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पंजाब के एक गांव फतुही खेरा में, 2009 में एक जलप्रलय से फसल को काफी नुकसान हुआ था। पहले उस इलाके के 75 फीसदी कृषि क्षेत्र में कपास उपजता था। बर्बादी के बाद किसानों ने कपास की जगह धान उगाना शुरु किया। चूंकि कपास की तुलना में धान को जल भराव के बावजूद उपजाना आसान है, इसलिए मानसून में अत्यधिक बारिश से होने वाली हानियों को देखते हुए किसानों को लगता है कि आमदनी के लिए धान बेहतर है।

माउंट आबू: 26 वर्षीय हरसिमरजीत बरार के दिल में पंजाब के श्री मुक्तसर साहिब जिले के एक गांव फतुही खेरा की बचपन की अविस्मरणीय यादें हैं। परिवार कपास की खेती करता था। बरार कहते हैं, “ खेतों की फसल कटने से ठीक पहले, खेत सफेद रुई के एक समुद्र की तरह लगता था।” बरार के पिता, एक अनुभवी किसान थे और प्रत्येक खरीफ (मानसून) के मौसम में 40 एकड़ जमीन पर कपास की खेती करते थे।

बरार अब ‘पंजाब एग्रो फूडग्रेन कॉर्पोरेशन लिमिटेड’ में इंस्पेक्टर हैं। वह याद करते हुए बताते हैं, “ वर्ष 2009 में एक जलप्रलय के बाद यह सब बदल गया। कपास की फसल बर्बाद हो गई। हमारे खेत 4-5 फीट पानी के नीचे डूब गई। तीन दिनों की बारिश न 238 गांवों में से 60-70 गांवों में कपास की खेती को बर्बाद कर दिया।”

स्थिर पानी को जमीन से बाहर निकलने में महीनों लगे। बरार बताते हैं, "हमारी जमीन को इतना नुकसान हुआ था कि 2010 में किसी भी फसल को उगाने की संभावना खत्म हो गई।"

फिर आपदा से बचने के लिए, 2011 में, बरार के पिता और बड़े भाई ने अपने 9 एकड़ की जमीन पर धान ( परमल, जैसा कि पंजाब में कहा जाता है ) उगाने करने का फैसला किया। धान जल भराव का सामना कर सकता है।

परिवार अब 40 एकड़ में से 38 एकड़ पर धान उगाता है। बरार का मानना है, जिले में, कभी कपास को समर्पित 75 फीसदी कृषि, अब धान पर केंद्रित है।

बरार कहते हैं, "मॉनसून की बारिश पूरे मौसम में फैलती थी लेकिन सूखे के बाद हमने और अधिक मूसलाधार बारिश देखी। मूसलाधार बारिश से जल भराव की समस्या बढ़ी। हमने दृढ़ता से महसूस किया कि हमारी आमदनी जोखिम में है और इस जोखिम को कम करने की जरूरत है। "

श्री मुक्तसर जिले के किसानों ने सुरक्षित कदम उठाया। हो सकता है दूसरे क्षेत्र में किसान जलवायु परिवर्तन से निपटने के लिए अलग-अलग विकल्प चुन रहे हों। सेमी-एरिड ट्रोपिक्स (आईसीआरआईएसएटीएटी) के लिए ‘इंटरनेश्नल क्रॉप्स रिसर्च इन्स्टिटूट’ में शोध कार्यक्रम निदेशक एंथनी व्हिटब्रेड बताते हैं,"अर्ध शुष्क क्षेत्रों में, उदाहरण के लिए, किसानों ने उच्च रिटर्न की अपेक्षा अधिक लचीला शुष्क भूमि के योग्य अनाज या दालों की बजाय कपास जैसे नकदी फसलों को अपनाया। यहां जोखिम अधिक था और किसान विफल हो गए,"

