्तु एवं सेवा कर (जीएसटी) और दिवाला और दिवालियापन संहिता का अधिनियम। (आईबीसी)। 2018 में वृद्धि का श्रेय निर्माण परमिट प्राप्त करने में सुधार, सीमाओं के पार व्यापार, प्रक्रियाओं को सुव्यवस्थित करना, परमिट अनुप्रयोगों के प्रसंस्करण के लिए समय कम करना और राज्य स्तर पर पारदर्शिता में सुधार करने को जाता है। औद्योगिक लाइसेंस, निर्माण परमिट और निर्यात मानदंड जैसे पहलू अधिकांश एमएसएमई के लिए प्रासंगिक नहीं हैं।

राज्यों में व्यापार करने में आसानी को बढ़ावा देने के लिए, अप्रैल 2017 में, वाणिज्य और उद्योग मंत्रालय के औद्योगिक नीति और संवर्धन विभाग ( डीआईपीपी ) ने विश्व बैंक के साथ साझेदारी में, व्यापार सुधार कार्य योजना ( बीआरएपी ) की शुरुआत की, जो श्रम, अनुबंध, संपत्ति पंजीकरण, निर्माण, पर्यावरण, और इतने पर सुधारों को कवर करने वाली 405 सिफारिशों का सेट है। पिछले वर्ष राज्य की ओर से कार्रवाई को प्राथमिकता देने पर प्रगति का आकलन स्व-घोषणा के आधार पर किया गया है। दिल्ली के बारे में आप क्या सोचते हैं?

दिल्ली में, व्यवसाय प्रक्रिया का पुनरुद्धार एक विंडो-ड्रेसिंग यानी ऊपरी दिखावा भर है। पर्यावरण-और श्रम-संबंधी निरीक्षणों की पारदर्शिता और जवाबदेही बढ़ाने के लिए, राज्य विभाग मानक संचालन प्रक्रियाओं को प्रकाशित करने, जोखिम मूल्यांकन एल्गोरिदम को तैनात करने, निरीक्षकों के आवंटन को यादृच्छिक बनाने और निरीक्षण रिपोर्ट / निष्कर्षों को उद्यमों को उपलब्ध कराने के लिए थे। इनमें से कई चरणों की अनदेखी की गई है।

अन्य डीआईपीपी की सिफारिश, विशेष रूप से वाणिज्यिक विवादों पर ध्यान केंद्रित करने के लिए विशेष वाणिज्यिक अदालतें स्थापित करने और खाली न्यायाधीशों के पदों में से 90 फीसदी भरने की दिशा में नाममात्र का काम हुआ है। दिल्ली सरकार ने दिल्ली उच्च न्यायालय में एक वाणिज्यिक प्रभाग बनाया है। हालांकि, वाणिज्यिक विवादों से निपटने के लिए विशेष रूप से स्थापित होने के बावजूद, गैर-वाणिज्यिक विवादों पर उस अदालत द्वारा बिताया गया कुल समय वाणिज्यिक विवादों पर खर्च किए गए समय का 2.73 गुना था। वाणिज्यिक विवादों पर बिताया गया समय लंबित वाणिज्यिक मामलों की संख्या के लिए अनुपातिक नहीं था और न ही व्यावसायिक और गैर-वाणिज्यिक मामलों के बीच आनुपातिक रूप से सौंपे गए न्यायाधीशों के पास समय उपलब्ध था।

दिल्ली सरकार ने दिल्ली उच्च न्यायालय में एक वाणिज्यिक प्रभाग बनाया है। विशेष रूप से वाणिज्यिक विवादों से निपटने के लिए स्थापित होने के बावजूद, गैर-वाणिज्यिक विवादों पर उस अदालत द्वारा बिताया गया कुल समय वाणिज्यिक विवादों पर खर्च किए गए समय का 2.73 गुना था।

व्यावसायिक मामलों की सुनवाई के लिए न्यायालय की क्षमता नहीं बढ़ी है, क्योंकि किसी भी नए न्यायाधीशों की भर्ती नहीं की गई है। डीआईपीपी की सिफारिश को सही अर्थों में लागू करने का मतलब होगा कि न्यायालय के संसाधनों को तर्कसंगत रूप से साझा करने के लिए न्यायाधीशों के दो सेट बनाए जाएं, एक वाणिज्यिक और एक गैर-वाणिज्यिक या न्यायालय के संसाधनों को तर्कसंगत रूप से साझा करने के लिए संस्थागत उपायों को सामने लाया जाए।

