नई दिल्ली: देश भर में उच्च न्यायालयों में 37 फीसदी न्यायाधीशों की कमी है औ एड-होक की नियुक्तियां ( न्यायाधीशों को अदालतों में पोस्ट नहीं करते हैं जिसकी उन्हें सबसे ज्यादा जरूरत है ) विलंब को और बद्तर कर रहा है और भारत की अर्थव्यवस्था को प्रभावित कर रही है, जैसा कि न्याय विभाग द्वारा जारी आंकड़ों पर हमारे विश्लेषण से पता चलता है।

राष्ट्रीय न्यायिक डेटा ग्रिड के मुताबिक 4 फरवरी, 2018 तक भारत के 24 उच्च न्यायालयों में 4.2 मिलियन से अधिक मामले लंबित थे, जिनमें से 49 फीसदी मामले पांच साल से अधिक समय से चल रहे थे।

केंद्रीय मंत्रालयों के आंकड़े बताते हैं, आर्थिक सर्वेक्षण 2017-18 के मुताबिक, करीब 52,000 करोड़ रुपए की बुनियादी ढांचा परियोजनाएं कोर्ट के आदेशों से प्रभावित हैं।

भारत में न्यायिक विलंब लंबे समय से चला आ रहा है, और न्यायाधीशों की कमी अच्छी तरह से प्रलेखित है,जैसा कि इंडियास्पेंड में हमने पहले बताया है ( यहां, यहां, यहां और यहां )।

भारत के टॉप 10 उच्च न्यायालयों में लंबित मामले, 2016-17

इलाहाबाद उच्च न्यायालय में लंबित मामलों की संख्या सबसे बड़ी है। इलाहाबाद में 2016 और 2017 में 900,000 से अधिक मामले लंबित हैं। 2017 के दौरान, 24 उच्च न्यायालयों में से केवल तीन में लंबित मामलों की संख्या में मामूली अंतर से गिरावट हुई है।

लंबित मामलों में बढ़ोतरी के मामले में, 36,479 मामलों की विचाराधीनता में वृद्धि के साथ, कर्नाटक हाई कोर्ट सबसे अधिक थका हुआ लगता है। 32,548 और 30,195 लंबित मामलों के साथ हैदराबाद और पंजाब और हरियाणा दूसरे और तीसरे स्थान पर हैं।

झारखंड, मेघालय और सिक्किम के तीन उच्च न्यायालयों के लिए न्यायाधीशों के कार्यबल में बदलाव नहीं हुआ है। न्यायाधीशों की संख्या में कलकत्ता (सात), हिमाचल प्रदेश (तीन), गुजरात और त्रिपुरा (दो) और मणिपुर और उड़ीसा (एक) में कमी हुई है।

मद्रास में 16 न्यायाधीशों की बढ़ोतरी से काम करने की ताकत बढ़ी है, जबकि बॉम्बे के अदालत में 10 न्यायाधीशों की बढ़ोतरी हई है। पटना, राजस्थान, गुवाहटी और छत्तीसगढ़ में छह न्यायाधीशों की संख्या बढ़ी है।

टॉप 10 उच्च न्यायालय के न्यायाधीशों की कार्यबल, 2016-17

तनाव की गणना करने के लिए सबसे सरल मीट्रिक प्रति न्यायाधीश औसत लंबित मामला है। प्रति न्यायाधीश औसत मामला बोझ जितना ज्यादा होगा, न्यायालय पर बोझ उतना ही होगा।

प्रति उच्च न्यायालय के न्यायाधीश के अनुसार वर्कलोड और न्यायाधीशों के अनुरूप आबंटन

Workload Per High Court Judge & Corresponding Allocation Of Judges
CourtWorkload Per Judge in 2016Workload Per Judge in 2017Change In Working Strength Of Judges, 2016-17
Calcutta5,2086,533-7
HP2,3443,212-3
Karnataka9,50010,1032
Orissa8,9919,559-1
Gujarat2,8003,305-2
Tripura7471,247-2
Hyderabad11,14811,5282
Jharkhand4,9285,2870
Punjab and Haryana6,3006,6482
Manipur7901,126-1

Note: Click here for data on all high courts.