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जलवायु परिवर्तन का सामना करने के लिए, किसानों को गर्मी-सहिष्णु फसल के किस्मों की जानकारियों, मिट्टी और जल संरक्षण प्रौद्योगिकियां, और व्यावहारिक सहायता के माध्यम से पर्याप्त समर्थन की आवश्यकता है, जैसा कि सेमी-एरिड ट्रोपिक्स (आईसीआरआईएसएटीएटी) के लिए ‘इंटरनेश्नल क्रॉप्स रिसर्च इन्स्टिटूट’ में एक शोध कार्यक्रम निदेशक एंथनी व्हिटब्रेड बताते हैं।

मिसाल के तौर पर, इस 2010 आईसीआरआईएसएटी अध्ययन ने आंध्र प्रदेश और महाराष्ट्र में अनाज फसलों (मक्का को छोड़कर) से दालें और अन्य नकदी फसलों जैसे गन्ना और कपास में फसल पैटर्न में बदलाव की जांच की है।

भारत जलवायु परिवर्तन के लिए दुनिया के सबसे कमजोर क्षेत्रों में से एक है। यहां मॉनसून के दौरान, बारिश के दिनों के दौरान अंतराल की आवृत्ति में वृद्धि की है, जैसा कि इंडियास्पेंड ने जनवरी 2018 और फरवरी 2018 में रिपोर्ट किया है।

2017-18 के आर्थिक सर्वेक्षण के मुताबिक, चरम वर्षा से खरीफ और रबी मौसम में किसानों की आय क्रमश: 13.7 फीसदी और 5.5 फीसदी कम हो सकती हैं। बर्षा की मार को कम करने और किसानों की आय को दोगुना करने के लिए व्हिटब्रेड कुछ सलाह देते हैं, "सूखे और बाढ़ के बारे में किसानों को जानकारियां, सूखा या ज्यादा जल सहिष्णु फसल की किस्मों के बारे में जानकारियां, मिट्टी और जल संरक्षण प्रौद्योगिकियों के बारे में ज्ञान, बुवाई की तारीखों को बदलने आदि और व्यावहारिक सहायता के माध्यम से किसानों को पर्याप्त समर्थन की जरूरत है। "

किसानों के अवलोकन वैज्ञानिक भविष्यवाणियों की तरह

पंजाब में, 97 फीसदी कृषि भूमि सिंचित है, जबकि मध्य प्रदेश में यह प्रतिशत 40 फीसदी है, जिससे किसान मानसून के उतार-चढ़ाव से अधिक प्रभावित होते हैं। इसके बावजूद, दोनों राज्यों के किसानों ने जलवायु परिवर्तन के प्रभाव को महसूस किया है।

पंजाब के 150 धान किसानों में से तीन-चौथाई से अधिक सुनिश्चित थे कि जलवायु पैटर्न बदल गए हैं, जैसा कि पांच जिलों ( होशियारपुर, शाहिद भगत सिंह नगर, लुधियाना, फरीदकोट और श्री मुक्तासर साहिब ) में मास्टर ऑफ साइंस (एमएससी) की डिग्री के लिए आयोजित 2016 के सर्वेक्षण में बरार ने पाया है। इसमें उत्तर-पूर्व, दक्षिण-पश्चिम और राज्य के केंद्रीय हिस्सों को कवर किया गया था।

अध्ययन में पांच किसानों में से एक को कुछ हद तक यकीन था कि जलवायु परिवर्तन हुआ था। हालांकि, उनका इस बात पर मतभेद था कि यह कैसे हुआ। 10 किसानों में से आठ मानते हैं कि जलवायु परिवर्तन ने तापमान बढ़ाया है। सात लोगों का मानना है कि वर्षा पैटर्न बदल गया है। 10 में से चार वायु प्रदूषण में वृद्धि महसूस कर रहे हैं। 10 में से लगभग चार, धूप के घंटों में उतार-चढ़ाव महसूस करते हैं, दो का विचार था कि सूखा बार-बार पड़ रहा है और एक से कम मानते थे कि बाढ़ बहुत बार हुई है।

इन अवलोकनों में से कुछ, आने वाले दशकों में जलवायु परिवर्तन के लिए वैज्ञानिकों की भविष्यवाणियों से मेल खाते हैं।

