नई दिल्ली: भारत के उत्तर-पूर्वी राज्यों में कैंसर के मामलों में लगातार बढ़ोतरी हो रही है और इन राज्यों में कैंसर के कुल मामले साल 2025 तक बढ़कर 57,131 तक जा सकते हैं। साल 2020 तक यहाँ के कुल अनुमानित केस 50,317 थे।

ये आँकड़े उत्तर-पूर्व के 8 राज्यों -- अरुणाचल प्रदेश, असम, मणिपुर, मेघालय, मिज़ोरम, नागालैंड, सिक्किम और त्रिपुरा के हैं और भारतीय आयुर्विज्ञान अनुसंधान परिषद (आईसीएमआर) और नैशनल सेंटर फ़ोर डिज़ीज़ इन्फ़र्मैटिक्स एंड रीसर्च (एनसीडीआईआर) की 2021 में जारी की गयी नयी रिपोर्ट में सामने आए हैं। यह रिपोर्ट 4 फ़रवरी यानी इस वर्ष के विश्व कैंसर दिवस के दिन जारी की गयी थी।

भारत के उत्तर-पूर्वी राज्यों में कैंसर के मरीज़ों की भारी संख्या कोई नयी बात नहीं है, लेकिन चौंकाने वाली बात यह है कि पिछले इतने वर्षों में कैंसर के मामलों में लगातार वृद्धि हो रही है।

उत्तर-पूर्व के 8 राज्यों में 2012 से 2016 के बीच में रिपोर्ट किये गए कैंसर के मामले 16,840 प्रति वर्ष की औसत से 67,361 थे, जिनमे 36811 पुरुष और 30550 महिलाओं के मामले थे।

लेकिन अब इन्ही प्रदेशों में 2020 में कैंसर के अनुमानित मामले 50317 (27503 पुरुष और 22814 महिलाएं) माने जा रहे हैं जो कि इस बीमारी कि दृष्टि से एक बहुत बड़ी वृद्धि है. इस ही के साथ लगभग 13.5% की दर से ये अनुमानित मामले साल 2025 तक 57131 (30985 पुरुष और 26146 महिलाएं) पहुँच जाएंगे।

भारत में कैंसर
केंद्रीय स्वास्थ्य और परिवार कल्याण राज्य मंत्री अश्विनी कुमार चौबे ने राज्य सभा में 2 फ़रवरी, 2021 को पूछे गए एक सवाल के जवाब में बताया की हालाँकि कैंसर, मधुमेह और हृदय रोग से होने वाली कुल मौतों के सटीक आँकड़े मौजूद नहीं हैं लेकिन अनुमानित औसत के अनुसार कैंसर से होने वाली सालाना मौतों का आँकड़ा 7 लाख से 8 लाख है।

भारत में हर दस में से एक व्यक्ति के जीवन में उसे कैंसर होने की सम्भावना है और हर 15 में से एक व्यक्ति की इस बीमारी से मौत हो सकती है। साल 2018 में भारत में कैंसर के लगभग 12 लाख नए केस पाए गए और इससे होने वाली 7,84,800 मौतें, ऐसा विश्व स्वास्थ संगठन (डबल्यूएचओ) की कैंसर पर काम करने वाली एजेंसी इंटर्नैशनल एजेन्सी फ़ोर रीसर्च ऑन कैंसर (आईएआरसी) की इस वर्ष की विश्व कैंसर दिवस रिपोर्ट में सामने आया है।

इस रिपोर्ट के अनुसार भारत में 6 प्रकार के कैंसर -- स्तन कैंसर, मुँह का कैंसर, सरवाइकल (गर्भाशय) कैंसर, फेफडों का कैंसर, पेट (आमाशय) का कैंसर और कोलोरेक्टल (बड़ी आंत) कैंसर -- आमतौर पाए जाते हैं । भारत में स्तन कैंसर के मामले लगातार बढ़ रहे हैं जबकि सरवाइकल कैंसर के मामले कम हो रहे हैं।

उत्तर पूर्वी राज्यों में कैंसर के बढ़ते मामले
आईसीएमआर की रिपोर्ट के अनुसार मणिपुर और सिक्किम को छोड़ कर उत्तर-पूर्व के सभी 6 राज्यों में पुरुषों में महिलाओं से ज़्यादा कैंसर के केस देखे गए। कैंसर ग्रसित पुरुषों में सबसे ज़्यादा, 14% में इसोफेगस कैंसर और 11% में फेफडों का कैंसर देखा गया। जबकि कैंसर ग्रसित महिलाओं में सबसे ज़्यादा, 14% में स्तन कैंसर और 12% में सरवाइकल कैंसर पाया गया।


पुरुषों के सबसे ज़्यादा मामले मिज़ोरम के आइज़ोल ज़िले में पाए गए जहाँ हर एक लाख पुरुषों में लगभग 270 को कैंसर था। महिलाओं के सबसे ज़्यादा मामले अरुणाचल प्रदेश के पापमपारे ज़िले में देखे गए जहाँ हर एक लाख महिलाओं में से 220 को कैंसर था।

