New Delhi: People cover their faces to protect himself from the scorching heat on a hot sunny day, in New Delhi on May 22, 2018. (Photo: IANS)

मुंबई: भारत ने 2012 के मुकाबले 2016 में अतिरिक्त 40 मिलियन गर्म हवाओं की घटनाओं को अनुभव किया है। एक नए अध्ययन के मुताबिक, यह स्थिति चिंताजनक है, क्योंकि इससे नकारात्मक स्वास्थ्य प्रभावों में खतरनाक ढंग से वृद्धि हो सकती है।

‘हीटवेव एक्सपोजर इवेंट’ का मतलब ऐसी गर्मी से है, जिसे एक व्यक्ति द्वारा अनुभव किया जाता है।

अध्ययन में कहा गया है कि, पिछले अर्धशतक में भारत में गर्म हवाओं की घटनाओं की आवृत्ति, तीव्रता और अवधि में भी वृद्धि हुई है और ‘कमजोर स्वास्थ्य प्रणालियों और बद्तर बुनियादी ढांचे’ के कारण जलवायु परिवर्तन से सबसे ज्यादा प्रभावित होने वाला देश भारत होगा।

ये निष्कर्ष लांसेट काउंटडाउन- ट्रैकिंग प्रोग्रेस ऑन हेल्थ एंड क्लाइमेट चेंज नाम के अध्ययन के हैं जो कि पब्लिक हेल्थ फाउंडेशन ऑफ इंडिया (पीएचएफआई) और सेंटर फॉर एनवायरमेंटल हेल्थ समेत 27 अकादमिक संस्थानों और अंतर सरकारी संगठनों के बीच एक वैश्विक, अंतःविषय अनुसंधान सहयोग के बाद आया है।

वित्त और अर्थशास्त्र, सार्वजनिक और राजनीतिक जुड़ाव, मिटिगैशन एक्शन, अति संवेदनशीलता और अन्य 41 संकेतकों को ट्रैक करने के लिए अध्ययन में लांसेट काउंटडाउन द्वारा संकलित डेटा का उपयोग किया गया है, जो इंसानों के उपर पड़ रहे जलवायु परिवर्तन के प्रभावों का रिकार्ड करता है और सार्वजनिक स्वास्थ्य के लिए अनुशंसाएं प्रदान करता है। अध्ययन में पाया गया है कि 1990 से दुनिया का हर क्षेत्र, गर्मी की अत्यधिक वृद्धि को लेकर तेजी से संवेदनशील हुआ है। 2000 की तुलना में, 2017 में, 157 मिलियन अधिक लोगों ने विश्व में गर्मी की घटनाओं को महसूस किया है, जबकि उसी अवधि के दौरान, प्रति वर्ष औसतन प्रति व्यक्ति ने अतिरिक्त 1.4 दिनों गर्मी की लहरों का अनुभव किया है।

गर्मी के बढ़े हुए एक्सपोजर से श्रम उत्पादन में कमी आ सकती है और शहरी वायु प्रदूषण में वृद्धि हो सकती है। गर्मी से उपजे तनाव के प्रभाव से निपटने के लिए स्वास्थ्य प्रणाली पर लगातार बोझ बढ़ता है ओर इससे बद्तर सुसज्जित बोझ, और स्थानीय क्षेत्रों में कोलेरा और डेंगू बुखार जैसी बीमारियों का प्रसार बढ़ाता है।

लांसेट काउंटडाउन: ट्रैकिंग प्रोग्रेस ऑन हेल्थ एंड क्लाइमेट चेंज ’ के कार्यकारी निदेशक, निक वाट्स कहते हैं, "जलवायु परिवर्तन ने पिछले दशकों में सार्वजनिक स्वास्थ्य लाभ को कमजोर किया है और इस शताब्दी के अस्तित्व के लिए बड़े खतरों में से एक है। " वाट्स कहते हैं, "अतीत में हमने स्वास्थ्य पेशे और चिकित्सा पेशे को एक साथ मिलकर तंबाकू, एचआईवी और पोलियो से उत्पन्न स्वास्थ्य जोखिमों को कम करने के और स्वास्थ्य लाभ के लिए लोगों को पहाड़ों पर भेजा है। जलवायु परिवर्तन पर भी हमें कुछ इसी तरह सोचना होगा।" वैज्ञानिक पत्रिका ‘नेचर क्लाइमेट चेंज’ में प्रकाशित इस 2018 पेपर के अनुसार जलवायु परिवर्तन के कारण भारत पहले से महत्वपूर्ण ‘सामाजिक और आर्थिक लागत ’ झेल रहा है। यहां उत्सर्जित प्रत्येक अतिरिक्त टन कार्बन डाइऑक्साइड पर भारत की लागत है $ 86 , जबकि संयुक्त राज्य अमेरिका $ 48 और सऊदी अरब $ 47 खर्च करता है। मतलब है कि इन देशों की तुलना में हमारी लागत लगभग दोगुनी है। इस वर्ष इंटरगवर्न्मेन्टल पैनल ऑन क्लाइमेट चेंज (आईपीसीसी) ने चेतावनी दी है कि यदि वैश्विक समुदाय 1.5 डिग्री तक जलवायु तापमान को रोकने सक्षम नहीं हुआ, तो आजीविका, खाद्य सुरक्षा, स्वास्थ्य, जल आपूर्ति और मानव सुरक्षा के लिए जलवायु से संबंधित जोखिम तेजी से आगे बढ़ेंगें। इस संबंध में इंडियास्पेंड ने अक्टूबर 2018 की रिपोर्ट में बताया है।