पश्चिमी भारत के शुष्क पॉकेट में देखी जा सकती है बारिश

एंथनी व्हिटब्रेड कहते हैं कि अब और 2050 के बीच, भारत में न्यूनतम और अधिकतम तापमान में वृद्धि देखने की संभावना है और इनसे गर्मी बढ़ सकती है और समुद्र का स्तर बढ़ सकता है।

सूखे से घिरे अफ्रीकी महाद्वीप के विपरीत, 2050 के दशक तक, भारत के कुछ क्षेत्रों में अधिक बारिश देखने की संभावना है। ये भविष्यवाणियां 20 सामान्य परिसंचरण मॉडल, दुनिया भर में वर्षा और तापमान में भविष्य में बदलाव का अनुकरण करने वाले जलवायु मॉडल पर आधारित हैं।

भविष्यवाणी में कहा गया है कि 2050 तक बारिश में सबसे ज्यादा वृद्धि भारत के शुष्क पश्चिमी हिस्सों में होगी, जबकि दक्षिण और नेपाल के किनारे गंगा के मैदानी इलाके के कुछ हिस्सों में मामूली वृद्धि देखी जा सकती है।

हालांकि, इस भविष्यवाणी पर एंथनी व्हिटब्रेड कहते हैं," वर्षा में बदलाव की मात्रा में बड़ी अनिश्चितताएं मौजूद हैं। मानसून के महीनों के दौरान बारिश अनिश्चित होगी। मानसून की शुरुआत के बाद बारिश अपर्याप्त हो सकती है या इसमें सूखे दिन शामिल हो सकते हैं। चूंकि बरसात के दिनों की संख्या में संगत वृद्धि की संभावना नहीं है, इसलिए भारत अधिक चरम घटनाओं को देख सकता है, जैसे अत्यधिक बारिश या अत्यधिक सूखा। "

किसानों तक नहीं पहुंचती है सलाह

मध्यप्रदेश के जबलपुर जिले में राज्य में वर्षा पर आधारित सबसे बड़ा कृषि क्षेत्र है, लगभग 235,058 हेक्टेयर । इसके बाद शाहपुरा ब्लॉक में, जहां 45,274 हेक्टेयर जमीन बारिश पर निर्भर है, में 10 किसानों में से सात ने जलवायु परिवर्तन के प्रभाव को कम करने के तरीकों के बारे में जानकारी की कमी की बात कही औऔर बताया कि यह उनके लिए सबसे बड़ी चुनौती है, जैसा कि 2015 में एक एमएससी डिग्री के लिए जवाहरलाल नेहरू कृषि विश्व विद्यालय, जबलपुर की छात्र अमृता सिंह द्वारा आयोजित एक सर्वेक्षण में पता चला है।

सर्वेक्षण में शामिल सभी किसानों को पता था कि उन्हें खरीफ फसल की बुवाई में देरी करनी चाहिए, क्योंकि मानसून अब देर से शुरू हो रहा है। 10 में से लगभग आठ के पास पर्याप्त जल निकासी सुनिश्चित करने और भारी वर्षा के दौरान उर्वरक के उपयोग से बचने जैसे उपायों की जानकारी थी। 10 किसानों में से छह को पता था कि एक उपयुक्त फसल पैटर्न का चयन प्रकृति की वर्तमान अनियमितताओं से निपटने में मदद कर सकता है।

जबकि शाहपुरा के किसानों ने स्वीकार किया कि सरकार और गैर-सरकारी निकाय जलवायु परिवर्तन से निपटने के बारे में जानकारी के साथ किसानों को लैस करने के लिए कृषि विस्तार गतिविधियों को आयोजित कर रहे थे। स्थानीय भाषाओं में जानकारी की अनुपलब्धता के बारे में आधे से ज्यादा ने शिकायत की।