"उत्तर पूर्वी राज्यों में कैंसर के मामले देश भर से काफ़ी ज़्यादा हैं। हालँकी ये दर सभी 8 राज्यों में सामान्य नहीं है, कुछ इलाक़ों में आँकड़े ज़्यादा, कम और स्थिर भी हैं," डॉ प्रशांत माथुर, एनसीडीआईआर के डायरेक्टर और रिपोर्ट के मुख्य शोधकर्ता, ने बताया।

"इस इलाक़े में कैंसर का सबसे बड़ा कारण है तम्बाकू का सेवन। तम्बाकू खाने या धूम्रपान करने वाले लोगों की संख्या उत्तर पूर्वी राज्यों में, देश भर से काफ़ी ज़्यादा है। इसके बाद कुछ और छोटे कारण है जैसे घर के अंदर का प्रदूषण, पर इनकी भूमिका तम्बाकू से काफ़ी कम है," डॉ रवि कन्नन ने बताया.

डॉ रवि कन्नन असम में कार्यरत सर्जिकल ओंकोलोगिसट हैं और कचर कैंसर हॉस्पिटल और रीसर्च सेंटर के डायरेक्टर भी, इन्हें साल 2020 में पद्मश्री से सम्मानित किया गया था।

"ग्लोबल अडल्ट टबैको सर्वे-2 के भारतीय आँकड़ों के अनुसार उत्तर-पूर्व में तम्बाकू के इस्तेमाल के आँकड़े राष्ट्रीय औसत से ज़्यादा हैं। तम्बाकू के सेवन के स्थानीय प्रकार जैसे खैनी और तुइबर जो की मिज़ोरम और मणिपुर में काफ़ी प्राचिलित, साथ ही महिलाओं और पुरुषों में धूम्रपान के आँकड़े लगभग बराबर हैं, और ज़्यादातर लोगों में ये आदत किशोरावस्था से ही शुरू हो जाती है," डॉ माथुर ने बताया।

इलाज़ के लिए दूसरे राज्यों पर ज़्यादा भरोसा
कैंसर के मरीज़ों में से राज्य से बाहर जा कर इलाज करवाने वालों की संख्या सबसे ज़्यादा सिक्किम में है जहाँ 95% मरीज़ राज्य के बाहर के अस्पतालों में इलाज करते हैं, इसके बाद है नागालैंड जहाँ के 58% मरीज़ ऐसा करते हैं।

"राज्य से बाहर जा कर इलाज करवाने की आदत मरीज़ों में पिछले कई दशकों से बन गयी है क्योंकि कभी सुविधाएँ उपलब्ध ही नहीं थी। अस्पताल बनने के बाद भी, लोगों के बीच उसपर भरोसा स्थापित होने में समय लगता है। सिर्फ़ अस्पताल बनाने से लोग अस्पताल जाना शुरू कर दें ऐसा ज़रूरी नहीं है, उन्हें जिस अस्पताल पर लम्बे समय से भरोसा रहा है वो वहीं जाएँगे। इलाज के लिए बम्बई, दिल्ली, चेन्नई, बैंगलोर जाना एक परंपरा जैसी बन गयी है उसे बदलने में समय लगेगा," डॉ कन्नन ने बताया।

"उत्तर-पूर्वी राज्यों में तृतीय स्तर की कैंसर इलाज की सुविधाएँ और ओंकोलोगिस्टस की कमी है," डॉ माथुर ने कहा।

दिसम्बर 2020 में नेशनल कैंसर रेजिस्ट्री प्रोग्राम की एक रिपोर्ट के शोध में देश भर के सभी राज्यों में कैंसर के केस देखे गए और पाया गया की ये सबसे ज़्यादा उत्तर-पूर्वी इलाक़ों में हैं।

आइज़ोल, पापमपरे, ईस्ट ख़ासी हिल और कामरूप ज़िलों में हर 4 में से एक पुरुष को पैदा होने से लेकर 74 साल की उम्र तक कैंसर होने की सम्भावना है। मिज़ोरम में हर 5 में से 1 और पापमपरे ज़िले में हर 4 में से 1 महिलाओं को 74 साल की उम्र तक कैंसर होने की सम्भावना है।

इसी शोध के अनुसार उत्तर पूर्व में आधारभूत सुविधाओं की कमी है जैसे की विशिष्ट इलाज की सुविधाएँ और चिकित्सा के क्षेत्र में मानव संसाधनों की कमी। इसकी वजह से देश भर के मुक़ाबले उत्तर पूर्व में ब्रेस्ट, सरवाइकल, सिर और गले के कैंसर के मरीज़ों की इलाज के पाँच साल बाद तक ज़िंदा रहने की दर देश भर से कम है। इसी वजह से इलाक़े में कैंसर के कुल मरीज़ों का एक बड़ा हिस्सा उत्तर-पूर्व से बाहर जाकर अपना इलाज करवाता है।