2018 में, हम समझ गए कि बीआरएपी मूल्यांकन में व्यवसाय-से-सरकार की प्रतिक्रिया शामिल होगी। हमें पता नहीं है कि क्या सर्वेक्षण किया गया है। मूल्यांकन के आस-पास पारदर्शिता की सामान्य कमी है।

एक व्यवसाय का संचालन करना कितना आसान (या कठिन) है,यह जानने के लिए आपने खुदरा खाद्य व्यवसाय, कसाईघरों और छोटी मांस की दुकानों और -कचरा संचालकों सहित कई उद्योगों का सर्वेक्षण किया। दिल्ली के ई-कचरा उद्योग के आपके सर्वेक्षण के आधार पर, लाल फीताशाही कैसे व्यापार पर प्रतिकूल प्रभाव डालता है? इसके बारे में आपके निष्कर्ष क्या हैं? चूंकि ई-कचरे का निपटान पर्यावरण को प्रभावित करता है, क्या यह व्यवसाय दिल्ली के निवासियों को नुकसान पहुंचाता है?

राष्ट्रीय राजधानी क्षेत्र में प्रतिवर्ष 107,976 मीट्रिक टन प्रसंस्करण की क्षमता वाली 28 अधिकृत (लाइसेंस प्राप्त) रीसाइक्लिंग कंपनियां हैं, जो कि सालाना उत्पन्न 85,000 मीट्रिक टन ई-कचरा से काफी ज्यादा है। सैद्धांतिक रूप से, इन अधिकृत रिसायकलर्स को अपनी संयुक्त क्षमता का 79 फीसदी उपयोग करना चाहिए। हालांकि, जब हमने सर्वेक्षण किया तो फरीदाबाद, रोहतक, मानेसर और हापुड़ में छह अधिकृत रीसाइक्लिंग फर्म अपनी क्षमता का 39.9 फीसदी पर काम कर रहे थे। हमने पाया कि अपनी सुविधा के भीतर रीसाइक्लिंग के बजाय, कुछ अधिकृत रिसाइकलर अपने ई-कचरे को अनधिकृत रीसायकलर्स की ओर भेज रहे थे, क्योंकि ऐसा करने से उन्हें अधिक लाभ मिलता है। अनौपचारिक रिसायकलर्स ई-कचरे के विक्रेताओं को अधिकृत विक्रेताओं द्वारा दी जाने वाली राशि से दोगुना तक की पेशकश कर सकते हैं, क्योंकि वे पर्यावरण और श्रम कानूनों से बचते हुए कम लागतों पर अपना व्यवसाय करते हैं।उदाहरण के लिए नियम है कि ई-कचरे के विषैले घटक जैसे पारा और सीसा का उपचार निपटान होने से पहले किया जाना चाहिए। अनधिकृत रीसायकलर्स नियमों को दरकिनार करते हुए कचरे को खुले में डंप करते हैं जहां यह मिट्टी को दूषित करता है और जल निकायों को प्रदूषित करता है। जब हम दिल्ली के सीलमपुर पहुंचे तो वास्तव में ई-कचरे के अनधिकृत और अधिकृत संचालकों के बीच मिली-भगत दिखाई दी। हमने उपभोक्ता के रूप में ई-कचरा बेचने की कोशिश की और पूछा कि क्या हमारे लेन-देन का कुछ वैध प्रमाण हो सकता है। अनौपचारिक रिसाइकलर ने हमें एक प्रमाण पत्र की पेशकश की। जो एक अधिकृत रिसाइकलर और माल और सेवा कर लेनदेन आईडी के रूप में उसकी स्थिति को सत्यापित करता था, जिससे हमारी बिक्री प्रमाणित होती। उसने पैसे देकर इन दस्तावेजों को अधिकृत रिसाइकिलर्स से किराए पर लिया था। यदि हम अपने लेन-देन की पुष्टि करने वाले दस्तावेजों पर जोर देते हैं, तो वह इस शुल्क को ई-कचरे की कीमतों में समायोजित करेगा और हमसे ही वसूल करेगा। यदि उद्योग पर सरकार की जांच प्रभावी थी,अनधिकृत रीसायकलर्स भारत में उत्पन्न ई-कचरे के थोक को नहीं संभालते। व्यवसाय के अन्य रास्तों की तरह, ई-कचरा संचालकों के लिए मौजूदा लाइसेंस प्रक्रिया बहुत धीमी है।