बरार का मानना ​​है कि तकनीकी जानकारी किस क्षेत्र के लिए किस तरीके से साझा किया जा रहा है, यह महत्वपूर्ण है,"एक राज्य या बड़े क्षेत्र के लिए एक ही तरह के सलाह तैयार करने से बात नहीं बनेगी, क्योंकि भूमि की विशेषताएं अलग-अलग क्षेत्रों में अलग-अलग होती हैं।"

बनेगी, क्योंकि भूमि की विशेषताएं अलग-अलग क्षेत्रों में अलग-अलग होती हैं।"लुधियाना में पंजाब कृषि विश्वविद्यालय के संचार और अंतर्राष्ट्रीय संबंधों के सहायक निदेशक (टीवी और रेडियो) अनिल शर्मा ने सहमति व्यक्त की, और कहा कि "हमें बाजार की जानकारी और किसानों को अन्य जानकारियों को शामिल करने वाली कृषि सलाहों को मजबूत करने की जरूरत है।" ग्रामीणों तक जानकारी या सलाह पहुंचाने के लिए इंटरनेट का उपयोग किया जा सकता है, क्योंकि पंजाब के अधिकांश ग्रामीण इंटरनेट से परिचित हैं।

जलवायु परिवर्तन से निपटने के लिए किसानों को बेहतर बीज चाहिए

जलवायु परिवर्तन के लिए खुद को अपने संसाधनों के बूते अनुकूल बनाने में जुटे पंजाब के किसानों के बरार द्वारा आयोजित सर्वेक्षण में 10 धान किसानों में से नौ ने छोटी अवधि की फसल की किस्मों की ओर रूख किया था।, जबकि आठ अभी भी मौसम पूर्वानुमान पर भरोसा कर रहे थे।

10 किसानों में से एक से कम ने अपने फसल पैटर्न को बदलने का विकल्प चुना है, जो कठोर प्रभाव के साथ जलवायु परिवर्तन का संभावित परिणाम है। यदि किसान खाद्य फसल से नकद फसल तक बड़े पैमाने पर स्विच करते हैं, तो देश में उपलब्ध भोजन की मात्रा और विविधता पर प्रतिकूल प्रभाव डाला जाएगा।

आधे से अधिक उत्तरदाता चाहते थे कि सरकार ऐसी फसल के किस्मों को विकसित करे जो कि कीट- और रोग प्रतिरोधी हों। आधे उत्तरदाता चाहते थे कि ऐसी किस्में हों, जो जलभराव में भी जी सकें और लगभग एक तिहाई उत्तरदाताओं का मानना था ऐसी किस्में हों, जो तापमान विविधता और जल संकट से लड़ सके।भारतीय वैज्ञानिकों ने सूखे की हालत और अत्यधिक गर्मी के लिए कुछ फसोलों की किस्में विकसित तो की हैं, लेकिन किसानों के पास इस तरह की कोई जानकारी नहीं।

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पंजाब के श्री मुक्तसर साहिब के एक कृषि परिवार के सदस्य हरसिमरजीत बरार का मानना ​​है कि किसानों को उनकी स्थिति के लिए प्रासंगिक जलवायु पर अधिक तकनीकी जानकारी की आवश्यकता है। राज्यवार या क्षेत्रीय सलाह में इस तथ्य की अनदेखी की जाती है, जबकि भूमि की विशेषताएं अलग-अलग क्षेत्रों में अलग-अलग होती हैं।

मिसाल के तौर पर, आईसीआरआईएसएटी ने आईसीजीवी 91114, सूखे के लिए बेहतर ढंग से उपयुक्त मूंगफली की एक नस्ल विकसित की है, जो कि 23 फीसदी तक फली उपज बढ़ाने, 36 फीसदी की शुद्ध आय और 30 फीसदी तक उपज परिवर्तनशीलता को कम कर सकता है, जैसा कि आंध्र प्रदेश के अनंतपुर जिले में 2011 में आयोजित एक कृषि प्रभाव अध्ययन में बताया गया है।