इसलिए कार्बन उत्सर्जन और वायु प्रदूषण के स्तर को कम करना भारत के लिए बहुत महत्वपूर्ण है, विशेष रूप से कोयले, तेल और प्राकृतिक गैस के उपयोग पर नजर रखने की जरूरत है।

हालांकि कई क्षेत्रों ने कार्बन उत्सर्जन कम हुआ है। पिछले दो से तीन दशकों में जलवायु परिवर्तन के प्रभावों की समग्र धीमी प्रगति और तैयारी की कमी ने मानव जीवन और राष्ट्रीय स्वास्थ्य प्रणालियों की व्यवहार्यता, (जिन पर वे निर्भर करते हैं) दोनों को चेतावनी दी है, जैसा कि रिपोर्ट में चेतावनी दी गई है।

गर्म लहरें और गर्मी से तनाव

पिछले दो दशकों में, भारत में गर्म लहरों की अवधि में उल्लेखनीय वृद्धि हुई है। साथ ही गर्मी के संपर्क में आने वाले भारतीयों की संख्या में भी बढ़ोत्तरी हुई है। गर्म लहरों की औसत अवधि में 150 फीसदी की वृद्धि हुई है-2012 में 2 दिनों से 2016 में लगभग 5 दिन तक।

गर्म लहरों की औसत अवधि में बदलाव

Source: Lancet Countdown 2018 Report: Briefing for Indian Policymakers

देश भर में चरम गर्मी की घटनाओं के संपर्क में आने वाले लोगों की संख्या में भी वृद्धि हुई है। 2012 में, केवल 20 मिलियन लोग गर्म लहरों के संपर्क में आए थे, जबकि 2016 में यह संख्या 60 मिलियन थी, यानी 200 फीसदी की वृद्धि हुई है।

गर्म लहरों से संपर्क में आने वालों की संख्या में बदलाव- मिलियन में

Source: Lancet Countdown 2018 Report: Briefing for Indian Policymakers

गर्मी से संपर्क कई बीमारियों के जोखिम को बढ़ा सकता है। खासकर ऐसी बीमारियां, जो शरीर के तापमान को सामान्य श्रेणी से आगे बढ़ने से रोक न पाने की असमर्थता से होती हैं।शरीर के भीतरी भाग का तापमान 40 डिग्री सेल्सियस से ऊपर होने पर कई अंगों काम करना बंद कर सकते हैं, दौरा पड़ सकता है और जान भी जा सकती है, जैसा कि अध्ययन में कहा गया है।

अध्ययन का सुझाव है कि,स्थानीय हीट एक्शन प्लान के अग्रिम कार्यान्वयन और प्रभावी अंतर-एजेंसी समन्वय एक महत्वपूर्ण प्रतिक्रिया रणनीति हो सकती है, जिसे सरकार कमजोर लोगों की रक्षा के लिए तैनात कर सकती है। इसके लिए हीट हॉट स्पॉट, मौसम संबंधी डेटा का विश्लेषण और संकट प्रवण क्षेत्रों में संसाधनों के आवंटन की आवश्यकता होगी।

श्रम हानि

बढ़ते तापमान के परिणामस्वरूप लगातार काम करना मुश्किल या असंभव है। यह नकारात्मक रूप से श्रमिकों के उत्पादन को प्रभावित करता है। 2017 में भारत ने लगभग 75 अरब घंटे का श्रम खोया है।

यह 2000 से 30 बिलियन घंटे से अधिक की वृद्धि है और 2017 में दुनिया भर में खोने वाले श्रम के कुल घंटे में से 50 फीसदी (153 बिलियन घंटे) का प्रतिनिधित्व करता है।2017 में 60 बिलियन घंटे खोने के साथ, कृषि क्षेत्र में श्रम हानि में सबसे ज्यादा वृद्धि हुई है। यह आंकड़े 2000 के आंकड़ों से 40 बिलियन घंटे ज्यादा हैं यानी – 50 फीसदी की वृद्धि ।