बीमारी की जल्दी पहचान ना होना
"समय पर जाँच ताकि कैंसर शुरूआती स्तर पर ही पकड़ा जा सके बहुत ज़रूरी है। इसके लिए ज़रूरी चीजें हैं कैंसर के बारे में सामाजिक जागरूकता, घर के पास जाँच करवाने की सुविधा जहाँ तक आराम से पहुँचा जा सके और सस्ता इलाज। कैंसर के मामलों में लंबी वेटिंग लिस्ट नहीं हो सकती क्योंकि कई मज़दूर रोज़ कमा कर रोज़ खाते हैं वो बार बार अस्पताल नहीं जा सकते क्योंकि वो जिस दिन काम पर नहीं जाएँगे उस दिन उनके पास खाने के लिए काफ़ी नहीं होगा, ये सब सुनिश्चित करना ज़रूरी है," डॉ कन्नन ने बताया।

कैंसर के इलाज की सुविधाएँ कुछ बड़े शहरों तक सीमित है। उत्तर-पूर्वी इलाक़े के ज़्यादातर क्षेत्र पहाड़ी है, और ज़्यादातर ग़रीब मरीज़ों को बस या ट्रेन से लंबा सफ़र तय करना पड़ता हैं जो की किसी भी ख़राब स्वास्थ्य वाले व्यक्ति के लिए ख़तरनाक हो सकता है, ऐसा हमने अपनी दिसम्बर 2020 की एक रिपोर्ट में बताया।

"उत्तर पूर्व में बीहड़ इलाक़े है, पहाड़, जंगल, नदी आदि पार कर के लोग अस्पताल पहुँचते हैं। हाल ही में सरकार ने सभी राज्यों में ख़ासकर उन जिलो में जहाँ कोई सुविधा उपलब्ध नहीं थी वहाँ भी अस्पताल बनाने शुरू कर दिए हैं, पर सिर्फ़ अस्पताल बनाना काफ़ी नहीं है, यहाँ डॉक्टर उपलब्ध करना भी मुश्किल है साथ, ये सुनिश्चित करना की लोग इन तक पहुँच सके भी ज़रूरी है, पर इस सब में समय लगता है," डॉ कन्नन ने बताया।

स्थिति की बेहतरी के लिए स्वास्थ्य व्यवस्था बेहतर करना ज़रूरी
आईसीएमआर की रिपोर्ट में बताया गया कि स्थिति को नियंत्रण में करने के लिए और कैंसर की रोकथाम के लिए दो मुख्य बिंदु ज़रूरी हैं। दिए गए सुझाव में शामिल है -- स्वास्थ्य व्यवस्था मज़बूत करना और कैंसर की रोकथाम और नियंत्रण के लिए क़दम।

स्वास्थ्य व्यवस्था मज़बूत करने के लिए ज़रूरी है कि जन स्वास्थ के लिए ज़्यादा राशि आवंटित की जाए और कैंसर के इलाज की सुविधाओं पर ख़र्च बढ़ाया जाए, और इसके लिए राजनैतिक इच्छा होना ज़रूरी है। स्वास्थ्य कर्मियों की सही ट्रेनिंग और नयी तकनीकों का इस्तेमाल जिस से बीमारियों का शुरूआती स्तर पर ही पता चल सके।

कैंसर की रोकथाम के लिए इससे जुड़ी जानकारी और जागरूकता फैलाना भी ज़रूरी है। साथ ही कैंसर की नियमित जाँच को बढ़ावा देना और कैंसर के शुरूआती लक्षणों के बारे में जानकारी फैलाना ताकि स्वास्थ्यकर्मी इसकी पहचान कर सकें। कैंसर के इलाज के लिए बेहतर बीमा योजनाएं और सस्ते इलाज की व्यवस्था और कैंसर सर्वाइवर्ज़ के जीवन को बेहतर बनाने के लिए इलाज के बाद फ़ॉलो-उप सुविधाएँ। साथ ही केंद्रित कैंसर शोध को बढ़ावा देना जो इलाके की स्थानीय समस्यें और ज़रूरतों पर ध्यान दें।

इन सब कठिनाइयों की वजह से लोग अक्सर अपना इलाज बीच में ही छोड़ देते हैं। "इलाज में पैसा लगता है। अस्पताल तक जाने का ख़र्च, जो अक्सर ज़्यादा होता है, फिर कैंसर का इलाज एक बार का नहीं होता ये लम्बे समय तक चलाता है। पूरा इलाज होने में लगभग एक साल लगता है इसके बाद इलाज से होने वाली थकान से उबरना होता है। इसके काफ़ी समय बाद व्यक्ति वापस नौकरी पर जाने लायक़ हो पता है। इस सब का असर पूरे परिवार के आर्थिक स्वास्थ्य पर पड़ता है। इसी लिए लोग बीच में इलाज छोड़ देते हैं। अस्पताल में मरीज़ से कोई ठीक से बात नहीं करता, ठीक से सहायता नहीं करता," डॉ कन्नन ने बताया, "अपना नसीब मान कर इलाज छोड़ देना ज़्यादा आसान लगता है।"

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(साधिका, इंडियास्पेंड के साथ प्रिन्सिपल कॉरेस्पॉंडेंट हैं।)