2016 में, ओडिशा राज्य बीज प्रमाणन लिमिटेड ने आगामी मौसम में अन्य किसानों को वितरित करने के लिए चार जिलों में बीज उत्पादक किसानों से आईसीजीवी 91114 के 54 टन की खरीद की थी। आंध्र प्रदेश और कर्नाटक भी किसानों को वितरण के लिए आईसीजीवी 91114 बीज का उत्पादन करते हैं। लेकिन 2015-16 में गुजरात, राजस्थान, तमिलनाडु, आंध्र प्रदेश और कर्नाटक में शीर्ष पांच मूंगफली उत्पादक राज्य थे।

आईसीआरआईएसएटीएटी के एक वरिष्ठ वैज्ञानिक स्वामीमन्नु नेदुमारन ने इंडियास्पेंड को बताया, "कम जागरूकता के अलावा, किसानों के क्षेत्र में हमारी नई प्रौद्योगिकियों का प्रसार बाजार में बीजों की अनुपलब्धता के कारण धीमा है।" उनका मानना ​​है कि ऐसा शुष्क भूमि के लिए फसलों के लिए बीज विकसित और वितरित करने तथा मूल्य समर्थन के माध्यम से उन्हें बढ़ावा देने पर सीमित ध्यान के कारण है।

शुष्क भूमि फसल हजारों छोटे किसानों के लिए आय का एक पारंपरिक स्रोत है। नेदुमारन कहते हैं, "धान, गेहूं और मक्का जैसी प्रमुख खाद्य फसलों पर देश भर में बहुत अधिक ध्यान दिया जा रहा है।"

नई प्रौद्योगिकी तक छोटे किसानों की बद्तर पहुंच

मध्यप्रदेश में, मानसून के दौरान सोयाबीन राज्य के कुल फसल वाले क्षेत्र का 45 फीसदी कवर करता है। राइसेन और होशंगाबाद जिलों में भी कुछ साल पहले यह मामला था।

जबलपुर के जवाहरलाल नेहरू कृषि विश्विद्यालय में कृषि विस्तार के प्रोफेसर और प्रमुख नलिन खारे कहते हैं, " दो निचले इलाकों में देर से और लगातार भारी मानसून की बारिश ने फसलों को चौपट किया है और किसान सोयाबीन और दालों से धान की ओर बढ़े हैं।”

उन्होंने कहा, "अप्रत्याशित वर्षा से जलभराव धान से ज्यादा सोयाबीन को प्रभावित करता है।"

सोयाबीन किसानों की पसंदीदा फसल बन गई "मुख्य रूप से (इसकी) छोटी अवधि (90-105 दिन) उच्च शुद्ध वापसी के कारण", जैसा कि कृषि मंत्रालय और किसान कल्याण मंत्रालय के तहत एक निकाय दालों के विकास, भोपाल के निदेशालय की 2015-16 वार्षिक रिपोर्ट से पता चलता है।

हालांकि, रिपोर्ट हमें बताती है कि "खरीफ 2015 के दौरान सोयाबीन उत्पादन में अधिक भारी गिरावट आई और इसका कारण वनस्पति चरण (अंकुरण और फूल के बीच वृद्धि की अवधि) में अत्यधिक वर्षा, बीज भरने के चरण में (जब बीज फली में विकसित होता है) लंबे सूखे दिन और पीले मोज़ेक वायरस का उपद्रव (पौधों को प्रभावित करने वाली एक वायरल बीमारी) और अन्य कीट रहा है।"

कुछ जिलों में, 2015 में सोयाबीन फसल का नुकसान 60-70 फीसदी था।

मध्य प्रदेश में कृषि विस्तार गतिविधियों के दौरान, किसानों को सिखाया गया है कि कैसे भारी बारिश से सोयाबीन फसल की रक्षा के लिए रिज और फेरो विधि का उपयोग किया जाए और बिस्तर प्रणाली को उठाया जाए, जैसा कि इंडियन इंस्टीट्यूट ऑफ सोयाबीन रिसर्च, इंदौर के साथ एक वरिष्ठ वैज्ञानिक (कृषि अर्थशास्त्र) पुरुषोत्तम शर्मा ने इंडियास्पेंड को बताया है।