आधिकारिक रूप से हरियाणा और उत्तर प्रदेश राज्य प्रदूषण नियंत्रण बोर्डों से ई-कचरे के पुनर्चक्रण के लिए सहमति और स्थापना के लिए सहमति प्राप्त करने औसत समय 1.3 महीने है। हमने पाया कि यह वास्तव में यह 24 महीने तक का होता है।

एक अच्छा व्यवसाय अपने कर्मचारियों के लिए चिंतित रहता है, विशेष रूप से ऐसे श्रमिक के लिए जो सामाजिक आर्थिक क्षेत्र में पीछे हैं। विश्व बैंक इस बात को ध्यान में रखता है, इसके लिए वह व्यवसाय संबंधी वेबसाइट पर श्रम बाजार के प्रमुख विनियम संकेतकों पर नजर रखता है, बावजूद इसके कि ‌विश्व बैंक की रिपोट इन विनियम संकेतकों को प्रत्येक देश की ईज ऑफ डूईंग बिजनेस या रैंकिग में शामिल नहीं करती। दिल्ली में श्रम कल्याण संबंधी आपके निष्कर्ष क्या थे?

एनसीटी दिल्ली सरकार के श्रम विभाग ने डीआईपीपी द्वारा प्रस्तावित दो सुधारों को अपनाने का दावा किया है- सात प्रमुख श्रम अधिनियमों के तहत श्रमिकों को काम पर रखने और क्षतिपूर्ति के विभिन्न पहलुओं और उनके काम की शर्तों को कवर करने वाले चेकलिस्ट और निरीक्षण के लिए मानक संचालन प्रक्रिया (एसओपी) बोनस अधिनियम, 1965 का भुगतान; दिल्ली की दुकानें और स्थापना अधिनियम, 1954; समान पारिश्रमिक अधिनियम, 1976; वेतन का भुगतान, 1936; ग्रेच्युटी अधिनियम का भुगतान; 1972; अनुबंध श्रम अधिनियम, 1970; और न्यूनतम मजदूरी अधिनियम, 1938)।

हमने माना कि शिकायतों के समाधान में तेजी लाने के उद्देश्य से ये प्रक्रियाएं श्रमिक कल्याण सुनिश्चित करने की दिशा में एक बड़ा कदम है, और इसलिए जांच की गई कि क्या इन प्रक्रियाओं का नई दिल्ली जिला श्रम कार्यालय द्वारा पालन किया जा रहा है।

हमने जिन 846 श्रम शिकायतों का विश्लेषण किया, उनमें से 15 दिनों की एसओपी-अनिवार्य समय-सीमा की तुलना में बाद में 33.6 फीसदी निरीक्षण किए गए। आधे से अधिक शिकायतें (54.8 फीसदी) औसतन 311.5 दिनों के लिए या लगभग एक वर्ष तक अनसुलझी रही।

विभाग के अधिकारियों ने विलंबित मामले के लिए लोगों की कमी का हवाला दिया। उन्होंने दावा किया कि वे प्रति माह लगभग 60 से 80 मामलों से निपटते हैं।

हालांकि, हमने निष्कर्ष निकाला कि श्रम कानून प्रावधानों के निरीक्षकों के बीच जागरूकता का कम स्तर है और वे कानून उल्लंघन के लिए आंशिक रूप से दोषी हैं। उदाहरण के लिए, निरीक्षकों ने कहा कि पदोन्नति के दौरान भेद-भाव ‘समान पारिश्रमिक अधिनियम-1976’ के तहत उल्लंघन नहीं है, जो गलत है।

इसके अलावा, अतिरिक्त श्रम आयुक्त ने दावा किया कि अधिनियम निरर्थक था, क्योंकि पिछले 25 वर्षों में इसके तहत कोई शिकायत नहीं थी। उनकी अपनी वेबसाइट ही यह दावा करके उनकी बातों को गलत साबित करती है कि अकेले 2002 में इस अधिनियम के तहत 2,826 निरीक्षण किए गए थे। हालांकि स्वीकृत इंस्पेक्टर के पदों में से 83 फीसदी खाली हैं, फिर भी हमने निष्कर्ष निकाला है कि विभाग के पास बहुत ज्यादा काम नहीं है, क्योंकि शिकायत रजिस्टर से पता चलता है कि एक इंस्पेक्टर को महीने में 25.9 शिकायतें मिलती हैं, जिसका मतलब प्रति दिन लगभग एक शिकायत ।

( बाहरी स्वतंत्र पत्रकार हैं और राजस्थान के माउंट आबू में रहती हैं। )

यह साक्षात्कार मूलत: अंग्रेजी में 7 जनवरी, 2019 को indiaspend.com पर प्रकाशित हुआ है।

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