अलग-अलग सेक्टर में भारत में खोए हुए श्रम के घंटे

Source: Lancet Countdown 2018 Report: Briefing for Indian Policymakers

2000 और 2017 के बीच औद्योगिक और सेवा क्षेत्रों में श्रमिक घंटों में कमी में इसी तरह की प्रवृत्ति देखी गई। इनडोर और कम श्रमसाध्य नौकरियों में नुकसान कृषि क्षेत्र की तरह महत्वपूर्ण नहीं थे। रिपोर्ट में कहा गया है कि देश के सकल घरेलू उत्पाद (सकल घरेलू उत्पाद) का 18 फीसदी कृषि क्षेत्र से जुड़े होने के साथ कार्यबल और अर्थव्यवस्था पर ‘जलवायु से संबंधित प्रभाव’ भारत के लिए महत्वपूर्ण हो सकता है। समान रूप से, कम वर्षा और तापमान परिवर्तन के कारण जीवन स्तर में गिरावट और कृषि में नियोजित आबादी के आधे से ज्यादा प्रभावित हो सकते हैं। अध्ययन में कहा गया है कि व्यावसायिक स्वास्थ्य मानकों और श्रम कानून, जो अधिकतम कामकाजी घंटों और सुरक्षित काम करने की स्थितियों को नियंत्रित करता है, की एक त्वरित समीक्षा होनी चाहिए।

कार्बन उत्सर्जन से समयपूर्व मौत में वृद्धि

जीवाश्म ईंधन पर भारत की निर्भरता पीएम 2.5 ( मानव कणों से 30 गुना महीन है और जो मनुष्यों के लिए सबसे बड़ा जोखिम पैदा करने के लिए जाना जाता है ) युक्त परिवेश वायु प्रदूषण के उच्च स्तर में योगदान दे रही है और जिससे बदले में समयपूर्व मौत हो रहे हैं। अकेले कोयले से उत्पन्न प्रदूषण सालाना 107,000 मौतों के लिए जिम्मेदार है - 73,000 मौत की वजह बिजली संयंत्रों में उपयोग होने वाले कोयले के प्रदूषण से , अन्य उद्योग में कोयला उपयोग के बाद प्रदूषण से 24,000मौतें और घरेलू कोयले की खपत के प्रदूषण से 10,000।

स्रोत अनुसार भारत में समयपूर्व मौतें

Source: Lancet Countdown 2018 Report: Briefing for Indian Policymakers

भूमि आधारित परिवहन साधन भी पीएम 2.5 से संबंधित मौतों की ‘पर्याप्त संख्या के लिए जिम्मेदार’ है, जिसमें वार्षिक कुल का 12.5 फीसदी ​​शामिल है। हालांकि इन उत्सर्जन को यात्रा के बुनियादी ढांचे में सुधार के माध्यम से हल किया जा सकता है।

भारत की शहरी आबादी तेजी से बढ़ रही है, छोटे गैर-स्तरीय 1 शहरों में होने वाले विकास के बड़े अनुपात के साथ 2018 और 2050 के बीच 416 मिलियन तक बढ़ने की उम्मीद है। अध्ययन में सुझाव दिया गया है कि इन शहरों में सार्वजनिक आधारभूत संरचना के माध्यम से आबादी की परिवहन आवश्यकताओं से निपटना चाहिए। कार उपभोक्ताओं में वृद्धि को सीमित करना चाहिए और वाहन प्रदूषण को नियंत्रित करना चाहिए।

छोटे भारतीय शहरों में परिवहन इस्तेमाल के तरीके

Source: Lancet Countdown 2018 Report: Briefing for Indian Policymakers

अहमदाबाद और पुणे, दोनों शहरों में उल्लेखनीय विकास दर के साथ मोटरसाइकिल परिवहन उपयोगकर्ताओं (वाहन उपयोगकर्ता) का उच्च अनुपात है, जो सभी परिवहन मोडों का 42 फीसदी और 48 फीसदी का प्रतिनिधित्व करते हैं।

अध्ययन में कहा गया है कि, ऐसे प्रदूषण से संबंधित मुद्दों, उनसे संबंधित स्वास्थ्य जोखिम और जलवायु परिवर्तन के बारे में जागरूकता बढ़ाना, समग्र रूप से निवारक कार्यों को संगठित करने का एक महत्वपूर्ण तरीका है।

पिछले दशक में जलवायु परिवर्तन और स्वास्थ्य समस्याओं के मीडिया कवरेज में वैश्विक स्तर पर 40 फीसदी की वृद्धि हुई है । टाइम्स ऑफ इंडिया और हिंदुस्तान टाइम्स ने 2007-2017 के बीच क्रमशः जलवायु से संबंधित कवरेज में 458 फीसदी और 415 फीसदी की वृद्धि देखी है।

राज्यों में जलवायु परिवर्तन और स्वास्थ्य संबंधी मुद्दों के क्षेत्रीय, गैर-अंग्रेजी मीडिया कवरेज में बढ़ोतरी से ‘राज्य-दर-राज्य नीति प्रक्रिया’ को प्रोत्साहित करने में मदद मिल सकती है।

(संघेरा लेखक और शोधकर्ता हैं और इंडियास्पेंड के साथ जुड़ी हैं।)

यह लेख मूलत: अंग्रेजी में 29 नवंबर, 2018 को indiaspend.com पर प्रकाशित हुआ है।

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