राज्य सरकार उद्देश्य के लिए स्थापित व्यावसायिक रूप से संचालित केंद्रों के माध्यम से इस प्रणाली के लिए आवश्यक उपकरण उपलब्ध कराने की कोशिश कर रही है। वह कहते हैं, "लेकिन इन केंद्रों की पहुंच सीमित है, इनके सुरक्षात्मक तरीकों से दूर-दराज वाले किसान अभी भी वंचित हैं।"

श्री मुक्तासर साहिब में, कुछ साल पहले ट्यूबवेल लगाने के लिए किसानों को मिलने वाले सरकारी सब्सिडी के लिए बरार आभारी हैं। उन्होंने कहा, "एक ट्यूबवेल स्थापित करने के लिए 100,000 रुपये की लागत के लिए हमें केवल 9,000 रुपये लगते है।" हालांकि, उन्होंने स्वीकार किया कि यह लाभ सभी आवश्यक किसानों तक नहीं पहुंचा है, जिनमें से कई ऐसे हैं, जो बिजली वहन नहीं कर सकते हैं।

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बरार बताते हैं, "एक ट्यूबवेल स्थापित करने के लिए 100,000 रुपये की लागत के लिए हमें केवल 9,000 रुपये लगते है।" हालांकि, उन्होंने स्वीकार किया कि यह लाभ सभी आवश्यक किसानों तक नहीं पहुंचा है।

जलवायु परिवर्तन रणनीतियों पर भारत को तेज करनी होगी गति

अर्थशास्त्र के एक जर्नल में प्रकाशित 2013 के इस अध्ययन के अनुसार, वैश्विक स्तर पर, जलवायु परिवर्तन ने पहले से ही कुछ मध्यम और उच्च अक्षांश क्षेत्रों में बढ़ते मौसम को बढ़ा दिया है जो कि ज्यादातर फसलों की खेती के लिए बहुत ठंडे थे, जैसे रूस के उत्तरी परिसर। इसके विपरीत, जलवायु अत्यधिक शुष्क होने के कारण दक्षिणी रूस(दुनिया के ब्रेडबास्केट में से एक) में गेहूं की पैदावार कम हो जाएगी, जैसा कि मौसम की भविष्यवाणी में कही गई है।

भारत में, 2050 के दशक में देश के कुछ हिस्सों में कृषि वर्षा में 5 फीसदी से 20 फीसदी की वृद्धि से लाभान्वित हो सकती है। देश भर में बढ़ते तापमान और कार्बन डाइऑक्साइड के बढ़ते वायुमंडलीय सांद्रता का मिश्रित प्रभाव भविष्य की योजनाओं पर भी पड़ सकता है।

नेदुमारन कहते हैं, “ वर्षा, तापमान और कार्बन डाइऑक्साइड का संयुक्त प्रभाव उगाई गई फसल की विविधता, फसल प्रबंधन प्रथाओं और स्थान पर निर्भर करेगा।”

जलवायु परिवर्तन के प्रभाव के आईसीआरआईएसएटी फसल सिमुलेशन मॉडल से पता चलता है कि उच्च वर्षा के कारण मक्का, ज्वार और मूंगफली की पैदावार में वृद्धि हो सकती है, लेकिन बढ़ते तापमान से फसलों की पैदावार में कमी आएगी, विशेष रूप से रबी मौसम की फसलों में, जैसे कि चना और यह विशेष रूप से दक्षिण भारत में होगा ।

एक हालिया अध्ययन के मुताबिक, चना, सोयाबीन, प्याज और अरंडी, कार्बन डाइऑक्साइड के उच्च वायुमंडलीय सांद्रता से लाभ उठा सकते हैं, जबकि चावल, गेहूं, मक्का और ज्वारीय उपज में गिरावट देखी जा सकती है।

(बाहरी राजस्थान के माउंट आबू में स्थित एक स्वतंत्र लेखक और संपादक है।)

यह लेख मूलत: अंग्रेजी में 14 जुलाई, 2018 को indiaspend.com पर प्रकाशित हुआ है।

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