Source: Supreme Court Annual Reports 2015-16 and 2016-17

वर्ष 2016 में, हालांकि, कलकत्ता की तुलना में बॉम्बे के प्रति न्यायाधीशों पर काम का बोझ कम था लेकिन बॉम्बे में 10 न्यायाधीशों की वृद्धि हुई है। वहीं कलकत्ता में सात न्यायाधीशों की गिरावट हुई है। राजस्थान और गुवाहटी को न्यायाधीशों में समान वृद्धि हुई, जबकि गुवाहटी की तुलना में राजस्थान में प्रति न्यायाधीशों के काम का बोझ दोगुना है।

मद्रास और बॉम्बे ने न्यायिक उच्च आवंटन प्राप्त किया है, जबकि उच्च मामलों के बोझ के बावजूद भी लाहाबाद, हैदराबाद, कर्नाटक और जम्मू और कश्मीर में कम आवंटन हुआ है।

लंबित मामलों के आधार पर नए न्यायाधीशों को आवंटित किया जाना चाहिए। और न्यायिक नियुक्तियों और हस्तांतरण, प्रति न्यायाधीश के मीट्रिक काम के बोझ के आधार पर होना चाहिए।

वर्तमान में, कॉलेजिएम (जिसमें भारत के मुख्य न्यायाधीश और सुप्रीम कोर्ट के चार वरिष्ठ न्यायाधीश शामिल हैं) न्यायाधीशों की नियुक्तियों और स्थानान्तरण की सिफारिश करते हैं। , कॉलेजिएम का संविधान में कोई स्थान नहीं है।

सरकार ने न्यायाधीशों की नियुक्तियों की कॉलेजियम प्रणाली को बदलने के लिए राष्ट्रीय न्यायिक नियुक्ति आयोग (एनजेएसी) को संवैधानिक निकाय के रूप में अनुशंसित किया था। हालांकि, सर्वोच्च न्यायालय ने एनजेएसी अधिनियम को खारिज कर दिया है।

इलाहाबाद (लखनऊ बेंच) के उच्च न्यायालय के वरिष्ठ वकील विनोद कुमार सिंह कहते हैं, "इलाहाबाद उच्च न्यायालय में मामलों की उच्च लंबितता और उच्च रिक्ति को देखते हुए, न्यायाधीशों के आवंटन में पारदर्शिता बहुत महत्वपूर्ण है। मुझे उम्मीद है कि कॉलेजियम आवंटन प्रक्रिया को अधिक पारदर्शी बना देता है।लेकिन सिस्टम को ठीक करने के लिए, उच्च न्यायिक नियुक्तियों की प्रक्रिया को मौलिक रिजिग की जरूरत है।" संसद सदस्य बैजयंट 'जे' पांडा ने 18 जनवरी 2018 को द टाइम्स ऑफ इंडिया में लिखा था- "सुप्रीम कोर्ट अपने एनजेएसी(राष्ट्रीय न्यायिक नियुक्ति आयोग ) निर्णय की समीक्षा अच्छी तरह से करेंगे; अगर ऐसा नहीं होता है, तो संसद को कुछ इसी तरह पुन: अधिनियमित करना चाहिए। "

(माथुर नई दिल्ली स्थित नीति अनुसंधान और प्रशिक्षण संगठन ‘विजन इंडिया फाउंडेशन’ के कार्यकारी निदेशक हैं। मंडल एनएसआईटी, नई दिल्ली में बीटेक के छात्र है।)

यह लेख मूलत: अंग्रेजी में 12 फरवरी, 2018 को indiaspend.com पर प्रकाशित हुआ है।

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